Saturday, April 20, 2024

हाथरस कांडः परिजनों का आरोप- ‘ऑनर किलिंग’ की लाइन पर जांच कर रही है सीबीआई!

अगर तुम औरत हो,
तो बलात्कार की बात जुबान से निकालने भर से
अवहेलना हो जाती है मनुस्मृति की
इसके लिए काटी जा सकती है तुम्हारी जीभ,
तोड़ी जा सकती है गर्दन
हो सकता है हमला
तुम्हारे ही चरित्र पर।

इस समाज में इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि जो लड़की किसी पुरुष या समाज के चरित्र के बारे में मुंह खोलती है, उसी पर सत्ता और समाज का चारित्रिक हमला शुरू हो जाता है। 70 के दशक में मथुरा नाम की आदिवासी युवती के बारे में कोर्ट ने कहा कि वह सेक्स की आदी थी। लगभग 12-13 साल पहले दो बजे रात को घर लौट रही पत्रकार सौम्या अपनी कार में मृत पाई गईं, तो दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा ‘वो इतनी देर रात घर से बाहर क्या कर रही थीं?’ 2012 में निर्भया के बर्बर बलात्कार के बाद विधायकों, सत्ता में दखल रखने वाले साधु-संतों ने सवाल उठाया कि वह 10 बजे रात एक लड़के के साथ क्यों घूम रही थी। बंदायूं में दो लड़कियों को बलात्कार और हत्या के बाद पेड़ से लटका दिया गया, तो सरकार के सभी नुमाइंदों ने कहा कि लड़कियों का चरित्र ठीक नहीं था, उन्होंने खुद आरोपी लड़कों को बुलाया था। वहां इस चरित्र हनन के तले पूरे मामले को ही ढक दिया गया। अब हाथरस में भी यही प्रयास होता दिख रहा है।

4 नवम्बर 2020 को मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की जांच टीम (जिसकी एक सदस्य मैं भी थी) जब पीड़ित परिवार से मिलने पहुंची, तो मृतक लड़की के परिजनों ने सीबीआई द्वारा पूछे जा रहे सवालों पर आपत्ति जताते हुए लड़की के चरित्र हनन किए जाने पर नाराजगी व्यक्त की। उन्होंने बताया कि सीबीआई के लोग उनकी रिश्तेदारियों में जाकर लड़की के चाल-चरित्र संबंधी सवाल पूछ कर उसे बदनाम कर रहे हैं। परिजनों ने शिकायत की कि सीबीआई के अधिकारी लड़की के बलात्कार और हत्या के आरोपियों के खिलाफ सुबूत जुटाने के बजाय लड़की के चाल-चरित्र के बारे में साक्ष्य जुटाने में लगी है। सीबीआई के अधिकारियों ने परिजनों से जिस तरीके के सवाल पूछे हैं, उससे पता चलता है कि ये संस्थाएं पितृ सत्तात्मक मानसिकता से किस कदर बजबजा रही हैं। ऐसे में न्याय की उम्मीद पहले से ही संदेह के घेरे में आ जाती है।

4 नवंबर को पीयूसीएल उत्तर प्रदेश की 11 सदस्यीय टीम ने घटना के डेढ़ महीने बाद परिजनों से इस संदर्भ में मुलाकात की, कि इस बीच हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से आए आदेशों का पालन ठीक से हो रहा है या नहीं? हाथरस के बुलगढ़ी गांव स्थित यह वाल्मीकि घर उपलों के बीच से झांकते सीआपीएफ के जवानों की वर्दी और बंदूकों से ही पहचाना जा सकता है। 27 अक्तूबर के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यहां सीआरपीएफ के जवानों की तैनाती कर दी गई है। सीआरपीएफ ने अपने अन्य साजो-सामान के साथ मेटल डिटेक्टर को भी शामिल कर लिया है। इस परिवार से मिलने वाले हरेक व्यक्ति, नाते-रिश्तेदार को अपना नाम-पता लिखा कर परिचय-पत्र जमा कर मेटल-डिटेक्टर से गुजर कर ही अंदर जाना होता है। इस बलात्कार के मामले को सरकार को बदनाम करने की साजिश बताने वाली उत्तर-प्रदेश सरकार ने भी यहां जाने वालों का ब्यौरा रखने के लिए जासूसी विभाग के एक व्यक्ति को तैनात कर दिया है।

