Thursday, April 25, 2024

जातिगत अस्मिताओं से नहीं, कैडर आधारित पॉलिटिक्स से हारेगी बीजेपी

लोकसभा के आम चुनाव में भले ही अभी एक साल से ज्यादा का वक्त शेष हो, लेकिन उत्तर प्रदेश में राजनीति की बिसात पूरी तरह से बिछ चुकी है। कम से कम भाजपा को देखकर तो यही लगता है कि वह पूरी तरह से चुनावी मोड में चली गई है और जातियों में बंटे इस समाज के बीच काम करते हुए अपनी सांगठनिक स्थिति को बूथ स्तर तक पुख्ता तौर पर मजबूत कर रही है।

उत्तर प्रदेश में संघ परिवार जहाँ जातियों के बीच हिन्दुत्ववादी समरसता के प्रचार के सहारे भाजपा के वोट बैंक को मजबूत करने की कोशिश में लगा है, वहीं दूसरी तरफ भाजपा उन बूथों पर अपना काम अभी से ही शुरू कर चुकी है जिसके तहत कमजोर बूथों की पहचान करके उनके कमजोर होने के कारणों का पता लगाना है, और अगले एक साल के लिए उन्हें मजबूत करने पर काम करना है।

इसके लिए पूरे प्रदेश में भाजपा संगठन के साथ एक्सपर्ट लोगों की टीम बूथ स्तर पर काम कर रही है। इसके तहत बूथ के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों में गणमान्य और प्रभावशाली व्यक्तियों से मुलाकात करके उनका फीडबैक लेना और उस आधार पर बूथ को जीतने का रोड मैप तैयार करना है। मैं उन लोगों से मिला हूँ जो बूथ स्तर तक इस काम की मैपिंग और सघन मानिटरिंग कर रहे हैं।

बात यहीं तक नहीं रूकती है। गृह मंत्री अमित शाह साल 2024 के जनवरी में नए राम मंदिर के निर्माण की घोषणा कर चुके हैं। इसका साफ़ मतलब है कि भाजपा उग्र हिंदुत्व के अपने कोर एजेंडे पर पूरी तरह से काम करके अपने कोर हिन्दू वोटर को साथ जोड़े रखने का पूरा रोडमैप तैयार करके उस पर अमल कर रही है। इस कोर वोटर में प्रदेश के अतिपिछडे और दलित हैं, जिन पर विशेष फोकस किया जा रहा है। प्रदेश का सवर्ण फ़िलहाल भाजपा के आलावा किसी अन्य को वोट नहीं देने जा रहा है।

लेकिन, इन सब तथ्यों के इतर बुनियादी सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश में विपक्ष के पास भाजपा की राजनीति और चुनाव लड़ने की उसकी तैयारियों से निपटने के लिए क्या प्लान है? अगर है तो क्या वह जमीन पर कहीं दिख रहा है? उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव 2022 में समाजवादी पार्टी ने भले ही 35 फीसद वोट प्राप्त करके बेहतर प्रदर्शन किया हो, लेकिन ऐसा लगता है कि अखिलेश यादव के पास आगामी लोकसभा चुनाव में इस प्रदर्शन को दोहराने की कोई खास लालसा नहीं है।

प्रदेश की आम जनता से जुड़े बुनियादी सवालों( रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य, किसानों की बुनियादी समस्याओं और दलितों पिछड़ों के खिलाफ प्रशासनिक हिंसा)  पर मोदी और योगी सरकार को घेरने के अनिच्छा यह बताती है कि एक विपक्ष के बतौर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी लोकसभा के आगामी चुनाव के पहिले ही बीजेपी के सामने आत्मसमर्पण कर चुकी है। अब अखिलेश यादव की सारी कोशिश यही है कि उसका जातीय आधार किसी भी तरह से उसके साथ जुड़ा रहे।

