Friday, March 29, 2024

बिहार नतीजों को चूक नहीं, विपक्ष की उपलब्धि की नज़र से देखा जाना चाहिए: कविता कृष्णन

(कविता कृष्णन राष्ट्रीय स्तर पर एक जाना पहचाना नाम है। पिछले दिनों तमाम आंदोलनों से जो कुछ चेहरे सामने आए हैं उनमें कविता कृष्णन का स्थान प्रमुख है। सिविल सोसाइटी के आंदोलनों में सक्रिय दखल रखने वाली कविता वामपंथी पार्टी सीपीआई (एमएल) से जुड़ी हैं। वह उसकी पोलित ब्यूरो सदस्य हैं। इसके अलावा कविता माले के महिला संगठन ऐपवा की राष्ट्रीय सचिव भी हैं। कविता कृष्णन पूरे चुनाव के दौरान बिहार में मौजूद थीं। उन्होंने न केवल चुनाव प्रचार में हिस्सा लिया बल्कि महागठबंधन की तमाम बैठकों और फैसलों में माले के प्रतिनिधि के तौर पर उनकी हिस्सेदारी रही। इस कड़ी में वह माले महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य के साथ महागठबंधन के प्रमुख रणनीतिकार के तौर पर उभरी हैं। अभी जब कि वह बिहार से दिल्ली आ गयी हैं तो हमारे विशेष संवाददाता सुशील मानव ने उनसे तमाम सवालों पर विस्तार से बातचीत की। पेश है उनसे बातचीत का प्रमुख अंश-संपादक)

प्रश्न- कविता जी, भाकपा माले की सीटों की बढ़ोत्तरी के लिए आप को बधाई। बातचीत की शुरुआत चुनाव से पहले से करते हैं। आप जब दिल्ली से पटना गयीं चुनाव प्रचार करने तो उस समय आपकी नजर में चुनाव की क्या तस्वीर थी?
कविता कृष्णन- 10 अक्तूबर को मैं पटना आई। उस वक़्त सीएसडीएस का जो प्रिपोल सर्वे था वो थोड़ा बहुत भरोसेमंद पिक्चर देता है तो उसमें बहुत साफ था कि एनडीए का बहुमत आएगा। नीतीश के खिलाफ़ गुस्सा है ये तो सब कह रहे थे, लेकिन नतीजा एनडीए के पक्ष में होगा, क्योंकि उसकी बनावट ऐसी थी ऐसा सारे विशेषज्ञ कह रहे थे। तो हम नतीजों को लेकर नहीं चल रहे थे। हमारी योजना थी कि लॉकडाउन का सवाल, रोजगार का सवाल, शिक्षा और स्वास्थ्य के सवालों को हमें केंद्र में लाना चाहिए। इसको लेकर हम लॉकडाउन के दौरान भी काम कर रहे थे।

गठबंधन बनने की प्रक्रिया में एक बात हमारे लिए और शायद राजद के लिए भी बिल्कुल स्पष्ट थी कि यदि लोकसभा सीटों का परिणाम देखें तो सिर्फ़ चार सीटें ही ऐसी थीं, जिनमें विपक्ष चार लाख मतों के आंकड़े को पार कर पाया, और ये चार सीटें वो थीं, जिन पर या तो माले ने राजद का, या फिर राजद ने माले का समर्थन किया था। तो ये सिग्नल स्पष्ट था कि ये एकता बेहद ज़रूरी है अगर हम एनडीए का मुकाबला करना चाहते हैं तो।

प्रश्न- जिस तरह का माहौल था, उसमें ऐसा लग रहा था कि महागठबंधन की सरकार बनेगी और फिर केंद्र में एनडीए के पराभव का रास्ता साफ हो जाएगा। इस तरह से बिहार एक बार फिर देश को ऐतिहासिक दिशा देने में सफल होगा, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। चूक कहां हुई?
कविता कृष्णन- इसे दूसरी नज़र से देखा जाना चाहिए। एक ऐसे चुनाव में जहां हर विश्लेषक को सिर्फ़ एनडीए की जीत का परिणाम दिख रहा था। वहां पर एक मजबूत विपक्ष बनाना। मजबूत चुनौती पेश करना और जीत के इतने नज़दीक आना ये अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसलिए इसे चूक की नज़र से नहीं उपलब्धि की नज़र से देखा जाना चाहिए। इस नज़र में करेक्शन की ज़रूरत है।