सीआरपीएफ से भी पहले हर व्यक्ति को अपना पूरा ब्यौरा इसके पास दर्ज कराना होता है। यह माहौल हमारे लिए तनावपूर्ण था, लेकिन परिजनों के लिए सीआरपीएफ की उपस्थिति आश्वस्तकारी थी। उनका कहना है कि इनके आने से हमारा डर दूर हुआ है, वरना यूपी पुलिस तो आरोपियों के घर से चाय बनवाकर पीती थी और उनसे अपनी रिश्तेदारियां निकालती थी। ध्यान दें कि पीड़ित परिवार और आरोपियों के घर बिल्कुल सटे हुए हैं, उनकी छतें आपस में जुड़ी हुई हैं। सीआरपीएफ के जवान छत पर भी तैनात हैं। इस परिवार की लड़की के साथ जो हुआ, उसके गुस्से से अधिक उनका गुस्सा सरकारी अधिकारियों और पुलिस व्यवस्था के खिलाफ है। पिता ने रोते हुए कहा, ‘‘हम गरीब हैं, इसलिए हमारे साथ ऐसा व्यवहार किया गया, हमारी लड़की भी सोचती होगी कि किसके घर जन्म लिया, हम उसके लिए कुछ नहीं कर सके।’’

प्रदेश ही नहीं देश भर में हुए प्रदर्शनों के बाद दबाव में आकर सरकार ने 25 लाख रुपये का मुआवजा, (जिसमें एससी एसटी उत्पीड़न के कारण मिलने वाली राशि शामिल है) एक लड़के को सरकारी नौकरी और एक घर दिलाने का वादा किया है, जिसमें से रुपये मिल चुके हैं, बाकी का इंतजार है। भाइयों और भाभी ने बताया कि इस मुआवजा राशि पर व्यंग करते हुए डीएम ने कहा था, ‘‘कोरोना से मर जाती, तो इतने रुपये मिलते?’’ घर दिलाने की बात पर व्यंग करते हुए कहा, ‘‘अमिताभ बच्चन के बगल में दिला दें घर?’’ यह सब सुनकर मृतक लड़की के पिता की बात और हाई कोर्ट की सरकार को फटकार बिल्कुल सही लगती है कि अमीर की बेटी होती तो क्या प्रशासन तब भी ऐसी अमानवीयता दिखाता, ऐसे व्यंग बोलता? मानवीयता का वर्गीय और जातीय चरित्र होता है, यह फिर से इस मामले में सामने आ गया।

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने लड़की के जबरन अंतिम संस्कार पर स्वतः संज्ञान लेते हुए जब प्रशासन के आला अधिकारियों को 12 अक्तूबर को पीड़ित परिवार के साथ कोर्ट में तलब किया, तो पुलिस अधिकारियों ने कोर्ट को बताया कि लड़की का अंतिम संस्कार फूल-माला के साथ सम्मान के साथ किया गया है। मीडिया में आए वीडियो में दिख रहा है कि पुलिस अधिकारी लाश को जलाने के लिए उस पर किरोसीन या पेट्रोल का छिड़काव कर रहे हैं। हर छिड़काव के समय लपटें भभकने लगती हैं। इसकी सफाई में पुलिस वालों ने बताया कि यह गंगा जल था, जो लड़की के ऊपर छिड़का जा रहा था।

