Friday, April 19, 2024

जमशेदपुर में टाटा : इस्पात भी हम बनाते हैं या इस्पात ही हम बनाते हैं!

“इस्पात भी हम बनाते हैं या इस्पात ही हम बनाते हैं”, टाटा स्टील का यह बदलता नारा टाटा घराने की भारत में 1874 से शुरू हुए व्यवसायिक सफर के नैतिक उत्थान और पतन की पूरी कहानी बयान कर देता है। इस औद्योगिक घराने ने महात्मा गांधी जैसी शख्सियत को भी ठगा जिसकी भारत में बहुत कम ही चर्चा होती है। ज्ञातव्य है कि टाटा ने महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह आंदोलन में 25000 पौंड की दो बार मदद की, टाटा स्टील में हुए हड़ताल को खत्म कराने में उन्हें धोखे में रख उनकी मदद ली और अंत में गांधी जी के ट्रस्टीशिप के प्रस्ताव के मसविदे पर दस्तखत करने से साफ इनकार कर दिया।

यह आलेख संक्षेप में टाटा घराने की नैतिक क्षय, अनैतिकता के सैकड़ों कारनामे, देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट और झारखंड राज्य के संसाधनों के लूट, क्षय, बर्बादी और विनाश एवं आदिवासियों के विस्थापन और घोर शोषण और उत्पीड़न से विकसित टाटा की अमीरी की कहानी है। पर पहले इसकी पूर्व भूमिका पर चलते हैं।

भारत में कई युवा सोच रहे होंगे कि अलीबाबा के प्रमुख जैक मा के बारे में यह विवाद क्यों है कि उनके कर्मचारियों को दिन में 12 घंटे और सप्ताह में 6 दिन काम करना चाहिए? लाखों भारतीय हैं, जिनके जीवन में यह एक ‘सामान्य’ स्थिति है। कुछ लोग यह जानते हैं कि आठ घंटे का कार्य दिवस एक अनिवार्य कानून है, लेकिन केवल सिद्धांत में। प्रत्येक 12-घंटे काम की शिफ्ट का वास्तव में मतलब है कि किसी को आधे दिन के काम से वंचित किया जाना।

विडंबना यह है कि इस वास्तविकता के प्रतिकार में बेरोजगारी की समस्या का आंशिक निदान भी निहित है। दिसंबर 1999 में, वयोवृद्ध श्रमिक नेता बागाराम तुलपुले ने एक विनाशकारी अवलोकन किया। जीवन भर मज़दूरों के हितों के लिए काम करने के बाद तुलपुले साहेब को अंत में लगा वे हार गए। उन्होंने व्यथित हो कर कहा था कि श्रमिक वर्ग ने 20 वीं शताब्दी के दौरान महत्वपूर्ण लाभ अर्जित किया, लेकिन अब हम सौ साल पहले जहां थे, वहां वापस आ गए हैं। 

1 मई को दुनिया भर के देशों में अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस के रूप में मनाया जाता है क्योंकि यह मजदूरों के आंदोलन द्वारा 19 वीं शताब्दी के संघर्ष को आठ घंटे के कार्य दिवस को आदर्श बनाने के लिए स्मरण दिलाता है। 1919 में, इस मांग ने अंतर्राष्ट्रीय श्रम कार्यालय की स्थापना के साथ मजबूती प्राप्त किया, जिसे अब अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के रूप में जाना जाता है। 1948 में, भारतीय कारखाना अधिनियम ने यह शासनादेश दिया कि एक नियोक्ता एक व्यक्ति को एक सप्ताह में 48 घंटे या एक दिन में 9 घंटे से अधिक काम करने के लिए नहीं कह सकता है।

उस कानून के लागू होने के 40 वर्षों तक, यहाँ मज़दूर यूनियनें मज़बूत थीं, जिन्होंने यह सुनिश्चित किया कि इस बुनियादी अधिकार को लागू किया जाए। 1980 के दशक के मध्य से ‘मुक्त बाजार’ अर्थशास्त्र के पुनरुत्थान ने यह सब बदल दिया। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (NSSO) की एक रिपोर्ट बताती है कि भारतीय शहरों में श्रमिक औसतन सप्ताह में 53 से 54 घंटे काम कर रहे हैं। यह स्थायी स्थिति भारत में इस वजह से है क्योंकि जब मजदूरी बहुत कम होती है, तो लोगों को पर्याप्त कमाई करने के लिए घंटों काम करना पड़ता है।

