Friday, April 19, 2024

नॉर्थ-ईस्ट दंगा: कोर्ट की दिल्ली पुलिस को फिर फटकार, जांच के तरीके पर उठाया सवाल

आये दिन कोर्ट की लताड़ सुनने के बावजूद दिल्ली पुलिस को शर्म नहीं आती। जब केंद्र के अधीन दिल्ली पुलिस इतनी लचर है तो राज्यों की पुलिस का कहना ही क्या है? दिल्ली की एक सत्र अदालत ने आश्चर्य व्यक्त किया कि दिल्ली पुलिस एक मामले की जांच कर रही है, लेकिन पुलिस को खुद नहीं पता था कि वह मामले की जांच कर रही है। फिर जब बताया गया तो पता चला कि वह मामले की जांच कर रही है, जिसका विवरण उन्हें नहीं पता। जबकि दिल्ली की एक दूसरी सत्र अदालत ने कहा है कि 2020 में उत्तर पूर्व में हुए दंगे के बहुत सारे मामलों में जांच का मापदंड बहुत घटिया’ है और ऐसे में दिल्ली पुलिस आयुक्त के दखल की जरूरत है। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (एएसजे) विनोद यादव ने अशरफ अली नामक एक व्यक्ति पर 25 फरवरी, 2020 को सांप्रदायिक दंगे के दौरान पुलिस अधिकारियों पर कथित रूप से तेजाब, कांच की बोतलें और ईंटें फेंकने को लेकर आरोप तय करते हुए यह टिप्पणी की। अशरफ अली पर 25 फरवरी 2020 को सांप्रदायिक दंगे के दौरान पुलिस अधिकारियों पर कथित रूप से तेजाब, कांच की बोतलें और ईंटें फेंकने का आरोप है।

सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने कहा कि यह कहते हुए पीड़ा होती है कि दंगे के बहुत सारे मामलों में जांच का मापदंड बहुत घटिया है। उन्होंने कहा कि ज्यादातर मामलों में जांच अधिकारी अदालत में पेश ही नहीं हो रहे हैं। न्यायाधीश ने कहा कि पुलिस आधे-अधूरे आरोप पत्र दायर करने के बाद जांच को तार्किक परिणति तक ले जाने की बमुश्किल ही परवाह करती है जिस वजह से कई आरोपों में नामजद आरोपी सलाखों के पीछे बने हुए हैं।

सत्र न्यायाधीश ने 28 अगस्त को अपने आदेश में कहा कि यह मामला इसका जीता-जागता उदाहरण है, जहां पीड़ित स्वयं ही पुलिसकर्मी हैं, लेकिन जांच अधिकारी को तेजाब का नमूना इकट्ठा करने और उसका रासायनिक विश्लेषण कराने की परवाह नहीं है। जांच अधिकारी ने चोट की प्रकृति को लेकर राय भी लेने की जहमत नहीं उठायी है।

अदालत ने कहा कि इसके अलावा मामले के जांच अधिकारी इन आरोपों पर बहस के लिए अभियोजकों को ब्रीफ नहीं कर रहे हैं और वे सुनवाई की सुबह उन्हें बस आरोपपत्र की पीडीएफ प्रति मेल कर दे रहे हैं। एएसजे यादव ने इस मामले में इस आदेश की प्रति दिल्ली पुलिस के आयुक्त के पास उनके सदंर्भ एवं सुधार के कदम उठाने के वास्ते (उनके द्वारा) जरूरी निर्देश देने के लिए’ भेजे जाने का भी निर्देश दिया।

अदालत ने कहा कि वे इस संबंध में विशेषज्ञों की राय लेने के लिए स्वतंत्र हैं, अन्यथा इन मामलों में शामिल लोगों के साथ नाइंसाफी होने की संभावना है। फरवरी, 2020 में उत्तरपूर्व दिल्ली में संशोधित नागरिकता कानून के समर्थकों एवं विरोधियों के बीच हिंसा के बाद सांप्रदायिक दंगा भड़क गया था, जिसमें कम से कम 53 लोगों की जान चली गयी थी और 700 से अधिक घायल हुए थे।

दिल्ली कोर्ट ने आश्चर्य व्यक्त किया

दिल्ली की एक दूसरी सत्र अदालत ने दिल्ली पुलिस के आचरण पर आश्चर्य व्यक्त किया कि दिल्ली दंगों के दौरान अपने प्रतिवादी द्वारा उसके घर पर हमले का आरोप लगाने वाली शिकायत को उसी घटना की एक और एफआईआर के साथ जोड़ने के बारे में दिल्ली पुलिस को जानकारी ही नहीं। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ ने कहा कि हालांकि पुलिस मामले की जांच कर रही है, लेकिन पुलिस को खुद नहीं पता था कि वह मामले की जांच कर रही है। फिर जब बताया गया तो पता चला कि वह मामले की जांच कर रही है, जिसका विवरण उन्हें नहीं पता।