लड़की के साथ जो कुछ हुआ वह कई जांच रिपोर्टों और मीडिया रिपोर्टों में बाहर आ चुका है, लेकिन उनके दुखों की कहानी इतनी लंबी है कि उनके पास अभी भी पिछला बताने के लिए बहुत कुछ है और नयी बातें जुड़ती जा रही हैं। परिवार को पुलिस थाने से लेकर पोस्टमार्टम हाउस तक इतनी प्रताड़ना मिली है और इतना छला गया है कि उन्हें सरकार की किसी भी संस्था पर भरोसा नहीं बचा। परिवार को यह भी अंदेशा है कि लड़की की अस्पताल के अंदर गला दबा कर हत्या की गई है। लड़की के भाइयों ने बताया कि अस्पताल में उसके इलाज में लापरवाही की जा रही थी, फिर भी वह ठीक हो रही थी। जीभ का घाव थोड़ा ठीक होने के बाद वो बिस्किट और दलिया खा लेती थी, लेकिन बाद में जब से उसे वेंटिलेटर पर लिया गया, उसकी हालत खराब होती गई। जिस दिन उसे दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में शिफ्ट किया गया, उस दिन भी वो इतनी बुरी हालत में नहीं थी। ‘सुबह हम लोग बुआ के घर नहाने चले गए और वहां खबर आई कि उसकी मौत हो गई है।’

भाइयों का कहना है कि अस्पताल में उसकी हत्या की गई है। जांच का एक बिंदु अस्पताल भी है। जिस तरीके से अलीगढ़ अस्पताल में बलात्कार की पुष्टि करने वाले डॉक्टरों को बर्खास्त किया गया, उससे भी परिजनों के इस शक को आधार मिलता है। पुलिस थाने में एफआईआर दर्ज करने से लेकर लड़की की लाश को गुपचुप जलाए जाने तक सब कुछ संदेह के दायरे में है। जांच टीम द्वारा पूछे जाने पर मृतका के भइयों ने बताया कि उन्हें एफआईआर की कोई प्रति नहीं दी गई और एफआईआर में बाद में दो नाम और जुड़वाने के संदर्भ में बताया कि पहले जब उससे बोला नहीं जा रहा था, जो उसने किसी तरह एक ही नाम बताया था, इसलिए एक ही नाम की तहरीर दी गई। बाद में 18 को जब उसने तीन नाम और बताए, तो मैंने खुद 19 सितंबर को एसएसपी के यहां नाम जुड़वाने की तहरीर दी थी, जिसकी रिसीविंग उन्हें नहीं दी गई। उन्हें इसके बारे में पता नहीं था, इसलिए उन्होंने मांगी भी नहीं।

इस बलात्कार और हत्या के मामले में हुई दो जांच में से किसी पर उनका भरोसा नहीं बन सका है। एसआईटी जांच खुद उत्तर प्रदेश सरकार ने अपनी पहल पर मामले को ठंडा करने के लिए किया था। उनकी जांच पूरी हो चुकी है, रिपोर्ट सामने आने का इंतजार है। एसआईटी जांच के बारे में परिजन कहते हैं कि उनकी अपनी ओर से सवाल पूछने में कोई रुचि ही नहीं थी। जो हम बता देते थे, वे केवल उसे ही सुन लेते थे। सीबीआई के अधिकारियों के प्रति उन्हें थोड़ा गुस्सा है, ‘वे सवाल को जिस तरह से पूछते हैं उससे लगता है, उनका संदेह हमारे ऊपर ही है।’

