चरण सिंह गृहमंत्री का पद छोड़कर आखिर क्यों बनना चाहते थे यूपी का मुख्यमंत्री?

किसान वर्ग के मसीहा चौ. चरण सिंह को लोकबन्धु राजनारायण के शब्दों में याद करें तो चरण सिंह ने सरदार पटेल का दिल, महात्मा गाँधी के तरीके और डाक्टर राममनोहर लोहिया की तर्कशक्ति पाई। वे देहात के जीवन के ज्ञाता और ‘‘सादा जीवन-उच्च विचार’’ के पोषक थे। किसान और मजदूर वर्ग के लिए संघर्षरत रहे चरण सिंह की आज जयंती है। बिहार में राजद हो या जदयू, ओडिशा में जनता दल, मुलायम सिंह की समाजवादी, अजीत सिंह का रालोद और ओमप्रकाश चौटाला की लोकदल के अलावा राजस्थान में लोकदल अथवा देशभर में जितनी जनता दल यूनाइटेड की पार्टियां हैं सभी चरण सिंह की राजनीति के फलस्वरूप फली-फूलीं हैं। चौधरी चरण सिंह एक मुख्यमंत्री,एक प्रधानमंत्री होने से पहले एक किसान नेता थे। वह कांग्रेस में करीब चालीस साल तक रहे इस दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण पदों को भी संभाला।

यूपी में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार  

1962 के आम चुनाव के बाद 1963 में कुछ उपचुनाव हुए जिसमें राममनोहर लोहिया फर्रुखाबाद से, कृपलानी अमरोहा से, स्वतंत्र पार्टी की मीनू मसानी गुजरात के राजकोट से और एक साल बाद 1964 में समाजवादी नेता मधु लिमये बिहार के मुंगेर संसदीय क्षेत्र से उपचुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे जहां इन दिग्गजों ने इंदिरा गांधी को जमकर घेरा। उधर 23 अप्रैल 1967 को एक पत्र में कांग्रेस की नेता मंडली पर प्रश्न चिन्ह उठाते हुए चौधरी चरणसिंह ने कांग्रेस के विकल्प के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। यूपी में 1967 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 198 और विपक्षी दलों को 227 सीटें हासिल हुईं। इंदिरा गांधी के विशेष स्नेह के कारण चन्द्र भानु गुप्त यूपी के मुख्यमंत्री बने और 14 मार्च 1967 को गुप्त ने यूपी का आसन ग्रहण किया। चरण सिंह मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों के चलते असंतुष्ट थे। परिणामस्वरूप सभी विपक्षी दलों ने संयुक्त विधायक दल (संविद) बनाया राम चन्द्र विकल को इसका मुखिया चुना गया। 1 अप्रैल 1967 को राम चन्द्र विकल सदन में विपक्ष की भूमिका में नजर आए। तत्कालीन गुप्त सरकार का एक प्रस्ताव बहुमत से अस्वीकृत हो गया फिर क्या था लोहिया के कहने पर संसोपा के विधायकों ने चरण सिंह को समर्थन दिया और 3 अप्रैल 1967 को पहली बार यूपी में गैर कांग्रेसी सरकार के रूप में चौधरी चरण सिंह मुख्यमंत्री बने।

क्या मौकापरस्त थे चरण सिंह?

चरण सिंह के मुख्यमंत्री बन जाने के कारण अन्य महत्वाकांक्षी सदस्यों और विपक्षी पार्टी के नेताओं ने चौधरी पर मौकापरस्त होने का आरोप लगाया लेकिन लोहिया ने 27 अप्रैल 1967 को ‘‘पैट्रियाट’’ को दिए गए साक्षात्कार में कहा कि यदि केन्द्र में चरण सिंह या अजय मुखर्जी गैर-कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व करेंगे तो मैं ज्यादा पसंद करुँगा।” लोहिया के इस बयान से एक बात और साफ हो गयी कि भविष्य में चरण सिंह ही उनकी विरासत को संभालने वाले हैं। यह बात आगे जाकर सच साबित भी हुई। बीजू पटनायक ने और स्पष्ट करते हुए कहा,”मुझे कहने में जरा भी संकोच नहीं कि लोहिया की विचारधारा को चौधरी चरण सिंह ने और आगे बढ़ाने का संकल्प कांग्रेस छोड़ने के साथ ही ले लिया था।”

समाजवादी धड़ों को बुरी हार से मिला सबक

समाजवादी आन्दोलन के सशक्त हस्ताक्षर रहे कैप्टन अब्बास अली अपनी आत्मकथा, ‘न रहूं किसी का दस्तनिगर : मेरा सफरनामा’ में लिखते हैं,

