क्या पीएमएलए बन गया है उत्पीड़न का औजार?

उच्चतम न्यायालय के जस्टिस ए एम खानविलकर, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस सी.टी. रविकुमार की पीठ ने पीएमएलए की धारा 5, 8(4), 15, 17 और 19 के प्रावधानों की संवैधानिकता को बरकरार रखा, जो ईडी की गिरफ्तारी, कुर्की, तलाशी और जब्ती की शक्तियों से संबंधित हैं और कहा कि मनी लॉन्ड्रिंग एक जघन्य अपराध है, जो न केवल राष्ट्र के सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने को प्रभावित करता है, बल्कि अन्य जघन्य अपराधों को बढ़ावा देता है, लेकिन इस पर चुप्पी साध ली कि इसकी सुनवाई में प्रक्रियात्मक विलम्ब दरअसल सजा बन गयी है, क्योंकि इसकी दोष सिद्धि दर का प्रतिशत बेहद कम है। इस प्रकार पीएमएलए की धारा 5, 8(4), 15, 17 और 19 के प्रावधान उत्पीड़न का वैधानिक आधार बन गये हैं जो संविधान के अनुच्छेद 21 और 22 का खुला उल्लंघन करते हैं।   

उच्चतम न्यायालय में सम्पूर्ण पीएमएलए कानून की संवैधानिकता को चुनौती नहीं दी गयी थी बल्कि पीएमएलए की धारा 5, 8(4), 15, 17 और 19 के प्रावधानों की संवैधानिकता को चुनौती दी गयी थी, जिसके परिणामस्वरूप इस कानून को काले कानून की संज्ञा से नवाजा जा रहा है। उच्चतम न्यायालय में किसी याचिकाकर्ता ने यह नहीं कहा कि सरकार को मनी लॉन्ड्रिंग की जांच नहीं करनी चाहिए या वित्तीय अपराधों की समस्या से निपटने के लिए मजबूत तंत्र का निर्माण नहीं करना चाहिए। बल्कि यह तर्क दिया कि इन प्रावधानों के दुरूपयोग को रोकने के लिए कोई सार्थक सुरक्षा उपाय नहीं हैं और जांच एजेंसियों को बेलगाम शक्तियां दे दी गयी हैं जो हमारे लोकतंत्र के लिए विनाशकारी परिणामों का वायस बन रही हैं।  

अब इसे क्या कहेंगे कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा लोकसभा में जारी किए गए आंकड़ों ने इस धारणा का समर्थन किया है कि ‘‘प्रक्रिया सजा है’, खासकर जब मामले कठोर मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट के तहत दर्ज किए जाते हैं केंद्र सरकार ने लोकसभा में इसकी जानकारी दी कि पिछले 17 साल में 5,400 से ज्यादा मनी लॉन्ड्रिंग के केस दर्ज किए गए लेकिन सजा महज 23 मामलों में ही हो पाई है। यानी इस मनी लॉन्ड्रिंग के मामलों में सजा का प्रतिशत 0.5 प्रतिशत से भी कम है।सवाल है कि क्या ईडी का दोष सिद्धि मकसद ही नहीं है? सत्ता का लक्ष्य केवल राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों, प्रतिरोध का स्वर उठाने वालों या मीडिया को अपनी एकतंत्रीय शक्तियों से धमकाना है। ईडी इस सीमित उद्देश्य को हासिल करने का एक साधन मात्र बनकर रह गया है।

गौरतलब है कि हाल ही में एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना ने विचाराधीन कैदियों का मुद्दा उठाते हुए कहा था कि आपराधिक न्याय प्रणाली में पूरी प्रक्रिया एक तरह की सजा है। भेदभावपूर्ण गिरफ्तारी से लेकर जमानत पाने तक और विचाराधीन बंदियों को लंबे समय तक जेल में बंद रखने की समस्या पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। सवाल है कि क्या मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट में मामले की विचारण प्रक्रिया एक तरह की सजा नहीं है क्योंकि कुर्की, जब्ती, गिरफ़्तारी के वर्षों बाद पता चलता है कि अदालत में ईडी आरोपों को सिद्ध नहीं कर पायी।  

