Thursday, April 25, 2024

झारखंड में बिरसा मुंडा स्मारक बना सरकारों की उपेक्षा का शिकार

जलियांवाला बाग (13 अप्रैल 1919 ) से पहले का जलियांवाला बाग, यानी अंग्रेजी हुकूमत की क्रूरता का पहला गवाह बना था, झारखंड के खूंटी जिला अंतर्गत मुरहू प्रखंड का डोंबारी बुरू, जहां आज से ठीक 118 साल पहले 9 जनवरी 1900 को ब्रिटिश सेना-पुलिस और बिरसा मुंडा के आंदोलनकारियों बीच जंग छिड़ी थी।

सईल रकब से लेकर डोंबारी बुरू तक घाटियां सुलग उठी थीं। 25 दिसंबर 1899 से लेकर नौ जनवरी 1900 तक खूंटी के कई इलाकों सहित रांची से लेकर खूंटी-चाइबासा तक अशांत था। मुंडा आंदोलनकारियों के साथ 9 जनवरी की लड़ाई अंतिम लड़ाई साबित हुई। इसके बाद बिरसा मुंडा के साथियों की धर-पकड़ तेज हो गई। सैकड़ों निहत्थे आदिवासियों की बड़़ी क्रूरता से गोलियों की बौछार करके हत्या कर दी गई। 3 फरवरी 1900 को बिरसा मुंडा गिरफ्तार कर लिए गए और नौ जून को उन्होंने अंतिम सांस ली। 

आदिवासियों की इस शहादत को हर साल 9 जनवरी को अंतिम उलगुलान के रूप में याद किया जाता है। उन्हीं की याद में 110 फीट ऊंचा विशाल स्तंभ का निर्माण किया गया। जो अंग्रेजी हुकूमत की क्रूरता व सैकड़ों आदिवासियों की शहादत की यादगार बना हुआ है। उस ऐतिहासिक युद्ध की स्मृति में डोंबारी पहाड़ पर एक विशाल स्तंभ का निर्माण मुंडारी भाषा के विद्वान जगदीश त्रिगुणायत के प्रयास से किया गया। 

बता दें कि इस ऐतिहासिक लड़ाई की स्मृति में एक स्मारक निर्माण के लिए ‘बिरसा स्मारक बहुउद्देशीय विकास समिति’ का गठन किया गया और इस समिति के सचिव बनाए गए डॉ रामदयाल मुंडा। पहाड़ पर 110 फीट ऊंचा डोंबारी बुरू का स्मारक पत्थरों से बनाया गया, जो काफी दूर से दिखाई देता है। तत्कालीन मंडलायुक्त सी के बसु द्वारा बिरसा मुंडा की शहादत दिवस के अवसर पर इस स्मारक का उद्घाटन 9 जून 1991 को किया गया था।

पहाड़ की तलहटी में एक मंच भी बनाया गया और उसके पास ही 30 फीट की बिरसा मुंडा की कांस्य प्रतिमा भी स्थापित की गई। कांस्य प्रतिमा का निर्माण नेतरहाट के राजेंद्र प्रसाद गुप्ता ने 1990 को किया। प्रतिमा तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां बनाई गई हैं किंतु वे आज जर्जर हो चुकी हैं। लोहे की रेलिंग में जंग लग चुका है। सीमेंट जगह-जगह से उखड़ रहा है। प्रतिमा का बेस कभी भी क्षतिग्रस्त हो सकता है। पिछले 28 सालों से इसका रंग-रोगन भी नहीं हुआ है। 

यहीं पर छोटा सा मैदान और एक विशाल मंच भी है। इसके बाद अंदर स्मारक तक जाने के लिए पीसीसी सड़क बनी है। यहां तक पहुंचने के लिए सीधी चढ़ान है। यहीं से ‘सईल रकब’ भी दिखाई देता है। सरकार का विकास केवल बिरसा मुंडा के जन्मस्थल तक ही सिमट गया है जबकि उनसे जुड़े ऐतिहासिक स्थल उपेक्षा के शिकार हैं। एक महत्वपूर्ण स्मारक उपेक्षित है जबकि उस समय यहां एक छोटा सा अस्पताल और स्कूल खोलने की बात भी की गई थी। आश्चर्य की बात  तो यह है कि राज्य बनने से पहले जितना काम हुआ फिर राज्य बनने के बाद से अभी तक यहां एक ईंट भी नहीं रखी गई है। अलबत्ता स्थानीय लोगों ने ग्राम पंचायत गुटुहातु, मुरहू के सौजन्य से यहां 9 जनवरी 2014 को एक पत्थलगड़ी जरूर कर दी है, जिस पर अंग्रेजों के गोलीकांड में शहीद छह लोगों के नाम दर्ज हैं।

दूसरी तरफ डोंबारी बुरू में शहीद हुए सैकड़ों शहीदों में से अभी तक सभी की पहचान नहीं हो पायी है। शहीद हुए लोगों में मात्र 6 लोगों की ही पहचान हो सकी है। इसमें गुटूहातू के हाथीराम मुंडा, हाड़ी मुंडा, बरटोली के सिंगराय मुंडा, बंकन मुंडा की पत्नी, मझिया मुंडा की पत्नी और डुंगडुंग मुंडा की पत्नी शामिल हैं।

डोंबारी बुरू में मेला आयोजित करने के लिए अखाड़ा, भवन और भगवान बिरसा मुंडा की जहां प्रतिमा बनायी गयी है। उसके निर्माण के लिए कुल 80 डिसमिल जमीन देने वाले बिसु मुंडा को आजतक जमीन का मुआवजा नहीं मिला है। बता दें कि उक्त स्थल की देखरेख के लिए उन्हें ही नौकरी पर रखा गया था। शुरुआत में उन्हें जिला परिषद से वेतन दिया जा रहा था, लेकिन नवंबर 1996 से वेतन भी बंद हो गया। बिसु के मुताबिक, उन्हें दिया गया आश्वासन भी पूरा नहीं किया गया है। झारखंड की सरकार अब तक शहीदों के नाम पर आज तक औपचारिकता ही निभाती रही है।

उलगुलान के इतिहास को अपने अंदर समेटे हुए यह विशाल स्तंभ आज भी विकास की बाट जोह रहा है। स्तंभ की सीढ़ी व फर्श पर लगे पत्थर टूट चुके हैं। सीढि़यों के किनारे बनाए गए रेलिग भी कई जगह से टूट चुकी है। सैकड़ों लोगों के शहादत की कहानी बयां करने वाली इस ऐतिहासिक स्तंभ को अब किसी तारणहार का ही इंतजार है।

(वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट)

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