इधर, अख़बारों में यह खबर छपी कि टाटा स्टील का जमशेदपुर प्लांट, जो देश में श्रमिकों के लिए आठ घंटे की शिफ्ट का अग्रदूत था, वह कोविद -19 के प्रसार को रोकने के लिए इस महीने से मज़दूरों से 12 घंटे काम लेगा। कंपनी को झारखंड सरकार से बदलाव की अनुमति भी मिल गयी, क्योंकि आठ घंटे को बारह घंटे करने के लिए श्रम कानून के तहत विशेष छूट की आवश्यकता थी। टाटा स्टील ने कहा कि प्रस्तावित बदलाव उन लोगों की संख्या को कम करेगा जो किसी भी समय कारखाने में प्रवेश करेंगे या बाहर निकलेंगे। इसके अलावा यह किसी एक वक्त पर शॉप फ्लोर पर बड़ी संख्या में मज़दूरों के जमावड़े को भी रोकेगा।

कई अन्य राज्यों ने पहले ही लॉकडाउन के दौरान विस्तारित घंटों की अनुमति दी थी, जिसमें ओडिशा भी शामिल है, जहां टाटा स्टील जमशेदपुर की ही तरह दो बड़े एकीकृत स्टील प्लांट संचालित करती है। टाटा कंपनी ने कलिंग नगर और अंगुल संयंत्रों में 12-घंटे की शिफ्टों में स्विच किया था ताकि प्लांट के अंदर लोगों की संख्या को सीमित किया जा सके। ये इकाइयां अब काफी हद तक आठ घंटे के समय सारणी में वापस आ गई हैं। उत्तर प्रदेश की सरकार ने भी ऐसा ही एक सर्कुलर जारी किया था जिसे उसने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक रिट पेटिशन दायर होने के बाद वापस ले लिया।

आज, आठ घंटे का कार्य दिवस मायावी बना हुआ है, विशेष रूप से एशियाई लोगों के लिए। 2018 में आईएलओ के एक अध्ययन से पता चला है कि दक्षिण एशिया और पूर्वी एशिया में औसतन कर्मी सप्ताह में 46 घंटे काम कर रहे हैं। विभिन्न सर्वेक्षणों के अनुसार हवाई अड्डे के शौचालय, डिपार्टमेंटल स्टोर पर बिक्री क्लर्क, ऐप-आधारित टैक्सियों के ड्राइवर, कपड़ा कारखानों में दर्जी, चित्रकार या बढ़ई आदि हर जगह 10-12 घंटे काम कर रहे हैं।

कई मामलों में, इन साक्षात्कारों से पता चला है कि लोग घर और कार्यस्थल के बीच यात्रा के समय में 3 घंटे खो देते हैं – इसलिए उन्हें दैनिक कार्यों के लिए सिर्फ नौ घंटे के साथ छोड़ दिया जाता है – जिसमें उन्हें खाना बनाना, खाना, सोना और काम पर वापस जाना होता है। ऐसे श्रमिकों का भारी बहुमत प्रति दिन के आधार पर काम पर रखा जाता है, इसलिए उनके पास कभी भी अवकाश का दिन नहीं होता है। यह वास्तविकता इस बात का परिणाम है कि कैसे बाजार की गतिशीतला ने कानूनों और मानवीय कार्य नैतिकता दोनों को अभिभूत कर  कुंद कर दिया है।

इस मसले को विमर्श के लिए आगे बढ़ाने से पहले देश के मौजूदा कानून की तरफ झांक लेना चाहिए। कारखाना अधिनियम, 1948 की धारा 51 के अनुसार किसी भी वयस्क मजदूर को किसी भी सप्ताह में अड़तालीस घंटे से अधिक किसी कारखाने में काम कराना अवैध माना जाएगा। धारा 52 के अनुसार सप्ताह के पहले दिन किसी भी वयस्क श्रमिक को किसी कारखाने में काम करने की अनुमति नहीं होगी या नहीं दी जाएगी जब तक मजदूर की उस दिन से तुरंत पहले या बाद के तीन दिनों में से एक पूरे दिन की छुट्टी नहीं होगी, और इसके लिए कारखाने का प्रबंधक, फैक्टरी निरीक्षक के कार्यालय को इसकी सूचना देगा और, कारखाने में भी उक्त सूचना को प्रदर्शित करेगा पर किसी भी हालात में किसी भी मजदूर से एक पूरे दिन की छुट्टी के बिना लगातार दस दिनों से अधिक काम कराना पूरी तरह से अवैध होगा। ये भारतीय कानून की अनिवार्य धाराएं हैं।  