शिकायत मार्च 2020 में दर्ज की गई थी। हालांकि, पुलिस को उस वर्ष नवंबर में यानी आठ महीने के अंतराल के बाद एक और एफआईआर के साथ इसे जोड़ने का एहसास हुआ। अदालत पुलिस द्वारा दायर एक पुनरीक्षण याचिका पर विचार कर रही थी। इस याचिका में निचली अदालत के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें प्रतिवादी द्वारा यहां दायर की गई शिकायत के लिए एक अलग एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया गया था।

पुलिस ने दावा किया कि शिकायत को पहले ही जोड़ दिया गया था और यह तथ्य अनजाने में मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया जा सकता था, इसलिए, आक्षेपित आदेश उस सामग्री पर पारित किया गया था, जिसे न्यायालय के समक्ष पेश नहीं किया गया था।

कोर्ट ने मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के आदेश को बरकरार रखते हुए पुनरीक्षण याचिका को खारिज करते हुए कहा, “यह हास्यास्पद है, क्योंकि यह तथ्यहीन है। अगर इसे अंकित मूल्य पर स्वीकार किया जाना है तो इसका मतलब यह है कि संबंधित जांच अधिकारी / एसएचओ को मार्च से नवंबर 2020 तक पता भी नहीं था, जिसके दौरान उन्होंने जवाब दाखिल किया और एमएम के समक्ष कार्यवाही कि इस शिकायत को एफआईआर संख्या 109/20 के साथ जोड़ा गया है। इसकी जांच की जा रही थी और वर्तमान पुनरीक्षण याचिका दायर करने के समय ही उन्हें किसी तरह पता चला कि वे पहले से ही मामले की जांच कर रहे हैं।

कोर्ट ने आगे कहा, “इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि हालांकि पुलिस मामले की जांच कर रही है, लेकिन पुलिस को खुद नहीं पता था कि वे मामले की जांच कर रहे हैं। फिर जब बताया गया कि वह मामले की जांच कर रही है, जिसका विवरण उन्हें नहीं पता है। चूंकि पुलिस को स्वयं नहीं पता था कि वे मामले की जांच कर रही है, स्वाभाविक परिणाम यह है कि वे न्यायालय या शिकायतकर्ता/प्रतिवादी को इसके बारे में सूचित नहीं कर सकते।

एफआईआर 109/2020 पुलिस स्टेशन जाफराबाद एक अशकीन द्वारा दर्ज शिकायत के आधार पर दर्ज किया गया था। पुलिस का मानना था कि उक्त एफआईआर के साथ शिकायत दर्ज की गई थी, क्योंकि यह एक ही स्थान से संबंधित थी। दोनों घटनाएं एक ही दिन की थीं और शिकायत भी एक ही दिन दर्ज की गई थीं। वहीं दूसरी ओर सलीम का यह मानना था कि उनके द्वारा शिकायत दर्ज कराने के एक दिन बाद प्राप्त शिकायत पर उक्त एफआईआर दर्ज की गई थी। इसलिए शिकायत का एफआईआर क्रमांक 109/2020 में वर्णित सामग्री से कोई संबंध नहीं था।

कोर्ट ने कहा, “पूरे आक्षेपित आदेश की जांच करने के बावजूद, इस न्यायालय ने उक्त आदेश में किसी भी दोष का पता लगाने के लिए अपने आप को पाया। आक्षेपित आदेश मामले के रिकॉर्ड के लिए स्पष्ट और वास्तविक है। उक्त आदेश में कोई दोष नहीं पाया जा सकता है। मई में यहां जोड़ता हूं कि एलडी मजिस्ट्रेट के समक्ष पुलिस द्वारा दायर की गई स्थिति रिपोर्ट से एलडी मजिस्ट्रेट द्वारा किए गए निष्कर्ष के अलावा कोई अन्य निष्कर्ष नहीं निकल सकता था।”

अदालत ने यह भी देखा कि मामलों को जोड़ने या सलीम की शिकायत की जांच का दावा न तो जांच अधिकारी द्वारा या अभियोजन पक्ष द्वारा मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के सामने रखा गया था, क्योंकि “यदि जांच की जा रही थी या क्लबिंग हुई थी, तो यह उनके लिए होना चाहिए था।” यह देखते हुए कि सलीम की शिकायत संज्ञेय अपराधों का खुलासा करती है, जिसमें अलग से जांच की आवश्यकता है, अदालत ने पुलिस द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया और सात दिनों के भीतर एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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