सन् 1971 के चुनाव में दोनों समाजवादी धड़ों की बुरी तरह फज़ीहत हुई। संसोपा को मात्र तीन सीटें मिली। दो बिहार में और एक मध्य प्रदेश में उसी तरह प्रसोपा को भी दो ही सीटें मिलीं। एक महाराष्ट्र से मधु दंडवते और दूसरे पश्चिम बंगाल से समर गुहा। दोनों धड़ों को यह अहसास हुआ कि समाजवादी आंदोलन के विभिन्न धड़ों को एक साथ आना चाहिए। इस तरह 1971 के नौ अगस्त के ऐतिहासिक दिन प्रसोपा,संसोपा तक भासोपा (इंडियन सोशलिस्ट पार्टी) के लोगों ने मिलकर सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया। इसके अध्यक्ष कर्पूरी ठाकुर तथा महामंत्री मधु दंडवते बने। लेकिन इसके पहले ही संसोपा में काफी मतभेद उत्पन्न हो गये थे। इसलिए एकीकृत सोशलिस्ट पार्टी ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सकी। राजनारायण जी के अनुयायी इससे अलग हो गये और संसोपा (लोहियावादी) के नाम से एक नयी पार्टी बना ली। इसके तुरंत बाद राजनारायण अपने साथियों को लेकर भारतीय लोकदल में शामिल हो गये। इस दल संसोपा तथा प्रसोपा से अलग होकर कुछ समाजवादी नेताओं ने इन्डियन सोपा का गठन किया था।

केरल की पार्टी इसमें प्रमुख थी। बिहार के सूरज नारायण सिंह, त्रिपुरारी प्रसाद सिंह आदि भी इसके नेता थे। इस दल में बलराज मधोक जैसे जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष, स्वतंत्र पार्टी के पीलू मोदी तथा चौधरी चरण सिंह के अनुयायी शामिल हुए। राजनारायण तो बांका के उप चुनाव में मधु लिमये के ख़िलाफ लड़े और बुरी तरह हारे भी। चौधरी साहब का केन्द्र में कद बढ़ चुका था।

आपातकाल और उसके बाद

 सत्तर का दशक विघटनकारी शक्तियों का गवाह रहा। पहले बांग्ला संघर्ष उसके बाद जेपी का बिहार आन्दोलन(सम्पूर्ण क्रान्ति), संजय गांधी का संविधानेत्तर शक्ति केंद्र बनना, मोरारजी देसाई के उपवास के फलस्वरूप गुजरात विधानसभा का भंग होना, विपक्ष का एकजुट होकर ‘जनता मंच’ के बैनर तले चुनाव लड़ना, इन्दिरा गांधी का निर्वाचन रद्द होना और इसके बाद दमनकारी आपातकाल। कैप्टन ने लिखा, “परिस्थितियों का तक़ाज़ा था कि जे. पी. इन्दिरा गांधी की चुनावी चुनौती को स्वीकार करें। इस सिलसिले में उन्होंने शर्त रखी कि विपक्ष के चारों दल संगठन कांग्रेस, जनसंघ,भारतीय लोकदल और सोशलिस्ट पार्टी मिलकर एक दल नहीं बना लेते तो वे चुनाव में प्रचार भी नहीं करेंगे।” इसके बाद चौधरी साहब की गिरफ्तारी हुई और उन्हें तिहाड़ की काल-कोठरी में डाल दिया गया।

उनके स्वास्थ्य पर इस दमन का कुप्रभाव पड़ना स्वाभाविक था, एमनेस्टी इंटरनेशनल के हस्तक्षेप से चरण सिंह 7 मार्च 1976 में पैरोल पर रिहा कर दिए गए। रिहा होने के बाद चौधरी साहब को जब भी और जहां भी कोई स्तरीय मंच मिला गांधी के दमन पर खुलकर बोले। चौधरी, लोहिया के अवतार में नजर आने लगे। सर्वोदयी महन्त जगन्नाथ दास ठीक ही कहते थे किसान के असली जीवन और उनकी वास्तविक कठिनाइयों को जानने वाला दूसरा कोई उतना बड़ा हितैषी नहीं है, जितने चौधरी चरण सिंह थे। 11 अगस्त 1974 को बनी भारतीय क्रांति दल 29 अगस्त 1974 स्वतंत्र पार्टी, संसोपा, उत्कल कांग्रेस, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक संघ किसान मजदूर पार्टी व पंजाबी खेती बारी यूनियन के साथ विलित होकर भारतीय लोक दल बनी, चरण सिंह जी इसके अभिभावक बने।29 अगस्त 1974 को उन्होंने केन्द्रीय भूमिका निभाते हुए भारतीय लोकदल का गठन किया। पीलू मोदी, राजनारायण, बीजू पटनायक, रवि राय, कर्पूरी ठाकुर, प्रकाशवीर शास्त्री जैसे नेताओं ने चौधरी चरण सिंह जी को लोकदल का अध्यक्ष चुना।