टाटा स्टील का 12 घंटे का कार्य दिवस करना उसके हजारों अनैतिक कार्यों की ही कड़ी का हिस्सा है और जो लोग टाटा को नजदीक से जानते हैं उन्हें इस फैसले ने चौंकाया नहीं। टाटा अपनी इन्हीं हरकतों को छुपाने के लिए टाटा एथिक्स की बात करती है जो झारखंड राज्य से बाहर उसकी प्रतिष्ठा को बढ़ाती है और लोग भ्रमित हो जाते हैं। पर सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात है झारखण्ड सरकार का इस प्रस्ताव को स्वीकृति देना।

भाजपा की रघुवर दास के नेतृत्व में जो सरकार थी उसे घोषित तौर पर टाटा के हित में काम करने वाली सरकार कहा जाता था और वो थी भी। पर हेमंत सोरेन की सरकार बनने के बाद थोड़ी आशा बंधी थी, खासतौर पर स्थानीय विधायक सरयू राय के प्रयासों से जब राज्य सरकार ने 20 सालों से बंद पड़ी केबल कंपनी के पुनरुद्धार का निर्णय लिया। पर यह स्वीकृति न केवल अवैध है वरन हैरान करने वाली भी है।  

टाटा स्टील इस वर्ष 4% कम बोनस देने पर विचार कर रही है। पर सबसे चिंताजनक बात है कि इसने अधिक तनख्वाह वाले कर्मचारियों का एक आतंरिक सर्वे कराया और अधिकांश कर्मचारियों को काम छोड़ने के लिये कहा है। ज्ञातव्य है कि 1991 तक टाटा स्टील में 72 हजार कर्मचारी थे जबकि आज सिर्फ 13 हजार हैं। इससे पहले टाटा स्टील ने बड़े पैमाने पर आधुनिकीकरण के बाद ईएसएस और वीआरएस स्कीमों के माध्यम से हजारों कर्मचारियों को नौकरी से हटा दिया। जब टाटा स्टील का उत्पादन सिर्फ 2 मिलियन टन सलाना था तब इसमें 72000 मज़दूर काम कर रहे थे और आज जब इसका सालाना उत्पादन 12 मिलियन के आस-पास है तब सिर्फ 13000 मज़दूर इसके स्थायी मज़दूर के रूप में वेतन रोल में हैं।

यह स्थिति टाटा को दिए गए जमीन और तमाम प्राकृतिक संसाधनों यथा खनिज, जमीन, जल, जंगल, जलवायु और सस्ता श्रम जिसमें प्रारंभिक स्थिति में एकमुश्त मुफ्त में दी गयी खनन का अधिकार शामिल हैं, झारखण्ड राज्य के हितों के बर ख़िलाफ़ है। झारखण्ड सरकार द्वारा अपने प्राकृतिक संसाधनों को टाटा स्टील के मार्फ़त निःशेष करने के पीछे मूल उद्देश्य अपने लोगों की जीविकोपार्जन की व्यवस्था करना था न कि टाटा को अमीर बनाना।   

कोविद के समय में टाटा नैतिकता के सबसे निचले स्तर पर उतर आयी। जमशेदपुर के इसके हस्पताल में कोविद वार्ड बनाया गया। पूरे झारखण्ड में कोरोना से हुई मौतों में लगभग आधे की मौत केवल इस अस्पताल में हुई है। इस दौरान इसकी अव्यवस्था की वजह से 36 डॉक्टर इस्तीफा दे कर चले गए। कई दर्जन युवा जो कोविद वैरियर बने थे उन्होंने लगभग 4 महीने अपनी जान हथेली पर रख कर अपनी सेवा देने के बाद अस्पताल छोड़ कर घर बैठ गए क्योंकि न तो टाटा ने न ही जिला प्रशासन ने इन्हें कोई वेतन दिया।

टाटा मुख्य अस्पताल में कोविद पॉजिटिव रोगियों को स्वस्थ होने के बाद भी रखा गया ताकि गंभीर मरीजों को भर्ती न करना पड़े और इन्हे सरकार से प्रति विस्तर (Bed) मुफ्त में अनुदान मिलता रहे। इस दौरान इस अस्पताल की दुरावस्था के खिलाफ लोगों ने झारखण्ड के मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री को सैकड़ों ट्वीट किये।  

टाटा केंद्र सरकार की स्किल इंडिया कार्यक्रम की एक बड़ी लाभार्थी है। टाटा मोटर्स का स्किल इंडिया का प्रचार इस प्रकार है, 