मृतका के बड़े भाई से पूरे-पूरे दिन की दो बार पूछताछ हो चुकी है। मृतका की मां और भाभी सीबीआई की पूछताछ पर गुस्सा जताते हुए कहती हैं कि सीबीआई ने मृतका की दो बहनों के ससुराल और भाभी के मायके में जाकर उसके चाल चरित्र के बारे में अनेकों सवाल पूछे। भाभी ने बताया कि जिस फोन के बारे में कहा जा रहा है कि इस फोन से उसने आरोपी से कई बार बात की है, वह फोन उसके पिता का है और गांव में मनरेगा आने के बाद वह नंबर गांव भर में बंटा है। बहुत सारे लोगों के फोन उस पर आते हैं। परिवार के अन्य सदस्यों के फोन भी उसी पर आते थे। मां का कहना है कि उसे तो यह भी देखना नहीं आता था कि फोन किसका है, वह फोन लाकर अपनी भाभी को दे देती थी, फोन से बात करना तो बहुत दूर की बात है। भाभी 10वीं तक पढ़ी हैं, पिता के न रहने पर फोन वही रिसीव करती थीं। वाल्मीकि परिवार में पढ़-लिख जाना, वो भी लड़कियों का थोड़ा पढ़-लिख जाना ऊंची जाति के लोगों को और ऊंची जाति की रहनुमाई करने वाली सरकार को खटकता है। यह भाभी भी सबको खटक रही है।

राजकुमारी बंसल के साथ मृतक की इस पढ़ी-लिखी भाभी को भी यूपी पुलिस ने ‘घूंघट वाली नक्सल भाभी’ घोषित कर दिया है। इस तमगे के बारे में मृतक की भाभी ने बताया, ‘‘यूपी पुलिस जब हमारे यहां तैनात थी, तो हमें तरह-तरह से परेशान कर रही थी। एक दिन उसने आकर हमसे कहा कि ‘अगर संदीप (एक आरोपी) आए तो हमें सूचना दे देना।’ मैंने गुस्से में उससे कहा, ‘अगर वो यहां आ जाएगा, तो हम तुम्हें सूचना देने काहे जाएंगे, यहीं खन के (खोद कर) गाड़ नहीं देंगे?’ बस इसी के बाद वो कहने लगे कि मैं ‘नक्सली’ हूं।’’

इस भाभी के भाई ने भी डीएम के व्यंग पर कड़ा एतराज जताया था। इस कारण पुलिस उन दोनों भाई-बहनों को नक्सल बोल रही है। पुलिस की ही यह परिभाषा है कि नक्सली/माओवादी वही होता है, जो जुल्म के खिलाफ बोलते हैं, जो सरकार की हां में हां नहीं मिलाकर गलत बात पर आपत्ति दर्ज करते हैं। ‘नक्सल’ का मतलब है जुल्म का विरोध करने वाले लोग। मृतका की भाभी को सीबीआई द्वारा रिश्तेदारियों में घूम-घूम कर नंद का चरित्र हनन करने पर घोर आपत्ति है। कानूनी लिहाज से भी यह किसी महिला की गरिमा पर हमला है और गैर कानूनी है, लेकिन यह काम सीबीआई कानूनी तौर पर कर रही है, क्योंकि शायद उन्हें इसी एंगेल से सारे साक्ष्य जुटाने का आदेश दिया गया हो, या वह खुद भी पितृसत्ता के बजबजाते विचार की वाहक हो। इलाहाबाद में इस मसले पर बात करते हुए एक दोस्त ने सत्ता से दुखी होकर कहा था, “देखना इस मामले में सारे आरोपी बाइज्जत रिहा हो जाएंगे और उसके परिवार वालों को ऑनरकिलिंग का दोषी बना दिया जाएगा।”