कांग्रेस के लोकतांत्रिक विकल्प की तलाश में चरण सिंह

 8 जुलाई 1976 को चौधरी चरण सिंह ने दिल्ली में एक बैठक बुलायी, जिसमें एनजी० गोरे, ओपी त्यागी, अशोक मेहता, भानु प्रताप सिंह आदि शामिल थे लेकिन बैठक किसी भी निर्णय पर नहीं पहुंच सकी। चरण सिंह कांग्रेस के विपक्ष में एक लोकतांत्रिक विकल्प के रूप में सभी विपक्षी पार्टियों का विलय कराना चाहते थे लेकिन आपातकाल के दौरान उस समय बहुत से नेता जेल में बंद थे उनके बिना विलय संभव नहीं था। चरण सिंह ने जेल में कैद नेताओं की राय लिखित में मांगने की बात कही तो स्वीकार नहीं की गई। 8 जुलाई की शाम को दिशा-निर्देशन समिति के अध्यक्ष एनजी० गोरे को चौधरी चरण सिंह ने एक पत्र लिखा, जिसमें लिखा था : “मैं यह बात दोहराना चाहता हूं कि समय का बहुत महत्त्व है, यद्यपि कुछ दलों के लोग इस दबाव को मेरा व्यक्तिगत स्वार्थ समझते होंगे, आप उन्हें विश्वास दिलायें कि नये दल का मैं नेतृत्व किसी तरह स्वीकार नहीं करूंगा। जैसे ही नये दल का गठन हो जायेगा, यदि मैं स्वयं को राजनीतिक नेता होने के अयोग्य पाऊंगा, तो सदा के लिए राजनीति से संन्यास ले लूंगा। लेकिन प्रजातंत्र की सफलता के लिए कांग्रेस का प्रजा तान्त्रिक विकल्प बनाना अत्यावश्यक है।”

मोरारजी देसाई ने किससे कहा था, “विलय के पाप से बच गये आप”

इन्दिरा गांधी ने 18 जनवरी 1977 को चुनाव कराने की घोषणा कर दी। विरोधी पक्ष इससे बड़े असमंजस में पड़ा। 19 जनवरी को मोरार जी भाई देसाई जेल से छोड़ दिए गए। पीलू मोदी जो विकल्प दल बनाने में चौधरी चरण सिंह की बड़ी मदद कर रहे थे, मोरार जी से मिलने उनके निवास पर गये। मोरार जी भाई ने मोदी से तपाक से कहा कि “अच्छा हुआ चुनाव घोषित हो गया, विलय के पाप से बच गये आप। अब मोर्चा बनाकर लड़ लिया जायेगा”। इसे सुन कर चौधरी‌‌ साहब ने कहा, “विलय हमारा एक सूत्री कार्यक्रम है, कोई मोर्चाबन्दी नहीं होगी।” उसी रात मोरार जी के नयी दिल्ली स्थित आवास 5 डूप्ले रोड पर सभी प्रमुख दलों के नेताओं की बैठक हुई। जिसमें चौधरी चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, सुरेन्द्र मोहन,पीलू मोदी, नानाजी देशमुख, एनजी गोरे और अशोक मेहता शामिल हुए।

एकजुट विपक्ष और 1977 का आम चुनाव

 मोरारजी देसाई व निंगलिजप्पा की संगठन कांग्रेस तथा बाबू जगजीवन राम व हेमवती नन्दन बहुगुणा वाली कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी, के जनता पार्टी में विलय होने से यह लगने लगा था कि अब देश से कांग्रेस का सफाया निश्चित है। 1977 में लोकसभा के चुनाव हुए। आपातकाल के दंश से कराह रही जनता ने जनता पार्टी व जयप्रकाश नारायण, आचार्य कृपलानी, चौधरी चरण सिंह, राजनाराण पर विश्वास जताया। 544 सीटों में से 542 को बहुमत के लिए 272 सीटों की जरूरत थी जनता पार्टी को सर्वाधिक 295 सीटें हासिल हुईं, अन्य पार्टियों के सहयोग से कुल 348 सीटें मिलीं। वहीं कांग्रेस को सिर्फ 154 सीटों से संतोष करना पड़ा। जेपी, कृपलानी की इच्छा थी बाबू जगजीवन राम प्रधानमंत्री बनें लेकिन चरण सिंह मोरारजी को पीएम देखना चाहते थे। अन्त में 24 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई ने पहली बार किसी गैर कांग्रेसी के रूप में पीएम पद का पदभार सम्भाला।

