Friday, March 29, 2024
प्रदीप सिंह
प्रदीप सिंहhttps://www.janchowk.com
दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय और जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।

अमेरिकी नीतियों से मजबूत हो रहा है तालिबान

तालिबान एक बार फिर विश्व भर में चर्चा के केंद्र में हैं। इस चर्चा का कारण तालिबानी स्वयं नहीं बल्कि अमेरिका है। अमोरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने तालिबान से होने वाली वार्ता को रद्द कर दिया है। यह मीटिंग मैरीलैंड के कैंप डेविड में तालिबान लीडर्स और अमेरिका के बीच होनी थी। इस वार्ता में यह तय होना था कि अमेरिका अफगानिस्तान में मौजूद 14,000 सैनिकों में से 54,00 सैनिकों को वापस बुलाने की घोषणा करेगा। विश्व भर की निगहें इस पर लगी थीं। इसके बदले तालिबान यह सुनिश्चित करेगा कि इस्लामिक स्टेट और अन्य आतंकी संगठनों को अमेरिका के खिलाफ हमले के लिए अफगानिस्तान की धरती का उपयोग नहीं करने देगा। लेकिन एक घटना ने इस वार्ता पर पानी फेर दिया। राष्ट्रपति ट्रम्प ने इसका कारण काबुल में हुआ विस्फोट बताया। जिसमें एक अमेरिकी सैनिक और अन्य 11 लोग मारे गए।
तालिबान ने वार्ता रद्द करने की वजह ट्रंप में अनुभव और धैर्य की कमी बताते हुए नाराजगी जताई है। अमेरिका की सबसे लंबी लड़ाई को समाप्त करने पर केंद्रित सालभर से चल रही वार्ता से राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की पीछे हटने की घोषणा के बाद तालिबान ने वॉशिंगटन को इसका नुकसान उठाने की धमकी दी है। साथ ही भावी वार्ता के लिए द्वार खुला छोड़ने की भी बात कही है। तालिबान की ओर से ट्विटर पर जारी बयान में उसके प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुजाहिद ने कहा, ‘हम अब भी विश्वास करते हैं कि अमेरिकी पक्ष को यह समझ में आएगा। पिछले 18 सालों से हमारी लड़ाई ने अमेरिकियों के लिए साबित कर दिया है कि जब तक हम उनके कब्जे का पूर्ण समापन नहीं देख लेते तब तक हम संतुष्ट नहीं बैठेंगे।’
बयान में कहा गया है कि तालिबान ने अमेरिका के साथ समझौते को करीब अंतिम रूप दे दिया था और जिससे अमेरिका तालिबान से सुरक्षा वादों के एवज में अपने सैनिकों को वापस करना शुरू कर देता। दोनों इस करार के घोषणा होने की तैयारी कर रहे थे लेकिन उसी बीच ट्रंप ने शांति वार्ता रोक दी है। काबुल में अमेरिकी सैनिक के मारे जाने से ट्रम्प बेहद नाराज बताए जा रहे हैं। लेकिन बात इतनी भर नहीं है।
अमेरिका और तालिबान के बीच यह कोई पहली बैठक नहीं होने जा रही थी। बताया जा रहा है अमेरिका और तालिबान नेताओं के बीच पिछले एक साल से वार्ता हो रही थी। दोनों में कई चक्र बातचीत भी हो चुकी थी। और यह अंतिम वार्ता थी। सबसे बड़ी बात यह है कि इस वार्ता में अफगानिस्तान की सरकार कहीं नहीं थी। वार्ता के मुताबिक अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी सेना हटाने का समय बताने वाला था। कहा जा रहा है कि 28 सितंबर को अफगानिस्तान में होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव के पहले वह अपने सैनिकों को वापस बुलाने की योजना बना रहा था। तालिबान नेताओं का दबाव था कि राष्ट्रपति चुनाव को रद्द कर दिया जाए और अमेरिका अपने सैनिकों को वापस बुला ले।
अमेरिका और तालिबान दोनों ने इस वार्ता में अफगानिस्तान की सरकार को कोई महत्व नहीं दिया। तालिबान अमेरिका से समझौते के तहत अफगानिस्तान में राष्ट्रपति चुनाव को हर हाल में टलवाना चाहता था। तालिबान का एक धड़ा समझौते में अमेरिका से कोई वादा करने के पक्ष में नहीं था। और अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार किसी भी सूरत में राष्ट्रपति चुनाव को टालना के पक्ष में नहीं था। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति कार्यालय का कहना है कि इस महीने हर हाल में राष्ट्रपति चुनाव कराए जाने हैं। वह अफगानिस्तान में दीर्घकालीन शांति के लिए अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ काम करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। मामला यहीं आकर फंसता दिखाई देता है। तालिबान की शर्त है कि चुनाव रद होने पर ही वह अमेरिका के साथ समझौता करेगा। लेकिन अमेरिका अफगानिस्तान में राजनीतिक दखल छोड़ने को तैयार नहीं था। वह सैनिकों को वापस बुलाने के साथ ही राष्ट्रपति चुनाव को भी सुनिश्चित करना चाह रहा था।
