Thursday, April 25, 2024

राजस्थान का रण: स्पीकर पर भरोसा क्यों नहीं कर रहा है न्यायालय?

राजस्थान में कानूनी लड़ाई एक अलग दौर में पहुंच गयी है। राजस्थान के स्पीकर कांग्रेस के असंतुष्ट विधायकों की सदस्यता को लेकर कोई फैसला लें, उससे पहले राजस्थान हाईकोर्ट फैसला सुनाना चाहता है। वहीं, सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला तब तक नहीं सुनाना चाहता है जब तक कि राजस्थान हाईकोर्ट का फैसला न आ जाए। हालांकि उस फैसले पर अमल भी नहीं होगा। सवाल ये है कि क्या यही तरीका राजस्थान हाईकोर्ट नहीं अपना सकता था कि स्पीकर के फैसले के बाद वह उसकी समीक्षा करता या फैसला सुनाता और तब तक के लिए क्या स्पीकर के फैसले पर अमल को रोका नहीं जा सकता था?

राजस्थान के स्पीकर सीपी जोशी के वकील कपिल सिब्बल ने यही दलील रखी कि जब तक स्पीकर कोई फैसला न ले लें, तब तक उन्हें उनका काम करने देने से नहीं रोका जा सकता। यह दलील पिछले कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट के दिए गये फैसले के अनुरूप है। स्पीकर के कामकाज में दखल नहीं देने की संवैधानिक व्यवस्था को सम्मान सुप्रीम कोर्ट देता आया है। मगर, ताजा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उल्टे स्पीकर के वकील कपिल सिब्बल से पूछा कि अगर विधायकों की याचिका विचाराधीन रहते हुए स्पीकर ने उनकी सदस्यता खत्म कर दी तो क्या होगा? 

सुप्रीम कोर्ट ने जो प्रश्न उठाया है वह वाजिब है। मगर, इस प्रश्न का जवाब कपिल सिब्बल के पास नहीं है, खुद अदालत के पास है। स्पीकर जब एक फैसला ले लें तो उसकी समीक्षा हो सकती है। अदालत की ओर से उस पर रोक भी लग सकता है और उसे रद्द भी किया जा सकता है। हालांकि अदालत में यह मसला बातचीत और सवाल-जवाब के रूप में रह गया और इस मामले में विस्तार से सुनवाई के लिए सोमवार यानी 27 जुलाई की तारीख रखी गयी है। सचिन पायलट की ओर से भी इस मामले में कैविएट दाखिल कर उनका पक्ष सुने जाने की मांग के बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले को विस्तार से समझने की जरूरत बतायी। मगर, एक बात साफ है कि इस पूरे मामले में चुने हुए सदन, स्पीकर और विधायकों के बेशकीमती वक्त को न उच्च न्यायालय समझ रहा है और न ही सुप्रीम कोर्ट समझने को तैयार दिख रहा है। 

स्पीकर ने 14 जुलाई को सचिन पायलट समेत 19 विधायकों को नोटिस भेजा था। 17 जुलाई को विधायक राजस्थान हाईकोर्ट पहुंचे। 24 जुलाई को फैसला सुनाया जाना है और इस दौरान स्पीकर इन विधायकों के मामले में कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। राजस्थान की सियासत इस मोड़ पर है कि ज्यादातर सत्ताधारी विधायक होटलों में बंद हैं। चाहे वे गहलोत समर्थक हों या फिर सचिन पायलट समर्थक। कोविड-19 संकट के दौरान हर पल कीमती है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्देश के मुताबिक अब 24 जुलाई को राजस्थान हाईकोर्ट का फैसला चाहे जो हो, उस पर सुनवाई 27 जुलाई को ही होगी। मतलब ये कि वक्त लगातार जाया हो रहा है। 

सुप्रीम कोर्ट ने कुछेक वाजिब चिंता भी रखी है जिस पर भी गौर करने की जरूरत है- 

  • विधायकों को जनता ने चुनकर भेजा है और अगर इनमें कोई असंतोष है तो उन्हें सुना जाना चाहिए।
  • मान लीजिए किसी नेता का किसी पर भरोसा नहीं, तो क्या आवाज उठाने पर उसे अयोग्य करार दिया जाएगा?
  • पार्टी में रहते हुए वे अयोग्य नहीं हो सकते, फिर ये यह एक उपकरण बन जाएगा और कोई भी आवाज नहीं उठा सकेगा। लोकतंत्र में असंतोष की आवाज इस तरह बंद नहीं हो सकती।

प्रश्न यह है कि विधायकों के असंतोष को सुनने की प्रक्रिया क्या होगी? पार्टी की बैठक में असंतुष्ट विधायक पहुंचे नहीं। ह्विप को भी मानने से इनकार किया। यहां तक कि स्पीकर के नोटिस का जवाब देने के बजाए राजस्थान हाईकोर्ट पहुंच गये। स्पीकर का नोटिस भी एक अवसर होता है जब विधायक खुद को अयोग्य घोषित किए जाने की प्रक्रिया को चुनौती देते हुए अपनी बात रखते हैं। 

यह चिंता भी वाजिब है कि असंतोष व्यक्त करने का नतीजा विधायक को अयोग्य करार देना नहीं होना चाहिए। स्पीकर से यही अपेक्षा होती है। वह देखते हैं कि यह सिर्फ असंतोष है या अनुशासनहीनता या फिर पार्टी से खुद को निष्कासित करने की हद तक जाने का कदम। अगर स्पीकर कोई भेदभाव करते हैं तो उनके फैसले की समीक्षा करने का हक अदालत को है।  

सुप्रीम कोर्ट ने यह चिंता भी बहुत सही रखी है कि पार्टी में रहते हुए किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य नहीं होना चाहिए। मगर, यह बात भी सही है कि पार्टी में रहते हुए ही ह्विप का उल्लंघन होता है। ऐसी भी परिस्थिति होती है कि दलबदल कानून के प्रकोप से बचने के लिए जनप्रतिनिधि पार्टी भी नहीं छोड़ते हैं और पार्टी को नुकसान पहुंचाने वाले काम भी लगातार करते हैं। न सुप्रीम कोर्ट की चिंता नयी है और न ही ऐसा है कि इस चिंता पर कभी कोई चर्चा न हुई हो।

सबसे बड़ा सवाल जो अनुत्तरित है वह यह कि आखिर स्पीकर को उनका काम करने से कैसे रोका जा सकता है? महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि स्पीकर विधानसभा सदस्य को नोटिस दे और उस नोटिस का जवाब न दिया जाए, तो स्पीकर की गरिमा जो इस वजह से टूटती है उसकी रक्षा कैसे होगी? महत्वपूर्ण यह भी है कि स्पीकर को फैसला लेने से कैसे रोका जा सकता है? यह कैसे मान लिया जा रहा है कि स्पीकर ने जो फैसला नहीं लिया है वह असंतुष्ट विधायकों के खिलाफ ही होगा? आखिर विधायकों के अधिकार की रक्षा के लिए विधायिका के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर अविश्वास क्यों?

(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल आप इन्हें विभिन्न चैनलों के पैनल में देख सकते हैं।)

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