जब चरण सिंह ने इंदिरा को अपना आवास खाली करने को कहा

आपातकाल के दौरान जेल में डाले गए चरण सिंह का इंदिरा के प्रति काफी गुस्सा था। जेल से छूटने के बाद चरण सिंह इंदिरा को सबक सिखाने का एक अवसर ही ढूंढ रहे थे। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी अपने संस्मरण में लिखते हैं, “जब मोरारजी की सरकार में चरण सिंह ने यह तय किया कि इंदिरा का सरकारी आवास खाली कराया जाए तो चंद्रशेखर ने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा ये गलत काम नहीं होना चाहिए। वो इंदिरा गांधी से मिले और उन्हें आश्वस्त किया कि चिंता की कोई बात नहीं है।

 चरण सिंह का मंत्रिमंडल से ‘इस्तीफा’

एक दिन मोरार जी देसाई चौधरी चरण सिंह के एक वक्तव्य को पढ़ कर बौखला गये। दरअसल चौधरी साहब ने उस दिन एक बयान दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि, “जनता पार्टी और सरकार का विघटन गांधी के अपराधों के खिलाफ समुचित कार्यवाही न होते देख जनता सरकार को शासन करने के अयोग्य तथा नपुंसकों का समूह समझती है।” चौधरी ने अपने इस बयान में जनता सरकार में पनप रहे भ्रष्टाचार की ओर भी इशारा किया। बस इसी बात पर मोरार जी बिफर गए। उन्होंने मंत्रिमंडल के सदस्यों की राय लेकर इसी बात पर चौधरी सिंह का त्यागपत्र मांग लिया। बस फिर क्या था जनता पार्टी फूट पड़ी ।

चौधरी चरण सिंह ने तीन पंक्तियों के सीधे सादे जवाब के साथ अपना त्यागपत्र भेजा वहीं चौधरी साहब को राम और खुद को उनके हनुमान कहने वाले राजनारायण ने बेहद तल्ख लहजे में अपना त्यागपत्र भेजा। इसके बावजूद चौधरी जनता दल से अलग नहीं हुए। लोकदल के अनुयायियों के प्रयास से 24 जनवरी 1979 को चौधरी उप- प्रधानमंत्री मंत्री बनकर वित्त मंत्री के रूप में वापस मंत्रिमंडल में पहुंचे। तब चौधरी ने मोरार जी भाई को अपना नेता मानकर वफादारी का वादा किया। वहीं हनुमान यानि राजनारायण ने संजय गांधी से कहा कि, “कुर्सी की अति पड़ी है। क्या किया जाए?”..अगर यह सच है तो हनुमान ने मर्यादा का ध्यान कदापि नहीं रखा।”

खेती, बेरोजगारी और असमानता पर मुखर रहे चरण सिंह

कृषक वर्ग के अलावा गरीबी और बेरोजगारी के लिए भी चरण सिंह का रुख अलग ही नजर आता था। 15 अगस्त 1779 को लाल किले की प्राचीर से चौधरी चरण सिंह ने गरीबी और बेरोजगारी पर जमकर हमला बोला। उन्होंने कहा, “आज हम 125 देशों में 111 वें नंबर पर खड़े हैं यानी 110 राष्ट्र हम से आगे हैं, 3 साल पहले हमारा स्थान 104 था इस दौरान हम नीचे गिर कर 111 वीं पायदान पर पहुंच गए यह गरीबी के स्तर को बताता है।”

चौधरी साहब ने आगे कहा, “दूसरी समस्या हमारे यहां बेरोजगारी की है जनता पार्टी की सरकार आने से 25 लाख बेरोजगार युवकों को रजिस्टर्ड करके उन्हें रोजगार दिया गया इसके बावजूद बेरोजगारी की दर कम नहीं हुई। हमारे यहां तीसरी समस्या असमानता की है। हमारे यहां आर्थिक क्षेत्र में निम्न और उच्च वर्ग के मध्य समानता का पैमाना बहुत व्यापक है। इसका कारण उपनिवेश में मौजूद था। यह समानता हर जगह व्याप्त है और इसे पूरी तरह से समाप्त करना असंभव होगा। लेकिन भारत सरकार असमानता को कम करने के लिए हर संभव प्रयास करें। आजादी के बाद हमारे देश में अमीर और गरीब के बीच का अंतर बढ़ता ही गया आर्थिक शक्ति कुछ लोगों के हाथ में आ गई।”