अफगानिस्तान में फरवरी 2007 से ही नाटो (NATO) की सेनाएं बनी हैं। इसके बावजूद अफगानिस्तान में भले ही कुछ दिनों के लिए तालिबान कमजोर पड़ गया था लेकिन एक बार फिर वह मजबूती से उभरा है। अभी तक दावा किया जाता रहा कि अफगानिस्तान में सब कुछ सामान्य हो गया है। देश में लोकतांत्रिक सरकार का शासन है। लेकिन सच्चाई इसके उलट है। अफगानिस्तान में हर तरफ तालिबान का दबदबा बढ़ता जा रहा है। उसने एक बार फिर से अधिकांश भागों पर अधिपत्य जमा लिया है। यही कारण है कि अमेरिका अफगानिस्तान में तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार के प्रतिनिधियों की बजाए तालिबान के नुमाइंदों से बातचीत कर रहा था।
अमेरिका का कहना है कि तालिबान को पाकिस्तानी जमीन पर फलने-फूलने का अवसर दिया जा रहा है। लेकिन सच्चाई यह है कि तालिबान के फलने-फूलने और फिर से सर उठाने के पीछे अमेरिकी नीतियां जिम्मेदार है। सैनिक दमन के बाद भी तालिबान के कमजोर न होने का कारण अमेरिका ही है। अमेरिका ने जिस तरह से अफगानिस्तान में कमजोर और कठपुतली नेतृत्व को आगे बढ़ाया उससे तालिबान कमजोर पड़ने की बजाए मजबूत होते गए। इसे अफगानिस्तान के वर्तमान राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी अहमदज़ई के उदाहरण से समझा जा सकता है।
अशरफ़ ग़नी 29 सितंबर 2014 को शपथ लेकर हामिद करज़ई की जगह लेते हैं। राष्ट्रपति गनी कोई राजनीतिज्ञ नहीं है, वे एक अकादमीशियन हैं। विश्व बैंक में लंबे समय तक नौकरी करने वाले अशरफ गनी दिसंबर 2001 में 24 साल बाद स्वदेश लौटते हैं। दो महीने बाद 1 फरवरी 2002 को वह हामिद करजई के मुख्य सलाहकार बना दिए जाते हैं। इसके बाद वह वित्त मंत्री बनते हैं। वित्त मंत्री के अपने कार्यकाल में वह अमेरिकी सरकार और संस्थाओं के दुलारे बन जाते हैं।
अमेरिका के वार्ता रद्द करने की घोषणा के बाद अफगानी राष्ट्रपति अशरफ गनी ने जिस तरह से बयान दिया वह उनके अमेरिका के इशारे पर काम करने को दर्शाता है। राष्ट्रपति गनी ने आतंकी संगठन तालिबान से हिंसा बंद करने और अफगानिस्तान की सरकार से सीधी वार्ता की अपील करते हुए कहा कि तालिबान के हिंसा बंद करने पर ही अफगानिस्तान में शांति आ सकती है। तालिबान ने हाल में आतंकी वारदातें तेज कर दी हैं।
तालिबान से वार्ता रद करने के ट्रंप के फैसले पर गनी के एक करीबी ने कहा, अमेरिकी सरकार के निर्णय से साबित होता है कि वह शांति समझौते पर अफगान सरकार की चिंता को स्वीकार कर रहे हैं। पहचान उजागर नहीं किए जाने की शर्त पर उन्होंने कहा, ‘अफगान सरकार ट्रंप के निर्णय का समर्थन करती है। तालिबान और अमेरिका के समझौते का मसौदा अफगानिस्तान में शांति की गारंटी नहीं देता।’
तालिबान से अमेरिका की बातचीत रद्द होने से न सिर्फ अफगानिस्तान पर असर पड़ेगा बल्कि इसके परिणाम दूरगामी होंगे। विदेश नीति के जानकारों का कहना है कि इस वार्ता के रद्द होने से पाकिस्तान को करारा झटका लगा है और भारत को भी राहत मिली है। पाकिस्तान, तालिबान और अमेरिका के बीच डील के कारण इस क्षेत्र में अशांति आ सकती है। भारत का मानना है कि इस बातचीत के टूटने के बाद इस क्षेत्र में शांति और स्थायित्व आएगा। इस बातचीत के खत्म होने के बाद पाकिस्तान के जिहादी मंसूबे पर भी पानी फिर गया है। जम्मू-कश्मीर में लंबा समय से पाकिस्तान तालिबानी जेहादियों से मिलकर हिंसा और आतंक का खेल खेलते रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि तालिबान के कमजोर पड़ने से कश्मीर में आतंकी घटनाएं कम हो जाती हैं। ऐसे में जब अफगानिस्तान में तालिबान ही सत्ता में आ जाती तो पाककिस्तान की आईएसआई घाटी में खूनी खेल खेलने से बाज नहीं आती।
अफगान सरकार का भी मानना था कि यह समझौता जल्दबाजी में हो रहा है। राष्ट्रपति अशरफ गनी ने कहा था कि बेगुनाह लोगों की हत्या करने वाले समूह से शांति समझौता करना निरर्थक है। अमेरिका और तालिबान के बीच ‘सैद्धांतिक’ रूप से इस बात को लेकर सहमति बन गई थी कि अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी फौज वापस बुला लेगा। इसके बावजूद काबुल में घातक हमलों की संख्या बढ़ गई है। इससे अमेरिका के राष्ट्रपति चिढ़ गए हैं और उन्होंने तालिबान के साथ फिलहाल अपनी बातचीत बंद कर दी है।

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles