पिता महावीर नरवाल की मृत्यु और बेटी नताशा की जेल बंदी एक मानवीय शर्म है। नताशा नरवाल के पिता महावीर नरवाल का जाना सिर्फ एक कोविड के कारण सामान्य मृत्यु नहीं है, बल्कि ये बेनकाब करता है कि सरकारें क्रूर से क्रूरतम और जनता मूर्ख से मूर्खतम होती जा रही है। कल खबर पढ़ी थी कि नताशा नरवाल के पिता महावीर नरवाल कोविड से संक्रमित हैं और आईसीयू में हैं। उनकी हालत गंभीर है और ऐसे वक्त में उनकी बेटी को जेल से रिहा करने की अपील सरकार से की जा रही थी। आज खबर आई की महावीर नरवाल नहीं रहे।
राजनीतिक कैदी इस दुनिया की एक हकीकत रहे हैं। सरकारें जब-जब बेलगाम होने की कोशिश करती हैं, चंद लोग होते हैं जो इन बिगड़ैल घोड़ों को लगाम डालने की कोशिश करते हैं। यही लोग जनता के लिए कवच काम करते हैं, क्योंकि अंतत: बेलगाम सरकारों के जुल्म के भोगी यही आम जनता होती है जो आसन्न खतरे को भांप नहीं पाती। राजनीतिक कैदियों को गिरफ्तार और रिहा होने के एक सामान्य क्रम से गुजरते रहना पड़ता है, लेकिन आज के भारत के लोकतंत्र की हालत न सिर्फ क्रूर वरन् संवेदनहीन व्यवस्था के ऐसे चरम पर पर जा चुकी हैं, जहां मानवता के मूल्य अर्थहीन हो चुके हैं।
धर्म और राजनीति के कॉकटेल के भरोसे एक नरभक्षी व्यवस्था को हम पर ऐसा थोप दिया गया है कि हम गलत होते हुए देखने को अपनी नियति मान चुके हैं। यह सार्वजनिक शर्म का विषय है कि एक मरते हुए आदमी को अपनी इकलौती बेटी को देखना तक नसीब नहीं होता, और हम उसी लोकतांत्रिक समाज का हिस्सा हैं जो अपना नंबर आने तक प्रतीक्षा करते हैं, लाशों पर हँसते हैं, लेकिन सवाल करने की हिम्मत नहीं उठाते। यह तय है कि कल हम भी तानाशाहों द्वारा किसी राजद्रोह में उठा लिए जाएंगे और परसों आप भी। यह हकीकत है। आंखें खोलेंगे तो साफ दिखाई देगा, लेकिन अगर आप अपना जमीर बेच चुके हैं, आत्मा को गिरवी रख चुके हैं तो ऐसी जिंदा लाशों से कोई उम्मीद रखना बेमानी होगा।
नताशा नरवाल एक्टिविस्ट हैं और पिंजरा तोड़ कैंपेन की संस्थापक सदस्य भी, जो मानवाधिकारों और महिला अधिकारों को लेकर काम कर रहीं थीं। पिछले साल नागरिकता बिल के विरोध में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तब से उन्हें जेल में रखा गया है। एक लोकतंत्र में राजनीतिक कैदियों को इस प्रकार बंधक बना कर जेल में डाल देना और फिर उनकी रिहाई के सारे रास्ते बंद कर देना दुर्भाग्यपूर्ण है। आखिर हम इसे लोकतंत्र कहते ही क्यों हैं? यह लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा से ही कोसों दूर है। क्या इस देश में न्यायपालिका जैसी कोई चीज बची है? मुझे तो दिखाई नहीं देती। मीडिया तो आप जानते ही हैं। सरकार ने बीते वर्षों में देश को संसाधन नहीं दिए हैं, बल्कि अपनी तारीफ के लिए भोंपू पैदा किए हैं जो बस उसके इशारों पर बजते हैं, उसके इशारों पर बंद होते हैं।
यह देश न्याय व्यस्था के सबसे बुरे दौर में है, राजनीतिक मूल्य और सिद्धांत बोरे में बांध कर संसद के नालों में बहा दिए गए हैं। आइए मातम मनाएं, एक जीवित देश की शनैः शनैः आत्महत्या का या फिर एक सुनियोजित हत्या का। धर्म और राजनीति का धीमा जहर अपना काम कर चुका है। अब सिर्फ मातम मनाना ही नियति है।।
- सत्यपाल सिंह