प्रश्न- जिस तरह का ज़मीनी माहौल था। प्रवासी मजदूर नाराज़ थे। छात्र और युवाओं में नाराज़गी थी। यहां तक कि आंगनबाड़ी से लेकर शिक्षक तक में सरकार के खिलाफ गुस्सा था। सड़कें, स्वास्थ्य और दूसरी सुविधाओं की मार के खिलाफ जगह-जगह लोगों की नाराजगी बिल्कुल साफ दिख रही थी। क्या आपको नहीं लगता कि विपक्ष इसको भुनाने में नाकाम रहा?
कविता कृष्णन- पहले चरण के चुनाव के पहले रोजगार और तमाम दूसरे ज़मीनी मुद्दों को लेकर एक जबर्दस्त बदलाव की लहर थी, लेकिन उस लहर में जो दिक्कत आई वो मुझे लगता है कि दो बातों में आई। दूसरे और तीसरे फेज के चुनाव में माले के जो मजबूत गढ़ वाली सीटें थीं वो कम हो गईं। ये जगह ऐसी नहीं थी, जहां पर भाकपा माले का अपना प्रेजेंस ज़्यादा है। दूसरा एनडीए ने अपने भीतर का जो बिखराव था, उसको थोड़ा स्ट्रीमलाइन कर लिया था। जैसे भाजपा का एलजेपी के प्रति वोट का ट्रांसफर ज़्यादा कंप्लीट तरीके से होने लगा। इस तरह की चीजें वो करने लगे। ये कंबिनेशन ऐसा था जिससे कठिनाई हुई।

ये 8-10 सीटों का मामला था, जो बहुत नजदीकी अंतर से हार गए। ये हार जीत में बदल सकती थी। यदि मैं माले की सीटों पर कहूं तो कुछ सीटों पर मतगणना मैनेजमेंट, जो चीजें प्रशासन के हाथों में होती हैं, उस पर थोड़ा ज्यादा कड़ी निगरानी हम कर सकते थे। सीटों का बंटवारा संख्या के बजाय जीत की योजना पर होता तो महागठबंधन के पक्ष में होता।

प्रश्न- जैसा कि नतीजे आए हैं। आम तौर पर महागठबंधन में सीटों की कमी के लिए कांग्रेस की बुरी स्थिति को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। क्या इस आकलन से आप सहमत हैं? क्या लेफ्ट को कुछ और सीटें मिलतीं तो बहुमत का आंकड़ा आसानी से मिल जाता? और वह कितनी सीटें होतीं?
कविता कृष्णन- लेफ्ट का जो प्रेजेंस है इस गठबंधन में वो थोड़ा और बेहतर किया जा सकता था। ये बात हम लोग शुरू से कह रहे थे। हमने 50 सीटों की लिस्ट दी थी, जिसमें 30 सीटें ऐसी थीं जिन पर भाकपा-माले अपने से जीतने के लिए लड़ सकती थी। कुछ सीटों पर सीपीआई, सीपीआईएम जीतने के लिए ज़्यादा अच्छे से लड़ सकती थीं और उनको भी दिया जा सकता था।

दूसरी बात मैं कांग्रेस की आलोचना के बजाय इस तरह से कहूंगी कि शायद ये कांग्रेस के लिए भी बेहतर होता कि वो ऐसी सीटों की लिस्ट पर कंसंस्ट्रेट करती, जैसा कि हम लोगों ने किया, जहां जिस सीट पर उनके पास जीत की एक योजना होती। पहले से तय होता कि वहां से आपके कैंडिडेट कौन होंगे, वहां का संतुलन कैसा है, इन सब चीजों को लेकर यदि आप 40-50 सीट फिक्स करते तो शायद उस पर आप ज़्यादा फोकस करके लड़ते। कुछ सीटों पर राजद भी बेहतर प्रदर्शन कर सकती थी अपनी सीटें बढ़ाकर। ये होता तो पूरे महागठबंधन के लिए बेहतर होता। सीटों का बंटवारा इस आधार पर करने कि कितनी सीटों पर हम लड़ेंगे, इसके बजाय इस पर होता कि कितनी सीटें हम जीत सकते हैं तो बेहतर होता।

प्रश्न- महागठबंधन में क्या ‘वीआईपी’, ‘हम’ और रालोसपा को न जोड़ना एक बड़ी चूक रही और यह काम वीआईपी के मुखिया मुकेश साहनी की उपमुख्यमंत्री बनाए जाने की शर्त को पूरा करने के साथ भी किया जा सकता था?
कविता कृष्णन- यहां मेरी राय कुछ अलग है। वीआईपी 11 सीटों पर लड़ी है और 4 सीटें जीती है। जो चार कैंडिडेट जीते हैं उनका प्रोफाइल देखिए वो वीआईपी के कैंडिडेट नहीं हैं। ये भाजपा के कैंडिडेट हैं जो वीआईपी के टिकट पर लड़े हैं और उनमें से दो तो ऐसे हैं जो कहीं से भी वीआईपी के स्वघोषित समाजिक आधार से नहीं हैं। तो यह वीआईपी के अपनी ताक़त के बारे में कतई नहीं बताता। भाजपा ने वीआईपी के ऊपर अपने प्रत्याशी थोपे हैं। इसलिए हम लोगों को विश्लेषण में भी थोड़ा गहरे में जाना होगा। मुझे लगता है जो गठबंधन बना वो कोई कमज़ोर गठबंधन नहीं था। वो विचार और राजनीति के स्तर पर मजबूत था और उसमें कोई इधर-उधर होने की संभावना नहीं थी।