चूँकि अखिलेश के जातीय आधार को नरेंद्र मोदी और उनकी हिंदुत्ववादी नीतियों से कोई बुनियादी समस्या नहीं है, लिहाजा अखिलेश यादव पर भी इस दबाव का असर साफ देखा जा रहा है। अखिलेश यादव पर नरेंद्र मोदी के पिछड़ा समुदाय से होने की पहचान भी भारी पड़ रही है।

उनकी इस पहचान ने प्रदेश की ज्यादातर पिछड़ी अस्मिताओं को भाजपा के साथ खड़ा कर दिया है और वह अब अपनी उस जाति के नेता भर रह गये हैं जो यह मानता है कि दिल्ली में मोदी जी अच्छे लगते हैं और लखनऊ में ‘भईया’। भाजपा के पाले में शिफ्ट हो चुकी ये पिछड़ी अस्मितायें भाजपा को क्यों छोड़ें और अखिलेश को अपना नेता क्यों मानें इसका जवाब भी अखिलेश यादव के पास नहीं है।

इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं है अखिलेश यादव भाजपा को कोई टक्कर दे पाने की स्थिति में नहीं हैं। भाजपा के खिलाफ उनकी चुप्पी का कुल सार यही है कि वह कम से कम अपने जातिगत समुदाय में अपनी प्रासंगिकता को बनाये रखना चाहते हैं ताकि विकल्पहीन मुसलमान सैफई के इस परिवार को अपना वोट देता रहे।

हालांकि, हिंदुत्व के इस दबाव पर अखिलेश यादव की चुप्पी इनके सियासी भविष्य को सुरक्षित रखने की गारंटी नहीं है। भाजपा ने इनके जातिगत समुदाय को अपने साथ लेने का काम शुरू कर दिया है। हिंदुत्व की आंधी को सामाजिक न्याय का अखिलेश मार्का वर्जन रोक पाने की स्थिति में नहीं है। मंडल पॉलिटिक्स कभी भी कमंडल का मुकाबला करने की क्षमता नहीं रखती क्योंकि वह पिछड़ी अस्मिताओं के उभार और उसके विचारहीन अवसरवाद को बीजेपी और संघ में शिफ्ट होने से नहीं रोक सकती है।

जहाँ तक बसपा की बात है, पिछले पांच चुनाव में लगातार हो रही उसकी हार ने मायावती को गहरी निराशा में डाल दिया है। बसपा का कैडर अब बचा नहीं है और सब कुछ मायावती के चौतरफा ही घूमता है। मायावती के पास पार्टी को फिर से स्थापित करने की इच्छाशक्ति भी नहीं रह गई है।

वह सिर्फ इस दिशा में काम कर रही हैं कि किसी भी तरह मुस्लिम वोट अखिलेश यादव और कांग्रेस के पास शिफ्ट नहीं होने पाए। यह एक तरह की ‘सत्ता’ की डील है जो उनके खिलाफ जारी जांच-पड़तालों का एक छोटा सा समझौता भर है। इससे ज्यादा बीजेपी के खिलाफ बसपा फ़िलहाल नहीं सोचती है। 

यही नहीं, कांग्रेस की स्थिति और उत्तर प्रदेश में और बदतर है। उसके पास ऐसा कुछ नहीं है जिसकी चर्चा यहां करना आवश्यक हो। पार्टी आज जिन लोगों के हाथ में हैं उनके पास भाजपा से लड़ने की कोई इच्छा शक्ति नहीं है। जो लोग आज इस पार्टी को चला रहे हैं वो अपनी पूरी समझ में गैर सियासी और इवेंट आधारित आयोजन को राजनीति समझने वाले वाले लोग हैं। उनकी सारी कोशिश है कि पार्टी कम से कम इतना माहौल बना ले कि उसके पास 2024 का चुनाव लड़ने के लिए ढंग के प्रत्याशी भर आ जाएं।

भारत जोड़ो यात्रा का उत्तर प्रदेश वर्जन कोरी लफ्फाजी से ज्यादा कुछ नहीं था। पार्टी संगठन फ़िलहाल इस दुविधा में है कि उसके लिए कैडर पॉलिटिक्स में हाथ आजमाना ठीक रहेगा या फिर जातिगत अस्मिताओं के सहारे आगे बढ़ा जाये? भारत जोड़ो यात्रा का उत्तर प्रदेश में कोई लाभ नहीं मिलेगा।