भूमि सुधार कानून और चौधरी साहब

मधु लिमये अपनी किताब ‘चौधरी चरण सिंह, कृषक लोकतंत्र के पक्षधर’ में लिखते हैं “जब चरण सिंह एक कनिष्ठ मंत्री बने और महान भूमि सुधार विधेयक विधानमंडल में पारित करवाने की जिम्मेदारी सौंपी गई तब तक समाजवादी कांग्रेस छोड़ चुके थे और भूमि सुधार के मामले में उन दोनों के बीच सहयोग की कोई संभावना नहीं थी चौधरी साहब भूमि सुधार कानून को बिना प्रतिक्रियावादी परिवर्तन के पास करने तथा उसको निष्फल बनाने के निहित स्वार्थों द्वारा किए गए प्रयासों के खिलाफ लड़ाई हालांकि हमेशा उनकी चल नहीं पाई किंतु इसमें संदेह नहीं कि मुख्य रूप से उन्हें की लगन और समर्पण के कारण उत्तर प्रदेश भूमि सुधार कानून का प्रगतिशील चरित्र बना रहा इसलिए चौधरी साहब को कुलुकों का समर्थक कहना अन्याय है वह जमीन के स्वामित्व के मामले में असमानता के खिलाफ थे और एक किस्म के प्रजातंत्र के थे औद्योगिक क्षेत्र में विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था के पक्ष में रहे जिसमें बड़े पैमाने पर तकनीक का प्रयोग सिर्फ क्षेत्रों में जहां उसकी निहायत जरूरत है।”

राष्ट्रभाषा पद पर केवल हिन्दी को ही आसीन किया जा सकता है

विभाजन के बाद पूरे देश में छिड़े राष्ट्रभाषा सम्बंधी विवाद से चौधरी चरण सिंह का भी नाता रहा। उन्होंने 9 दिसम्बर 1948 को मेरठ में आयोजित 36 वें हिन्दी अधिवेशन को संबोधित करते हुए चरण सिंह ने भाषा विवाद के इस मामले में स्पष्ट करते हुए कहा कि, ‘‘ राष्ट्र भाषा का स्थान उसी को दिया जा सकता है, जिसकी शब्दावली, उच्चारण, लिपि और वर्णमाला अन्य प्रान्तीय भाषाओं की शब्दावली आादि के अधिक निकट हो, जिसकी लिपि सुगम और वैज्ञानिक हो, और जिसमें ऊँचे से ऊँचे साहित्यिक और वैज्ञानिक ग्रन्थ लिखे जा सकें, इन कसौटियों पर कस कर देखा जाय तो राष्ट्रभाषा पद पर केवल हिन्दी को ही आसीन किया जा सकता है।‘‘ उर्दू अगर मजहब की भाषा होती तो पश्चिमी पाकिस्तान और बंगलादेश क्यों बँटते? मैं यह बात बार-बार दोहराता हूं कि हिन्दी और उर्दू के बीच लिपि को छोड़कर कोई अन्तर नहीं है। उनका स्वप्न भारत को एकजुट कर आत्मनिर्भर बनाने का था। चौधरी साहब लौहिया की तरह सभ्यता के पश्चिमीकरण के खिलाफ थे उनका मानना था लोग अंग्रेजी बोलने में बड़ी शान समझते हैं।

लखनऊ से था चौधरी साहब को मोह

कुछ ही महीने पहले समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव चौधरी साहब को याद करते हुए कहते हैं, चौधरी साहब लगातार 40 साल तक, लखनऊ की सरजमीं पर रहे हैं। एक ही बंगले में रहते थे। कभी-कभी वह कहते थे कि मुलायम सिंह, उत्तर प्रदेश और लखनऊ से इतना मोह हो गया है कि हमें गृह मंत्री पद बेकार लग रहा है। अपने प्रदेश की जनता का कोई काम नहीं कर पा रहे हैं। इससे तो बेहतर था कि हम उप्र के मुख्यमंत्री हो जाते। उन्होंने कई बड़ी-बड़ी सभाओं में कहा कि, ‘‘हम दो बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं, लेकिन मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री नहीं बना पाए। हमने इनसे कहा है कि अपने नक्षत्र दिखाओ, स्टार दिखाओ।’’

( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और यूपी के अमरोहा में रहते हैं।)

प्रत्यक्ष मिश्रा
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