दरअसल पीएमएलए का मकसद मनी लॉन्ड्रिंग को रोकना है। ब्लैक मनी को लीगल इनकम में बदलना ही मनी लॉन्ड्रिंग है। पीएमएलए देश में 2002 में लागू किया गया। मकसद मनी लॉन्ड्रिंग को रोकना और उससे जुटाई गई प्रॉपर्टी को जब्त करना है। पीएमएलए के तहत दर्ज किए जाने वाले सभी अपराधों की जांच प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) करता है। ईडी फाइनेंस मिनिस्ट्री के रेवेन्यू डिपार्टमेंट के तहत आने वाली स्पेशल एजेंसी है, जो वित्तीय जांच करती है। ईडी का गठन 1 मई 1956 को किया गया था। 1957 में इसका नाम बदलकर ‘प्रवर्तन निदेशालय’ कर दिया गया।

उच्चतम न्यायालय में दाखिल याचिकाकर्ताओं की ओर से कहा गया था कि जांच एजेंसियां प्रभावी रूप से पुलिस शक्तियों का प्रयोग करती हैं, इसलिए उन्हें जांच करते समय सीआरपीसी का पालन करने के लिए बाध्य होना चाहिए। सख्त जमानत की शर्त, गिरफ्तारी के मामले में गैर-रिपोर्ट, बिना ईसीआईआर के गिरफ्तारी, इस कानून के कई पहलुओं की आलोचना की गयी थी । यह भी तर्क दिया गया था कि चूंकि ईडी एक पुलिस एजेंसी नहीं है, इसलिए जांच के दौरान आरोपी द्वारा ईडी को दिए गए बयानों का इस्तेमाल आरोपी के खिलाफ न्यायिक कार्यवाही में किया जा सकता है, जो आरोपी के कानूनी अधिकारों के खिलाफ है।

 लेकिन इन सभी को नकारते हुए उच्चतम न्यायालय मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम अधिनियम, 2002 की संशोधित धारा 45 के तहत जमानत के लिए दो शर्तों को बरकरार रखा। अदालत ने कहा कि मनी लॉन्ड्रिंग एक जघन्य अपराध है, जो न केवल राष्ट्र के सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने को प्रभावित करता है, बल्कि अन्य जघन्य अपराधों को बढ़ावा देता है।अदालत ने कहा कि वित्तीय प्रणालियों और देशों की संप्रभुता और अखंडता को प्रभावित करने सहित अंतरराष्ट्रीय परिणामों वाले मनी-लॉन्ड्रिंग के खतरे का मुकाबला करने के लिए 2002 के अधिनियम के उद्देश्यों के साथ सीधा संबंध है। इस तरह की आपराधिक गतिविधियों से देश की आर्थिक स्थिरता, संप्रभुता और अखंडता के लिए खतरा पैदा होने की आशंका है और इस प्रकार इसे मनी लॉन्ड्रिंग के अपराध के रूप में मानने के लिए एक साथ समूहित करना, विधायी नीति का विषय है।कहने सुनने में यह बहुत ही अच्छा है।   

पीठ ने कहा कि दो शर्तें हालांकि आरोपी के जमानत देने के अधिकार को सीमित करती हैं, लेकिन पूरी रोक नहीं लगाती हैं। शीर्ष अदालत ने कहा कि प्रावधान, जैसा कि 2018 में संशोधन के बाद लागू है, उचित है और इसमें मनमानी या अनुचितता नहीं है। पीठ ने कहा कि हम मानते हैं कि 2002 अधिनियम की धारा 45 के रूप में प्रावधान, 2018 के लागू होने के बाद संशोधन के रूप में उचित हैं।

पीठ ने यह भी कहा कि अपराधों को मनी लॉन्ड्रिंग के अपराध के गठन के लिए प्रासंगिक मानने के लिए वर्गीकरण या समूहीकरण विधायी नीति का मामला है और अदालत इस पर दूसरा अनुमान नहीं लगा सकती। पीठ ने कहा कि दरअसल कुछ अपराध संबंधित कानून के तहत गैर-संज्ञेय अपराध हो सकते हैं या छोटे और समझौता वाले अपराध के रूप में माने जा सकते हैं, फिर भी संसद ने अपने विवेक से मनी लॉन्ड्रिंग को लेकर संबंधित प्रक्रिया या गतिविधि के संचयी प्रभाव को माना है। इस तरह की आपराधिक गतिविधियों से देश की आर्थिक स्थिरता, संप्रभुता और अखंडता के लिए खतरा पैदा होने की आशंका है और इस प्रकार इसे मनी लॉन्ड्रिंग के अपराध के रूप में मानने के लिए एक साथ समूहित करना, विधायी नीति का विषय है।