यह पूरी यात्रा राहुल गाँधी की व्यक्तिगत छवि निर्माण के इर्दगिर्द सिमटकर रह गई। इस यात्रा के बाद भाजपा आईटी सेल द्वारा राहुल गांधी की जो अगंभीर और अराजनैतिक छवि निर्मित की गई थी वह टूटी है लेकिन, जातियों में बंटे समाज में यह यात्रा कांग्रेस के लिए क्या जगह बनाएगी, क्या सियासी लाभ देगी, इस सवाल का जवाब 2024 का लोकसभा चुनाव देगा।

बाकी, उत्तर प्रदेश के अन्य छोटे दल अभी सिर्फ भाजपा के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रहे हैं, लेकिन बीजेपी उन्हें कितना भाव देगी यह अभी तय नहीं है। सुभासपा चीफ ओम प्रकाश राजभर और निषाद पार्टी के मुखिया, दोनों ही यह ठीक से समझ गए हैं कि भाजपा के बाहर उनके दल का कोई भविष्य नहीं है और भाजपा के साथ रहकर ही फ़िलहाल उत्तर प्रदेश में प्रासंगिक रहा जा सकता है।

ऐसी कोई सम्भावना नहीं है कि ये दोनों दल बीजेपी से कोई बगावत करेंगे। बगावत की स्थिति में हिंदुत्व की चाशनी में लिपटा इनका जातिगत आधार ही इन्हें नकार देगा। क्योंकि समस्त किस्म की जातिगत और क्षेत्रीय अस्मिताओं को समाहित करने की क्षमता भाजपा और संघ परिवार में बखूबी है। जहाँ तक तीसरे मोर्चे की बात है, ऐसा कोई मोर्चा फ़िलहाल अस्तित्व में आने की सम्भावना कम है। अगर ऐसा कोई मोर्चा बनता भी है तो उत्तर प्रदेश में इसका कोई मजबूत असर होने से रहा।

दरअसल बीजेपी मूलतः कैडर युक्त वैचारिक राजनीति करती है। हिंदुत्व की राजनीति का गुजरात मॉडल यह है कि वह दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के बीच उनकी हिन्दू अस्मिता स्थापित करके उन्हें हिन्दू राष्ट्र के लिए इस्तेमाल करता है। संघ परिवार के इस अभियान के खिलाफ उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा या किसी अन्य अस्मिता आधारित दल द्वारा कोई चुनौती ही नहीं दी जा रही है।

बीजेपी के खिलाफ पूरा मैदान साफ है। प्रदेश में जातिगत अस्मिताओं के पूर्व स्थापित ज्यादातर चेहरे भाजपा के साथ हैं। फिर उसे इस राजनीति से कोई चुनौती मिलने की ठोस सम्भावना नहीं दिख रही है।

यही नहीं, अगर कोई नई अस्मिता उभरती है तो भाजपा उसे भी अपने में समाहित कर लेगी। इसलिए अस्मिताओं के सहारे सियासत करने वाला कोई भी दल फ़िलहाल उत्तर प्रदेश में बीजेपी को चुनौती दे पाने की स्थिति में नहीं है। हिंदुत्व की राजनीति के सहारे बीजेपी इस समाज में लगातार कैडर बना रही है। संकट यह है कि जनता के बुनियादी सवालों पर, जिस पर भाजपा असहज हो सकती है कोई दल उसे घेरने की इच्छाशक्ति नहीं रखता। यही नहीं, देश में अब मॉस पॉलिटिक्स के दिन जा चुके हैं।

मॉस पॉलिटिक्स की राजनीति कभी भी कैडर पॉलिटिक्स को पराजित नहीं कर सकती है। और इसके सहारे कम से कम उत्तर प्रदेश में बीजेपी को पराजित करने का सपना फ़िलहाल तो दिवास्वप्न से ज्यादा कुछ नहीं है। बीजेपी को सिर्फ आम जनता के बुनियादी सवालों पर बात करके ही पराजित किया जा सकता है, अस्मिताओं के सहारे एकदम नहीं हराया जा सकता है। क्या विपक्ष कोई पहल करेगा?

