Tuesday, April 16, 2024

भूकम्प के झटके कहीं महाआपदा के संकेत तो नहीं?

नेपाल में गत 9 नवम्बर को आये भूकम्प की दहशत कुछ कम भी नहीं हुयी थी कि शनिवार 12 नवम्बर की रात एक और भूचाल ने नेपाल और उत्तराखण्ड सहित देश की राजधानी दिल्ली को भी दहला दिया। नेपाल के भूकंप में 6 लोग अपनी जानें गंवा चुके थे जिसने 2015 के विनाशकारी भूचाल की डरावनी यादें ताजा कर दीं थी। नेपाल से लेकर उत्तराखण्ड क्षेत्र में एक सप्ताह के अन्दर रिक्टर पैमाने पर 3.5 से लेकर 6.3 परिमाण तक के चार भूकंप आ चुके हैं, जो कि भविष्य के लिये भी गंभीर खतरे के संकेत दे रहे हैं। वैसे भी विज्ञानी निकट भविष्य में विनाशकारी भूकम्प की आशंका जता रहे हैं। इस खतरे से देश की राजधानी भी बाहर नहीं है।

भूकम्पीय संवेदनशीलता या घातकता की दृष्टि से सम्पूर्ण भारत 5 सीस्मिक जोन में बांटा गया है जिसमें हिमालय सर्वाधिक संवेदनशील जोन 5 में इसलिये है, क्योंकि इंडियन प्लेट के यूरेशियन प्लेट से टकराने से ही हिमालय की उत्पत्ति हुयी है और इसी के गर्भ में सर्वाधिक भूगर्भीय हलचलें होती रहती हैं। हिमालय की गोद में बसे उत्तराखण्ड के अधिकांश हिस्से जोन पांच में ही स्थित हैं और शेष जोन 4 में स्थित हैं। आबादी अधिक और घनी होने के कारण जोन 4 भी घातकता की दृष्टि से कम संवेदनशील नहीं है। इसलिये समूचा उत्तराखण्ड भूकम्प की दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील माना जा सकता है। उत्तरकाशी और चमोली के साथ ही भुज और लातूर के विनाशकारी भूकम्पों से भी हमें सबक मिलता है कि भूकम्प किसी को नहीं मारता। मारने वाले हमारे आश्रयदाता मकान ही होते हैं। भूकम्प, भूस्खलन और हिम स्खलन जैसी प्राकृतिक गतिविधियां होना प्रकृति का नियम है, इसलिये उन्हें आपदा नहीं कहा जाना चाहिये। दरअसल हम उन प्राकृतिक गतिविधियों को आपदा बनाते हैं। इसलिये भूकम्प या किसी भी प्राकृतिक घटना से बचने का सबसे कारगर उपाय सावधानी और प्रकृति के साथ रहना सीखना ही है।

उत्तराखण्ड ही नहीं सम्पूर्ण धरती पर हजारों की संख्या में भूकम्प आते रहते हैं। वाडिया भूगर्भ विज्ञान संस्थान के रिकार्ड के अनुसार सिर्फ उत्तराखंड में ही पिछले एक दशक में 700 से अधिक छोटे बड़े भूकंप रिकार्ड किए गए हैं। इनमें कई भूकंप शामिल हैं जिन्हें महसूस ही नहीं किया गया। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर समेत तमाम हिमालयीय राज्यों में भूकंप आते रहे हैं और भविष्य में भी आते रहेंगे। उत्तराखण्ड में वर्ष 1999 में चमोली में 6.8 रिक्टर 1991 में उत्तरकाशी में 6.6, 1980 में धारचूला 6.1, रिक्टर के झटके महसूस किए गए थे। लेकिन भूविज्ञानियों के अनुसार उत्तराखण्ड की धरती के गर्भ में इतनी अधिक ऊर्जा जमा हो चुकी है कि जो छोटे भूकम्पों से पूरी तरह बाहर नहीं निकली है। अगर वह एक्यूमुलेटेड ऊर्जा एक साथ बाहर निकल गयी तो कई एटम बमों के समान विनाशकारी साबित हो सकती है।

पूर्व में इस क्षेत्र में कई बड़े भूकम्प (रिक्टर पैमाने पर 8.0 से अधिक परिमाण के) आ चुके हैं और उत्तराखण्ड राज्य भी विगत में उत्तरकाशी व चमोली भूकम्पों की विभीषिका झेल चुका है। लेकिन विगत 200 से अधिक वर्षों से 1905 के कागड़ा भूकम्प व 1934 के बिहार-नेपाल भूकम्प के अभिकेन्द्रों के मध्य अवस्थित इस क्षेत्र में किसी बड़े भूकम्प के न आने के कारण वैज्ञानिकों द्वारा प्रायः इस क्षेत्र में विनाशकारी भूकम्प की आशंकायें व्यक्त की जाती रही हैं, जो कि हम सभी के लिये चिन्ता का विषय है। फिलहाल भूकम्प की सही पूर्व चेतावनी भी सम्भव नहीं हो सकी है, इसलिये हमारे पास पूर्व तैयारी या सावधानी के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं है।

जियोलाजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया के 1997 के जर्नल में विख्यात भूवैज्ञानिक डॉ. खड़क सिंह वाल्डिया के लेख के अनुसार सन् 1803 से लेकर मार्च 1991 तक उत्तराखण्ड में रिक्टर पैमाने पर 5 से लेकर 9 परिमाण तक के कुल 35 भूकम्प दर्ज किये गये। इनमें सर्वाधिक 10 भूकम्प धारचूला क्षेत्र में आये। वहां 1958 से लेकर 1966 तक 6 भूकम्प दर्ज किये गये जिनमें एक 7.5 परिमाण का भूकम्प भी था। सन 1831 से लेकर 1835 तक सीमांत लोहाघाट क्षेत्र में 4 भूकम्प दर्ज किये गये जिनमें एक 8 परिमाण का भी था। इसी क्षेत्र में अब भी अक्सर भूकम्प के झटके आते रहते हैं। 

भूकम्पों के मध्य का लम्बा अन्तराल कई बार भूकम्प सुरक्षा सम्बन्धित पक्षों के प्रति हमें उदासीन बना देता है। भूकम्प छोटा हो या बड़ा मानवीय क्षति भवन के ढांचों के गिरने के कारण ही होती है। इसलिये भूकम्प से बचने का मूल मंत्र भवनों की सुरक्षा में ही निहित है। भूकम्प कितना ही बड़ा क्यों न आ जाये यदि भवन न गिरें तो कोई बड़ी क्षति भी नहीं होगी। इस तथ्य को विश्वभर में आये भूकम्पों और उनसे हुये विनाश के आँकड़ों से सहज ही सत्यापित किया जा सकता है।

इंडियन प्लेट यूरेशियन प्लेट की तरफ हर साल चार से पांच सेंटीमीटर आगे खिसक रही है और उससे भूगर्भीय हलचल के चलते सेंट्रल सीस्मिक गैप में बिहार से लेकर हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा तक बड़े भूकंप की आशंकाएं बरकरार हैं। हालांकि भूकंप कब और कहां आएंगे? इसका सटीक अनुमान लगाना बेहद मुश्किल है।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)

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