4 नवंबर को मृतक लड़की के परिजनों से मिलकर यह बात मेरे दिमाग में घूम गई। क्या सचमुच यही होने वाला है? क्या सचमुच हाथरस मामले का हश्र भी बदायूं मामले की तरह हो जाएगा? अगर सचमुच ऐसा हुआ, तो यह औरतों के खिलाफ हिंसा को और बढ़ाएगा, क्योंकि बदायूं ने मनुवादी सत्ता और उसकी जांच एजेंसियों के सामने जो नजीर बना दी है, उसे हाथरस में तुरंत फॉलो किया गया, यहां तक कि इस लाइन पर चलते हुए जेल में बंद आरोपी की चिट्ठी स्थानीय विधायक उससे जेल में मिलकर निकाल लाए, जिससे ये साबित हो सके कि लड़की का आरोपी लड़के के साथ प्रेम प्रसंग था, इसलिए उसके ही परिजनों ने उसे मार डाला, लेकिन इस मामले में पुलिस कुछ भी कर डालने के घमंड में लड़की का जबरन संस्कार कर देने का ऐसा कुकृत्य कर डाला है कि उसका झूठ छिपाए नहीं छिप रहा है। वह आरोपियों को बचाने के लिए पूरी मेहनत कर चुकी है, बाकी काम शायद जांच एजेंसियां ही कर डालें। सीबीआई राज्य के बाहर की केंद्रीय जांच एजेंसी तो है, लेकिन केंद्र और राज्य दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकार है। एक को दूसरे के खिलाफ समझना मूर्खता ही है।

सरकारी पट्टे की जमीन पर बने घर में रहने वाले मृतका का परिवार भविष्य को लेकर आशंकित है। पिता कहते हैं, “दो बेटियां अपने ससुराल जा चुकी हैं, तीसरी के साथ ये सब हो गया। अब मेरे दोनों लड़कों पर खतरा है, सीआरपीएफ वाले कितने दिन यहां रहेंगे। वे (आरोपी परिवार) कभी भी उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं, इसलिए इन्हें (लड़कों को) यहां तो नहीं ही रहने देंगे, बाहर भेज देंगे।” लेकिन बाहर भेजने की बात करते समय वे फिर से डर जाते हैं, ‘‘वे काफी पहुंचे हुए हैं। कहीं भी कुछ भी कर सकते हैं।’’

यह परिवार यहां नहीं रहेगा, इसका संकेत अभी से मिलने भी लगा है। मृतका की मां ने बताया कि उनके पास पांच जानवर थे, जिनके माध्यम से वे डेरी पर दूध पहुंचाने का काम करते थे। दो-तीन दिन पहले ही उन्होंने तीन जानवरों को बेच दिया। उनका पलायन गांव के दबंग ठाकुर परिवार के लिए फायदेमंद ही होगा। उनके घर के पिछवाड़े ही यह वाल्मीकि परिवार बसा है। उन्हें इनसे मुक्ति मिल जाएगी। वह जमीन भी उनके इस्तेमाल में आ जाएगी। जब दलित लड़की पर इस तरह का हमला होता है, तो उसमें ऐसे अनेक ‘छिपे हुए इरादे’ भी काम करते हैं, जिसे जांच का विषय वही बना  सकता है, जो समाज की इस सामंती पितृसत्तात्मक संरचना को समझता भी हो उसके खिलाफ भी हो। सरकार या उसकी एजेंसियों से हम ऐसी उम्मीद नहीं कर सकते हैं।

मृतक की भाभी और उसकी बहन ने एक तथ्य यह भी बताया कि सीबीआई के एक अधिकारी ने मृतका के भाई के थाने जाने के पहले भीगा पजामा बदलने के संदर्भ में टिप्पणी की कि ‘‘मैं जमींदार परिवार का हूं। कई बार खेत में पानी लगाया हूं। मेरा कपड़ा तो नहीं भीगता। तुम्हारा क्यों भीगा?’’ इन सवालों से परिजनों का जांच पर आशंकित होना लाज़िमी है। परिजनों से प्राप्त अनुभव तो यही बता रहे हैं कि  इस मामले की सच्चाई जो कि बाहर आ चुकी है, उस पर ये एजेंसियां परदा डालने के काम में लगी हुई हैं। भविष्य में ऊंट किस करवट बैठेगा, ये देखना अभी बाकी है।

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और पीयूसीएल से जुड़ी हैं। वह इलाहाबाद में रहती हैं।)

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