(हरे राम मिश्र स्वतंत्र पत्रकार हैं)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

AICCTU ने ऐप कर्मियों की मांगों को लेकर चलाया हस्ताक्षर अभियान, श्रमायुक्त को दिया ज्ञापन।

दिल्ली के लाखों ऐप कर्मचारी विषम परिस्थितियों और मनमानी छटनी से जूझ रहे हैं। उन्होंने कम प्रति ऑर्डर रेट, अपर्याप्त इंसेंटिव्स, और लंबे कार्य समय के खिलाफ दिल्ली भर में हस्ताक्षर अभियान चलाया। ऐप कर्मचारी एकता यूनियन ने बेहतर शर्तों और सुरक्षा की मांग करते हुए श्रमायुक्त कार्यालय में ज्ञापन दिया।

ग्राउंड रिपोर्ट: पुंछ में केसर उत्पादन की संभावनाएं बढ़ीं

जम्मू के पुंछ जिले में किसान एजाज़ अहमद पांच वर्षों से केसर की सफल खेती कर रहे हैं, जिसे जम्मू विश्वविद्यालय ने समर्थन दिया है। सरकार से फसल सुरक्षा की मांग करते हुए, अहमद पुंछ को प्रमुख केसर उत्पादन केंद्र बनाना चाहते हैं, जबकि महिला किसानों ने भी केसर उत्पादन में रुचि दिखाई है।

ग्राउंड रिपोर्ट: बढ़ने लगी है सरकारी योजनाओं तक वंचित समुदाय की पहुंच

राजस्थान के लोयरा गांव में शिक्षा के प्रसार से सामाजिक, शैक्षिक जागरूकता बढ़ी है। अधिक नागरिक अब सरकारी योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं और अनुसूचित जनजाति के बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। यह प्रगति ग्रामीण आर्थिक कमजोरी के बावजूद हुई है, कुछ परिवार अभी भी सहायता से वंचित हैं।

Related Articles

AICCTU ने ऐप कर्मियों की मांगों को लेकर चलाया हस्ताक्षर अभियान, श्रमायुक्त को दिया ज्ञापन।

दिल्ली के लाखों ऐप कर्मचारी विषम परिस्थितियों और मनमानी छटनी से जूझ रहे हैं। उन्होंने कम प्रति ऑर्डर रेट, अपर्याप्त इंसेंटिव्स, और लंबे कार्य समय के खिलाफ दिल्ली भर में हस्ताक्षर अभियान चलाया। ऐप कर्मचारी एकता यूनियन ने बेहतर शर्तों और सुरक्षा की मांग करते हुए श्रमायुक्त कार्यालय में ज्ञापन दिया।

ग्राउंड रिपोर्ट: पुंछ में केसर उत्पादन की संभावनाएं बढ़ीं

जम्मू के पुंछ जिले में किसान एजाज़ अहमद पांच वर्षों से केसर की सफल खेती कर रहे हैं, जिसे जम्मू विश्वविद्यालय ने समर्थन दिया है। सरकार से फसल सुरक्षा की मांग करते हुए, अहमद पुंछ को प्रमुख केसर उत्पादन केंद्र बनाना चाहते हैं, जबकि महिला किसानों ने भी केसर उत्पादन में रुचि दिखाई है।

ग्राउंड रिपोर्ट: बढ़ने लगी है सरकारी योजनाओं तक वंचित समुदाय की पहुंच

राजस्थान के लोयरा गांव में शिक्षा के प्रसार से सामाजिक, शैक्षिक जागरूकता बढ़ी है। अधिक नागरिक अब सरकारी योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं और अनुसूचित जनजाति के बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। यह प्रगति ग्रामीण आर्थिक कमजोरी के बावजूद हुई है, कुछ परिवार अभी भी सहायता से वंचित हैं।