Saturday, April 20, 2024

भारत स्वतंत्र देशों की सूची से ही बाहर हो गया

पिछले कुछ वर्षों से भारत के लिए गर्व करने वाले विषयों का अकाल सा पड़ा हुआ है और गरीबी, भूख, प्रेस स्वतंत्रता, मानव विकास सूचकांक आदि सभी रिपोर्टों में देश की स्थिति निरंतर दयनीय होती जा रही है। लेकिन अब ‘स्वतंत्र देशों की सूची से भी बाहर हो जाना हमारे देश के लिए काफी बड़ा झटका है। प्रसिद्ध अमरीकी संस्था ‘फ्रीडम हाउस’ ने अपनी सालाना रिपोर्ट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर “कठोर लॉकडाउन” लगाकर “भारत को तानाशाही की ओर ले जाने”, मुसलमानों को बलि का बकरा बनाने, राजद्रोह के कानून का गलत इस्तेमाल करने और अपने आलोचकों पर हमले करने का आरोप लगाते हुए भारत को ‘स्वतंत्र’ देशों की श्रेणी से हटाकर केवल ‘आंशिक स्वतंत्र’ देशों की श्रेणी में डाल दिया है।

रिपोर्ट बताती है कि मोदी सरकार के दौरान मानवाधिकार संगठनों को निरंतर दबाव के तहत काम करना पड़ रहा है, अकादमीशियनों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को धमकाया जा रहा है और खास कर के मुसलमानों के खिलाफ धर्मांध और कट्टरतापूर्ण हमलों की झड़ी लग गई है जिनमें लिंचिंग भी शामिल है। ‘फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2021’ नाम की यह रिपोर्ट बताती है कि “मोदी के नेतृत्व में भारत एक वैश्विक लोकतांत्रिक मार्गदर्शक की अपनी भूमिका का परित्याग कर चुका है तथा समावेशी लोकतंत्र और सबके लिए समान अधिकार वाले अपने आधारभूत मूल्यों की जगह संकीर्ण हिंदू राष्ट्रवादी हितों को बढ़ावा दे रहा है।” रिपोर्ट में फरवरी 2020 के दिल्ली दंगों तथा बाबरी मस्जिद को गिराये जाने के मामले से सितंबर 2020 में 32 अभियुक्तों को बरी किए जाने का भी जिक्र है।

राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं की स्थिति के आधार पर भारत को पिछले साल के 71 अंकों की बजाय इस साल मात्र 67 अंक मिले हैं। इसी वजह से भारत का स्थान नीचे खिसक कर ‘आंशिक स्वतंत्र’ वाली श्रेणी में चला गया है। 67 अंक ने भारत को इक्वाडोर तथा डोमिनिकन रिपब्लिक जैसे देशों के समकक्ष खड़ा कर दिया है। भारत पिछले साल 211 देशों की सूची में 83वें स्थान पर था लेकिन इस गिरावट के कारण अब 88वें स्थान पर पहुंच गया है। पिछला पूरा साल सोशल मीडिया पर तमाम तरह के प्रतिबंधों का साल रहा और साथ ही कश्मीर में तथा किसान आंदोलन के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर इंटरनेट बंद किए जाने की वजह से भारत को मिलने वाला इंटरनेट स्वतंत्रता का प्राप्तांक गिर कर 51 रह गया। रिपोर्ट बताती है कि इंटरनेट शटडाउन करने, सरकार द्वारा नापसंद सामग्री को ब्लॉक करने, राजनेताओं द्वारा गलत और भ्रामक सूचनाओं को फैलाने तथा ऑनलाइन उत्पीड़नों की वजह से भारत की इंटरनेट स्वतंत्रता में नाटकीय रूप से लगातार तीसरे साल गिरावट आई है।

स्वतंत्रता के इस सूचकांक में फिनलैंड, नार्वे और स्वीडन सर्वोच्च 100 अंकों के साथ पहले स्थान पर हैं, जबकि तिब्बत और सीरिया न्यूनतम 1 अंक के साथ सबसे निचली पायदान पर हैं। यह रिपोर्ट एक साल के दौरान किसी देश में अलग-अलग तरह के 25 संकेतकों में हुए सकारात्मक या नकारात्मक परिवर्तनों के आधार पर तैयार की जाती है। भारत की स्थिति कमजोर करने वाले बिंदुओं में से एक था कि “क्या राज्य द्वारा निगरानी किए जाने या दंडित किए जाने के भय के बिना व्यक्ति राजनीतिक तथा अन्य संवेदनशील मुद्दों पर अपनी राय जाहिर करने के लिए स्वतंत्र हैं?” रिपोर्ट बताती है कि पिछले दिनों भेदभाव पूर्ण नागरिकता कानून तथा कोविड के प्रति सरकारी नीतियों की आलोचना को दबाने के लिए सरकार द्वारा राजद्रोह कानून तथा अन्य दमनकारी कानूनों के इस्तेमाल द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाई गई लगाम के कारण भारत को इस मामले में कम अंक मिले।

एक बिंदु, जिसने भारत की स्थिति को कमजोर किया, यह था कि “गैर सरकारी संगठनों, खास कर के ऐसे संगठन जो मानवाधिकार तथा सरकार से संबंधित माध्यमों में लगे हैं, उनके लिए कामकाज की स्वतंत्रता है?” इस मामले में सरकार द्वारा विदेशी अनुदान विनियामक कानून में संशोधन करके गैर सरकारी संगठनों की बांह मरोड़ने तथा एमनेस्टी इंटरनेशनल की परिसंपत्तियों को जब्त कर लेने और उसे भारत में अपने सभी कामों को बंद कर देने के लिए मजबूर कर देने के कारण भारत के प्राप्तांक कम हो गए।

