यदि यूपीए-2 सरकार शुरू से ही भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोपों में न घिरी रही होती और टूजी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले, आदर्श सोसाइटी घोटाला, कोयला खदानों की बंदरबांट और रेलवे में घूसखोरी जैसे कई अहम मामलों में जनहित याचिकाएं न दाखिल की गयी होतीं और उच्चतम न्यायालय इनका संज्ञान नहीं लिया होता तो वर्ष 2014 में यूपीए-2 की सरकार सत्ता से बाहर नहीं होती। और फिर नरेंद्र दामोदर दास मोदी के नेतृत्व में भाजपा नीत नई सरकार भी नहीं बनी होती, सॉलीसिटर जनरल तुषार मेहता जी!
आज देश की आर्थिक दुर्व्यवस्था, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, लोकतान्त्रिक मूल्यों का ह्रास, पूंजीपरस्ती और देश के संसाधनों की बेशर्म बिक्री से लोगों को लग रहा है कि इससे तो अच्छी यूपीए-1 और यूपीए-2 की सरकार थी। लेकिन कैग की भ्रामक रिपोर्टों और उसके आधार पर दोषियों के खिलाफ न्यायिक हस्तक्षेप के लिए दाखिल जनहित याचिकाओं ने ऐसा माहौल बनाया जिसके परिणामस्वरूप यूपीए सत्ता से बाहर हो गयी। यह बात अलग है कि अदालत की सुनवाई में कैग की रिपोर्ट की हवा निकल गयी और अधिकांश मामले फुस्स साबित हो गये।
अब सालीसिटर जनरल तुषार मेहता को पता है या नहीं अभी पिछले दिनों मोदी सरकार के अटॉर्नी जनरल केके वेणु गोपाल ने आरएसएस से संबद्ध वकीलों की संस्था अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद् की तरफ से आयोजित प्रोफेसर एनआर माधव मेनन स्मारक व्याख्यान में जनहित याचिकाओं के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा था कि आधुनिक लोकतंत्र के इतिहास में उच्चतम न्यायालय की न्यायिक सक्रियता अभूतपूर्व है, जो जनहित याचिका की शुरुआत के कारण है। इसने व्यवहारिक रूप से समाज के गरीबों, वंचितों और अशिक्षित तबके का आंसू पोंछने का प्रयास किया है।
वेणुगोपाल ने कहा कि आपातकाल के बाद उच्चतम न्यायालय ने न्यायिक सक्रियता का नया युग देखा और जनहित याचिका नाम की नयी पहल शुरू होने के बाद न्यायिक समीक्षा के माध्यम से न्यायिक सक्रियता आधुनिक लोकतंत्र के न्यायिक इतिहास में अतुलनीय है। हालांकि उन्होंने कहा कि यह सच है कि जनहित याचिकाओं से कई दुष्प्रचार जुड़े हुए हैं और इसलिए ऐसी कई जनहित याचिकाएं दायर की गईं जो दायर नहीं की जानी चाहिए थीं। पूर्व चीफ जस्टिस पीएन भगवती का हवाला देते हुए वेणु गोपाल ने कहा कि न्यायिक सक्रियता’ उच्चतम न्यायालय को दुनिया का सबसे शक्तिशाली उच्चतम न्यायालय बनाता है क्योंकि इसका हर फैसला दो अन्य शाखाओं, कार्यपालिका और विधायिका, पर बाध्यकारी है और यह उनके कार्यों एवं उनके कानूनों को खारिज कर सकता है।
देश भर में फंसे प्रवासियों की पीड़ा को ध्यान में रखते हुए उच्चतम न्यायालय के जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एसके कौल और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने लॉकडाउन के दौरान प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए दायर जनहित याचिकाओं और प्रवासी श्रमिकों के दुख और समस्याओं से संबंधित स्वत: संज्ञान लेकर मामले की सुनवाई कर रहे थे तो सॉलीसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता ने जनहित याचिकाओं को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणियाँ की थीं। जनहित याचिकाओं को लेकर उच्चतम न्यायालय में सालीसिटर जनरल तुषार मेहता की टिप्पणियां न्यायिक मर्यादाओं की सीमारेखा का लगातार उल्लंघन कर रही हैं और जिस भी जज की बेंच रही हो किसी ने कभी उन्हें उन मर्यादाओं में रहने के लिए नहीं कहा। अटॉर्नी जनरल एक संवैधानिक पद है जबकि सालीसिटर जनरल का पद संवैधानिक नहीं है बल्कि एक सरकारी वकील का पद है जो वह अदालत में सरकार की ओर से पेश होता है।