पीठ ने कहा कि पीएमएलए कानून में बदलाव सही है। ईडी के सामने दिया गया बयान सबूत। सुप्रीम कोर्ट ने पीएमएलए कानून के तहत अपराध से बनाई गई आय, उसकी तलाशी और जब्ती, आरोपी की गिरफ्तारी की शक्ति और संपत्तियों की कुर्की जैसे पीएमएलए के कड़े प्रावधानों को सही ठहराया। पीठ ने कहा कि मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट के तहत किसी आरोपी की गिरफ्तारी गलत नहीं है। यानी पीठ  ने ईडी के गिरफ्तारी के अधिकारी को बरकरार रखा है।

भारत में मनी लॉन्ड्रिंग कानून, 2002 में अधिनियमित किया गया था, लेकिन इसमें 3 बार संशोधन (2005, 2009 और 2012) किया जा चुका है। 2012 के आखिरी संशोधन को जनवरी 3, 2013 को राष्ट्रपति की अनुमति मिली थी और यह कानून 15 फरवरी से ही लागू हो गया था। पीएमएलए (संशोधन) अधिनियम, 2012 ने अपराधों की सूची में धन को छुपाना, अधिग्रहण, कब्ज़ा और धन का क्रिमिनल कामों में उपयोग इत्यादि को शामिल किया है।

पीठ ने सेक्शन 5, सेक्शन 18, सेक्शन 19, सेक्शन 24 और सेक्शन 44 में जोड़ी गई उपधारा को सही ठहराया है। पीठ ने कहा है कि जांच के दौरान ईडी, डीआरआई एसएफआईओ अधिकारियों (पुलिस अफसर नहीं) के सामने दर्ज बयान भी वैध सबूत हैं। जबकि याचिका में कहा गया था कि ईडी एक पुलिस एजेंसी नहीं है।ऐसे में जांच के दौरान आरोपी द्वारा ईडी को दिए गए बयानों का इस्तेमाल आरोपी के खिलाफ न्यायिक कार्यवाही में किया जा सकता है। इसके बावजूद अदालत में आरोप सिद्ध नहीं हो पा रहा है।

उच्चतम न्यायालय ने इस सवाल को खुला छोड़ दिया है कि क्या पीएमएलए में 2018 के संशोधन वित्त अधिनियम के माध्यम से लाए जा सकते हैं और इन मुद्दों को 7- जजों की पीठ द्वारा तय किया जाना है जो “मनी बिल” मुद्दे पर विचार कर रही है। दरअसल ये संशोधन वित्त विधेयक के रूप में संसद से पारित कराये गये थे।

जस्टिस खानविलकर की पीठ ने जस्टिस रोहिंटन नरीमन और संजय किशन कौल की पीठ के फैसले को पलट दिया है। नवंबर 2017 में निकेश ताराचंद शाह बनाम भारत संघ मामले में कोर्ट ने दोहरी जमानत की शर्तों को असंवैधानिक माना था। जस्टिस रोहिंटन नरीमन और संजय किशन कौल की पीठ ने पीएमएलए के तहत जमानत के ‘ट्विन टेस्ट’ को असंवैधानिक घोषित किया था क्योंकि यह स्पष्ट रूप से मनमाना था।

कोर्ट ने कहा था कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि धारा 45 एक कठोर प्रावधान है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का अतिक्रमण करने वाली धारा को लागू करने से पहले, हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सरकार इसका इस्तेमाल गंभीर अपराध से निपटने के लिए ही करेगी। धारा 45 के प्रावधानों को केवल अत्यंत जघन्य प्रकृति वाले अपराधों से निपटने के लिए बरकरार रखा गया है।” कोर्ट ने उदाहरण देते हुए कहा था, आतंकवाद विरोधी कानूनों जैसी असाधारण परिस्थितियों में कड़ी जमानत की शर्तें लगाई जा सकती हैं।

अब जस्टिस खानविलकर की पीठ ने खुद पीएमएलए की संवैधानिकता का बचाव करते हुए दोहरी जमानत की शर्तें लगाई है। जिस आधार पर प्रावधान को असंवैधानिक घोषित किया गया था, अब उसे पलटते हुए प्रावधान को पुनर्जीवित किया गया है।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

जेपी सिंह
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