एक बिंदु है कि “क्या स्वतंत्र न्यायपालिका मौजूद है?” इस मामले में पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के राज्यसभा के लिए मनोनयन, “जो कि न्यायाधीशों के लिए सरकार के पक्ष में ज्यादा फैसलों को प्रोत्साहित करने वाला रुख तैयार करेगा” तथा “सरकार के राजनीतिक स्वार्थों के खिलाफ बहुचर्चित फैसला देने वाले न्यायाधीश का तुरंत स्थानांतरण कर देने” की घटनाओं के कारण इस सवाल पर भी भारत के प्राप्तांक गिर गए।

एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु है कि “कहीं भी आने-जाने, जिसमें अपने आवास, रोजगार और शिक्षा प्राप्त करने का स्थान बदलने की स्वतंत्रता भी शामिल है, क्या ऐसी स्वतंत्रता व्यक्तियों को उपलब्ध है?” इस सवाल पर महामारी के दौरान प्रवासी संकट तथा उस दौरान पुलिस और नागरिक निगरानी समूहों द्वारा हिंसक तथा भेदभाव पूर्ण व्यवहार के कारण भारत के प्राप्तांक कम हो गए।

इस सूची में भारतीय कश्मीर की स्थिति अलग से दिखाई जाती है। इसके अंक पिछले साल के 28 अंकों से गिर कर 27 अंक हो गए और ऐसा पहली बार हुआ है जब लगातार दो साल इसे ‘स्वतंत्र नहीं’ वाली श्रेणी में रखा गया है। 2013 से 2019 तक भारतीय कश्मीर को ‘आंशिक स्वतंत्र’ वाली श्रेणी मिलती रही थी। कुछ खास परिस्थितियों में विवादित इलाकों का पहले से ही अलग से मूल्यांकन होता रहा है।

रिपोर्ट में बताया गया कि “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हिंदू राष्ट्रवादी सरकार तथा राज्यों में उनकी गठबंधन सरकारें ” मुसलमानों को निशाना बनाने वाली हिंसात्मक और भेदभाव पूर्ण नीतियों को अपनाती रही हैं और मीडिया, अकादमीशियनों, सिविल सोसाइटी समूहों और प्रदर्शनकारियों द्वारा किसी भी तरह के असंतोष की अभिव्यक्ति तथा आलोचना के खिलाफ कठोर कार्रवाइयां करती रही हैं” और इसके साथ ही सरकार ने कोविड-19 के दौरान काफी अविवेकपूर्ण तरीके से कठोर लॉकडाउन लगाया गया जिसका परिणाम यह हुआ कि लाखों की संख्या में आंतरिक प्रवासी मजदूरों को खतरनाक और अनियोजित तरीके से विस्थापित होना पड़ा।” इसी तरह से इस वाइरस को फैलाने का सारा दोष अकारण ही मुसलमानों पर मढ़ दिया गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि निगरानी करने वाली भीड़ें मुसलमानों पर हमले करने लगीं।

रिपोर्ट बताती है कि राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं की स्थिति तो 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही कमजोर होने लगी थी, लेकिन 2019 में उनके दुबारा चुने जाने के बाद तो यह हालत और तेजी से खराब होने लगी है। रिपोर्ट कहती है कि “पिछले साल भेदभाव पूर्ण नागरिकता संशोधन कानून की खिलाफत कर रहे प्रदर्शनकारियों पर काफी तीखे सरकारी हमले किए गए और इसी तरह कोविड महामारी के प्रति सरकारी रुख की आलोचना करने वाले दर्जनों पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया।”

रिपोर्ट में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को भी कमजोर किए जाने का जिक्र है और इस बात की ओर इशारा किया गया है कि दिल्ली के दंगों के दौरान, जिसमें 50 से ज्यादा लोग मारे गए, पुलिस की निष्क्रियता के कारण उसकी आलोचना करने वाले न्यायाधीश को तत्काल स्थानांतरित कर दिया गया। उत्तर प्रदेश में अंतर्धार्मिक विवाह में जबरन धर्मपरिवर्तन पर बनाए गए कानून पर भी रिपोर्ट में चिंता जताई गई है।

रिपोर्ट कहती है कि “चीन जैसे देशों की तानाशाही प्रवृत्तियों के खिलाफ एक ताकत बनने और लोकतांत्रिक प्रथाओं की तरफदारी करने की बजाय यह काफी दुखद बात है कि मोदी अपनी पार्टी सहित खुद ही तानाशाही के रास्ते पर चल रहे हैं। फ्रीडम हाउस 1941 से ही दुनिया भर के देशों में लोकतंत्र की स्थिति पर निगाह रखती रही है।

रिपोर्ट पिछले 15 वर्षों के दौरान विश्व में लोकतंत्र की कमजोर हुई स्थिति के बारे में बताते हुए कहती है कि विश्व की 75 प्रतिशत आबादी ऐसे देशों में रहती है जहां पिछले वर्ष के दौरान लोकतंत्र कमजोर पड़ा है। 1995 के बाद यह पहली बार हुआ है जब दुनिया की मात्र 20 प्रतिशत आबादी अपने देश में स्वतंत्रता का अनुभव कर पा रही है। लेकिन अब तक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के तमगे से नवाजे जा रहे भारत के लिए ‘स्वतंत्र’ देशों वाली श्रेणी से ‘आंशिक स्वतंत्र’ देशों की श्रेणी में हुआ यह पतन सभी देशप्रेमियों के लिए अफसोस और शर्म का विषय है और इसके गुनहगारों की शिनाख्त होनी ही चाहिए।

(एस. चार्वाक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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