जनहित याचिकाओं (पीआईएल) पर जब भी मोदी सरकार की जवाबदेही का सवाल उच्चतम न्यायालय में उठता है तब सालीसिटर जनरल तुषार मेहता भड़क जाते हैं और कभी पीआईएल करने वालों को आर्म चेयर बुद्धिजीवियों की संज्ञा देने लगते हैं तो कभी यह कह कर उच्च न्यायालयों की आलोचना करने लगते हैं कि वे एक समानांतर सरकार चला रहे हैं। तुषार मेहता ने भरी अदालत में यहाँ तक तल्खी प्रगट की है कि कुछ लोग एसी कमरों में बैठकर जनहित याचिकाएं लगा रहे हैं और पेशेवर जनहित याचिकाओं की दुकानें बंद हों।
जनहित याचिका के साथ भारतीय न्यायिक व्यवस्था में उत्तरदायित्व की शुरुआत करने का श्रेय जस्टिस पीएन भगवती को जाता है। उन्होंने आदेश दिया था कि मूल अधिकारों के मामले में अदालत का दरवाज़ा खटखटाने के लिए किसी व्यक्ति का उस मामले में सुने जाने का अधिकार होना ज़रूरी नहीं है। उन्होंने अपने एक अहम फ़ैसले में कहा था कि क़ैदियों के भी मानवाधिकार हैं।1978 में उन्होंने मेनका गांधी पासपोर्ट मामले में अहम फ़ैसला देते हुए जीवन के अधिकार की व्याख्या की थी और आदेश दिया था कि किसी व्यक्ति के आवागमन पर रोक नहीं लगाई जा सकती है। उन्होंने आदेश दिया था कि एक व्यक्ति के पास पासपोर्ट रखने का अधिकार है।
गौरतलब है कि पिछले दो-तीन दशकों में विधायिका और कार्यपालिका की निष्क्रियता के चलते जनहित याचिका से ही आम आदमी और विशेषकर दलित, आदिवासी, महिलाओं को थोड़ी बहुत राहत मिली है। आज जब उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता पर उसके ही अपने ही चार वरिष्ठतम जज सवाल उठा चुके हैं, न्यायिक सक्रियता के बजाय न्यायिक निष्क्रियता का दौर चल रहा है, संसद में कोई काम नहीं हो रहा है, लेकिन बलात्कारियों को बचाने के लिए सरकार और सत्ताधारी पार्टी के नेतागण सरेआम सड़क पर आ रहे हैं, चुनाव आयोग से लेकर आरबीआई की स्वतंत्रता खतरे में है ऐसे में जनहित याचिकाओं की प्रासंगिकता और बढ़ गयी है।
जनहितयाचिका के इतर दलित, आदिवासी, महिलाओं, बच्चों और आम जनता के लिए सुप्रीम कोर्ट दूर के ढोल भर हैं। इतना ही नहीं, फर्जी मुठभेड़ से लेकर सारे चुनाव सुधार जनहित याचिकाओं के जरिए ही हुए हैं। हम जैसे अनेक जनसंगठनों और कार्यकर्ताओं के लिए जनहित याचिका लोकतंत्र में सांस लेने की जगह पाने और लोगों का विश्वास बनाए रखने का एक साधन है।जनहित याचिका के माध्यम से न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक देते रहना न तो संविधान में प्रतिबंधित है और न ही न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत के खिलाफ है।
वर्तमान समय में भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 का व्यापकता उच्चतम न्यायालय की क्रियाशीलता को प्रदर्शित करता है। न्यायिक सक्रियता का आधार अनु0 21, न्यायिक पुर्नावलोकन अनु0 13-(1), अनु0 13 (2), अनु0 32 तथा 142 है। इसका जन्म इसी के आधार पर हुआ तथा इसी का अति विकसित रूप ही न्यायिक अति सक्रियता है। पर आज तो देश राष्ट्रवादी मो में है जिसने न्यायिक निष्क्रियता को बढ़ावा दिया है। पर पिछले ढाई महीने के लॉकडाउन में उच्चतम न्यायालय में प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा पर दाखिल एक के बाद एक जनहित याचिकाओं ने अंततः उच्चतम न्यायालय को स्वत:संज्ञान लेकर सुनवाई के लिए विवश किया। यह इसकी सफलता और प्रासंगिकता का परिचायक है।
(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह कानूनी मामलों के जानकार हैं।)