“टाटा मोटर्स के रोजगार (कौशल विकास) कार्यक्रम ने स्कूल छोड़ने वाले बेरोजगार युवाओं को तीन खंडों – ऑटो ट्रेडों, गैर-ऑटो ट्रेडों और कृषि और संबद्ध गतिविधियों के प्रशिक्षण पर ध्यान केंद्रित किया, जिससे स्थिर नौकरियों, सूक्ष्म उद्यम सेट अपों और वार्षिक आय में वृद्धि हुई।”

जबकि सच्चाई यह है कि इस बहाने टाटा मोटर्स को बहुत सस्ते में श्रम शक्ति मिल गयी है और यह कंपनी सीधे इन प्रशिक्षणार्थियों से उत्पादन का काम करवाती है। टाटा पावर स्किल डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट स्किल इंडिया कार्यक्रम की दूसरी लाभार्थी है। यही वजह है कि टाटा ने पीएम केयर में सीधे 1500 करोड़ कि राशि दान में दे दिया।

यह एक प्रामाणिक तथ्य है कि अब तक झारखंड में जो सरकारें बनीं वह टाटा के हित में काम करती रही हैं और इसका एक बड़ा उदाहरण है अर्जुन मुंडा की सरकार द्वारा 2005 में सरकारी अनुदान को लीज में बदल कर टाटा को जमशेदपुर की 15725 एकड़ जमीन पर टाटा को ज़मींदार बना देना। जमशेदपुर की 15725 एकड़ आदिवासी जमीन टाटा का सबसे बड़ा फर्जीवाड़ा है जिस फर्जीवाड़े में चंद्रशेखर सिंह, जगन्नाथ मिश्रा, बिंदेश्वरी दुबे, अर्जुन मुंडा, रघुवर दास, बाबूलाल मरांडी जैसे नेता स्वाभाविक तौर पर टाटा द्वारा उपकृत हुए हैं। इस जमीन को लीज में देकर टाटा करोड़ों रूपये कमाये हैं जबकि लगभग 12500 एकड़ जमीन जिसे टाटा ने अपनी फैक्ट्री के लिए इस्तेमाल नहीं किया था उसे कानूनन आदिवासियों को वापस कर देना था।

लगभग 2500 करोड़ की लागत से सुवर्णरेखा परियोजना के तहत चांडिल डैम और नहरें बनीं जिसका सीधा फायदा सिर्फ टाटा को हुआ, जिस परियोजना के कारण एक लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हुए जिनका आज तक पुनर्वास नहीं हुआ, उस टाटा पर 1000 करोड़ वर्षों से पानी का बकाया है। जब यह मसला सर्वोच्च न्यायालय में गया तो टाटा ने सुवर्णरेखा और और खरकई नदियों पर अपना राईपेरियन राइट होने का फर्जी दावा किया। राईपेरियन राइट तो नदियों के किनारों पर रहने वालों का होता है। एक कंपनी द्वारा खासतौर पर जिसने हजारों आदिवासियों को उनकी जमीनों से और उन नदियों के किनारों से विस्थापित कर अपना साम्राज्य बनाया हो उसके द्वारा राईपेरियन राइट का दावा सनसनीखेज दावा था जिस पर सर्वोच्च न्यायालय का चुप रह जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था।

1981 का एक महत्वपूर्ण वाकया है जब टाटा स्टील में हड़ताल हुई थी। उस समय बिहार सरकार में वाम दलों का प्रभाव था। वाम दलों ने मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा से कहा कि वे टाटा स्टील के तत्कालीन प्रबंध निदेशक रूसी मोदी से बात करें। कहा जाता है कि रूसी मोदी ने मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को टका सा जवाब देते हुआ कहा कि आप सरकार चलाना जानते हैं और मैं कंपनी, कृपया इसमें दखल न दें। इतना ही नहीं रूसी मोदी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उस समय के तत्कालीन गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह से बात कर टाटा स्टील प्लांट में सीआरपीएफ की तैनाती करा ली जिसने हड़ताली मज़दूरों को उठा कर गाड़ियों में भर कर जमशेदपुर से बाहर चाकुलिआ, बहरागोड़ा आदि क्षेत्रों में फेंक दिया। यह राज्य के अधिकार में केन्द्र का सीधा हस्तक्षेप था पर राज्य सरकार ने कोई विरोध व्यक्त नहीं किया।

(लेखक अखिलेश श्रीवास्तव कलकत्ता हाईकोर्ट में एडवोकेट हैं जबकि ठाकुर प्रसाद एक्टविस्ट।)

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