Friday, March 29, 2024

पंजाब में चन्नी के होने का मतलब और कांग्रेस की ‘सीएम-फेस’ दुविधा

कांग्रेस लंबे समय से दुविधा में रहने और लेट-लतीफ फैसले करने वाली पार्टी के रूप में ख्यात हो चुकी है। पंजाब में 20 फरवरी को मतदान है। लेकिन वह अब तक अपना ‘सीएम-फेस’ घोषित नहीं कर सकी। अगर उसने किसी भी चुनाव में सीएम-फेस तय न किया होता तो यह सवाल नहीं उठाया जाता कि पंजाब में सीएम-फेस घोषित करने में उसके सामने क्या दुविधा है! अतीत में वह कई बार सीएम-फेस घोषित कर चुकी है। पंजाब में तो आज उसके पास अपना सीएम है। फिर वह ‘सीएम-फेस’ क्यों नहीं है? उसे सीएम-फेस घोषित करने में अब तक क्यों हिचकिचाहट? यह कांग्रेस की राजनीतिक-रणनीतिक दुविधा है या लेट-लतीफी की उसकी अपनी खास आदत?

अगर संवैधानिक प्रावधानों की रोशनी में देखें तो पीएम या सीएम फेस घोषित करने की परिपाटी सुसंगत नहीं है। लेकिन पिछले कई दशकों से अपने देश में सीएम क्या पीएम-फेस भी घोषित किये जाते रहे हैं। इस मामले में भारतीय जनता पार्टी सबसे आगे रहती है। देश की सबसे पुरानी पार्टी-कांग्रेस सीएम-फेस के बारे में आमतौर पर दो तरह की रणनीति अपनाती रही है। वह अपने निर्वतमान मुख्यमंत्रियों को सीएम-फेस के रूप में सामने लाती रही है और कई मौकों पर वह किसी को घोषित किये बिना यह कहकर चुनाव में उतरती रही है कि बहुमत मिलने पर पार्टी का नवनिर्वाचित विधायक दल नये मुख्यमंत्री का चयन करेगा। विधायक दल की बैठक में दिल्ली से भेजे पार्टी पर्यवेक्षक आमतौर पर केंद्रीय नेतृत्व यानी कांग्रेस आलकमान की मर्जी के नेता को विधायक दल की पसंद के रूप में नया मुख्यमंत्री घोषित करते रहे हैं।

अगर पर्यवेक्षक समझदार हुए तो वे विधायक दल में उक्त नेता के लिए आम सहमति या उसके पक्ष में बहुमत बनाकर नाम की घोषणा करते रहे हैं! मुख्यमंत्री-चयन के मामले में कांग्रेस की यह चिरपरिचित शैली रही है। ऐसे भी कई मौके रहे जब उसने अपना निवर्तमान मुख्यमंत्री न होने के बावजूद किसी नेता को अपने सीएम-फेस के रूप में पेश किया। कांग्रेस ने पंजाब का पिछला चुनाव कैप्टेन अमरिन्दर सिंह को अपना ‘सीएम-फेस’ घोषित करके लड़ा था, जबकि उन दिनों वह राज्य की सत्ताधारी पार्टी नहीं थी यानी अमरिन्दर सिंह उसके निवर्तमान मुख्यमंत्री नहीं थे। पर कांग्रेस आलाकमान ने पंजाब के हर शहर-कस्बे में अमरिन्दर के नाम का जमकर प्रचार किया। उन दिनों हर जगह कांग्रेसी पोस्टरों-बैनरों पर अमरिन्दर के चित्र के नीचे या ऊपर लिखा होता था-‘पंजाब का कैप्टेन।’

ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि सन् 2022 के चुनाव के दौरान जब कांग्रेस पंजाब में सत्ताधारी पार्टी है और उसका अपना मुख्यमंत्री है तो वह उसे सीएम-फेस बनाने में इतना वक्त क्यों ले रही है? वह सीएम-फेस के मसले को नवजोत सिंह सिद्धू बनाम चरनजीत सिंह चन्नी बनाने की सियासी अटकलों को विराम क्यों नहीं दे पा रही है? क्या इससे वह अपना नुकसान नहीं कर रही है? एक तो उसने नवजोत सिंह सिद्धू जैसे अस्थिर और अराजनीतिक मिजाज के व्यक्ति को प्रदेश कांग्रेस की बागडोर सौंपी फिर उसके जरिये अमरिन्दर को निपटाने का अभियान चलाया और अब चन्नी बनाम सिद्धू विवाद के लिए जाने-अनाजने जमीन बना रही है!

कांग्रेस को अब दिसम्बर के आखिर या जनवरी के शुरू में ही चन्नी का नाम घोषित कर देना चाहिए था। लेकिन जनवरी के तीसरे हफ्ते में जब आम आदमी पार्टी ने भगवंत सिंह मान को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया तो वह अपने सीएम-फेस पर विचार करने की बात कर रही है। देश की सबसे पुरानी पार्टी देश की सबसे नयी पार्टी का पिछलग्गू बन रही है तो उसके दुविधाग्रस्त राजनीतिक नेतृत्व और उसकी कार्यशैली पर सवाल उठना लाजिमी है। क्या वह सिद्धू की तरफ से बगावत की आशंका से भयभीत है या उसे सवर्ण हिन्दू मतदाताओं और जाट सिख समुदाय की तरफ से किसी तरह की नाराजगी की आशंका सता रही है?

सूबे की मौजूदा राजनीतिक स्थिति और दलीय समीकरणों की रोशनी में देखें तो ये दोनों आशंकाएं बेमतलब लगती हैं। सवर्ण हिन्दू मतदाताओं का एक हिस्सा निश्चय ही आम आदमी पार्टी के साथ जायेगा। खासकर मालवा क्षेत्र में वह पिछले चुनाव में भी ‘आप’ के साथ गया था। लेकिन सिख समुदाय में कांग्रेस की स्थिति आज भी अपेक्षाकृत बेहतर है। इसके पीछे प्रमुख कारण है-किसानों का भाजपा और केंद्र सरकार से गहरी नाराजगी। जहां तक चरनजीत सिंह चन्नी का सवाल है, बहुत कम समय में ही उन्होंने किसानों के बीच अपनी पैठ बनाई है। उनके भतीजे के घर ईडी की छापेमारी के विरोध में जो प्रतिक्रिया सामने आई, उनमें सिर्फ दलित समाज ही नहीं, जाट सिख समुदाय के किसानों की आवाजें भी शामिल दिखीं।

लंबे समय़ बाद कांग्रेस ने दलित समुदाय से आने वाले अपने किसी नेता को मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त या विधायक दल में निर्वाचित कराया। वह भी चुनाव से कुछ ही महीने पहले। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को तो साल भर भी नहीं मिला। 20 सितम्बर, 2021 को उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी। पद पर आसीन होते ही उनके सामने चुनावी-तैयारी की जिम्मेदारी थी, शासन-प्रशासन का मौका नहीं मिला। इसके बावजूद उन्होंने पंजाब की राजनीति में अपनी छाप छोड़ी है। उन्होंने पार्टी-पॉलिटिक्स या जात-धर्म की जगह ‘पंजाबियत के सामाजिक बोध’ और गुरुओं के समावेशी विचारों को महत्व दिया है। जिन दिनों भारतीय जनता पार्टी और उसकी अगुवाई वाली केंद्र सरकार प्रधानमंत्री मोदी के पंजाब दौरे में हुई सुरक्षा चूक को लेकर उनके ऊपर लगातार हमले कर रही थी, मुख्यमंत्री चन्नी चाहते तो बहुत आसानी से कह सकते थे कि हिन्दुत्वा पार्टी एक दलित-मुख्यमंत्री को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है।

यह बात बहुजन समाज के आम लोगों ने भी उस दौरान कही थी। लेकिन चन्नी ने अपना राजनीतिक चातुर्य दर्शाते हुए कहाः ‘केंद्र सरकार और भाजपा पार्टी के नेता पंजाब और पंजाबियत को निशाना बना रहे हैं।’ चन्नी के इस बयान की समूचे पंजाब में प्रशंसा हुई। पंजाब का जाट सिख ही नहीं, संपूर्ण किसान समुदाय और पंजाबी बिरादरी का व्यापक हिस्सा उनके बयान से खुश हुआ। उस समय किसानों के सड़क पर होने के चलते प्रधानमंत्री मोदी को अपना रास्ता बदलना पड़ा और वह अपनी प्रस्तावित रैली में जाने की बजाय वापस भटिंडा लौट गये। बताया गया कि उक्त रैली में बहुत कम भीड़ होने के चलते प्रधानमंत्री मोदी के सलाहकारों ने अचानक ही उनके सड़क मार्ग से जाने का फैसला किया था। इसी के चलते उनके काफिले को सड़क मार्ग पर अवरोध का सामना करना पड़ा था। इस मामले को लेकर केंद्र सरकार और भाजपा ने जिस तरह मुख्यमंत्री चन्नी और उनकी सरकार को निशाने पर लिया, वह हैरतंगेज था। लेकिन मुख्यमंत्री चन्नी ने उस केंद्र और भाजपा के उन राजनीतिक हमलों का साहस के साथ सामना किया और उस मुद्दे पर पंजाब की व्यापक जनता का विश्वास और समर्थन हासिल किया।

किसानों के सवाल पर भी चरनजीत सिंह चन्नी ने पूर्व मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह के मुकाबले ज्यादा मुखर और साफ रहे हैं। उन्होंने किसानों का किसी ‘अगर-मगर’ के बगैर खुलकर समर्थन किया। यही नहीं, किसानों की मांग के अनुरूप में पंजाब में उन्हें और रियायतें देने का भी आश्वासन दिया। दलित समुदाय के जरूरी मसलों को भी उन्होंने संबोधित किया है। पंजाब में हर क्षेत्र और समुदाय के लोगों को इस बात का एहसास है कि चन्नी को शासन-प्रशासन में बहुत कम वक्त मिला है इसलिए पूर्व की कांग्रेसी सरकार की विफलताओं के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराना वाजिब नहीं होगा।

इस अहसास का ही नतीजा है कि निजी तौर पर उनके विरूद्ध लोगों में असंतोष नहीं है। वैसे भी पंजाब में अनुसूचित जाति के लोगों की आबादी तकरीबन 32 फीसदी है। सूबे में इससे बड़ा कोई एकल सामुदायिक समूह नहीं है पर अमिरन्दर सिंह-नीत कांग्रेस सरकार के खिलाफ नाराजगी से इंकार नहीं किया जा सकता। फिलहाल, मेरे लिए यह आंकना कठिन है कि पूर्व की अमरिन्दर सरकार को लेकर पंजाब में जो एंटी-इनकम्बेंसी रही है, उसका चन्नी-नीत कांग्रेस सरकार पर कितना असर पड़ेगा! लेकिन पंजाब के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में फिलहाल कांग्रेस के पास चरनजीत सिंह चन्नी से ज्यादा चमकदार कोई नेता नहीं है।

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। आपने कई किताबें लिखी हैं जो बेहद चर्चित रही हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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