प्रश्न- इस बात में कोई शक नहीं कि तेजस्वी यादव चेहरा बनकर उभरे, लेकिन देखा यह गया कि पूरे चुनाव प्रचार अभियान में वह अकेले लगे रहे। राहुल गांधी की कुछ सभाएं हुईं और सोनिया गांधी की एक भी नहीं। साथ ही किसी एक मंच पर महागठबंधन के सभी नेता कभी नहीं आए। क्या इसको कुछ दुरुस्त किया जाता तो वोटों में इजाफ़ा हो सकता था?
कविता कृष्णन- जहां ज़रूरत थी, वहां महागठबंधन के सारे नेता एक मंच पर आए। प्रेस कान्फ्रेंस में सब साथ आए। हम लोग अपनी ताक़त पर लगे रहे। जहां राजद के नेता की ज़रूरत होती वहां उन्हें बुलाया जाता और वो आते भी। जहां माले के नेता की ज़रूरत होती वहां वो जाते। तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री प्रत्याशी के तौर पर जितनी ज़्यादा सीटें टच कर सकते थे, उतनी उन्होंने कोशिश की। कांग्रेस के लीडर क्यों नहीं लगे। किस कैलकुलेशन से नहीं लगे। मैं नहीं जानती। ये मुझे थोड़ा अटपटा लगता है कि खुद कांग्रेस के लोगों को इसके बारे में जानकारी न रहे कि आपके लीडर क्यों नहीं आ रहे, किस योजना के तहत नहीं आ रहे, या आ रहे। प्लानिंग की कमी नज़र आई। आपकी सभाएं कम करने का कारण क्या है ये नहीं समझ आया। इसका बहुत अच्छा मेसेज नहीं गया है।

तेजस्वी की बिहार में सभा।

प्रश्न- सीमांचल जो सबसे मजबूत गढ़ माना जाता था, वह महागठबंधन के लिए सबसे कमजोर कड़ी साबित हुआ। क्या आप लोग ओवैसी के इस खतरे को नहीं पहचान सके? और अगर वह चुनाव से पहले समझौते के लिए आते तो उस पर माले का क्या रुख होता? बीएसपी, पप्पू यादव और चंद्र शेखर आजाद रावण के प्लेटफार्म ने भी क्या विपक्ष की संभावनाओं पर असर डाला?
कविता कृष्णन- कोई भी पार्टी हो, गठबंधन हो, उन्हें अपनी हार का ठीकरा किसी दूसरी पार्टी या गठबंधन पर नहीं फोड़ना चाहिए। आप लड़ते हैं और भी लोग लड़ेंगे, लोकतंत्र है। AIMIM के लीडर ओवैसी जी ने कहा कि हम गठबंधन में आना चाहते थे, मैं सारे लीडर्स के पास गया, लेकिन हमें ठुकरा दिया गया, लेकिन मैं स्पष्ट कहती हूं, वो महागठबंधन में शामिल होने के लिए आते तो बात होती। लेफ्ट के पास तो वो बिल्कुल भी नहीं आए।

वहीं अपनी चुनावी सभाओं में वो राजद, कांग्रेस और महागठबंधन के खिलाफ़ बोलते रहे, जबकि भाजपा के खिलाफ़ कम बोले। मुस्लिम लोगों के न्याय के सवाल पर राजद और कांग्रेस के बारे में जो आलोचना आप कर रहे हो वो आप लेफ्ट के बारे में तो नहीं कर सकते। माले नेता के तौर पर मैं कह सकती हूं कि हमारे लिए सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय और राजनीतिक न्याय ये तीनों हमारे लिए बराबर महत्व रखते हैं। बाकी जो पार्टियां ये कह रही हैं कि एआईएमआईएम वोटकटवा है, तो कहूंगी कि ये कहने या सोचने के बजाय कि वो वोटकटवा हैं आप ये सोचिए कि लोग उन्हें क्यों वोट दे रहे हैं, जिन सवालों को वो उठाते हैं उन सवालों को आप मजबूती से उठाइए।

कंपटीशन दीजिए उनको मजबूती से उठाने में और तब हो सकता है वोट आपकी तरफ आए। लेकिन हां चंद्रशेखर आज़ाद, पप्पू यादव और उनके उस गठबंधन से पूछा ज़रूर जाना चाहिए कि आप लोग क्यों लड़ रहे थे। मैं खासकर इसलिए भी कह रही हूं, क्योंकि चंद्रशेखर रावण की पार्टी का बिहार में लड़ने का क्या औचित्य था। इसी तरह पप्पू यादव ने चुनाव के दौरान पूछने पर कहा कि चुनाव बाद हमें भाजपा के साथ जाने या गठबंधन करने में कोई रुकावट नहीं होगी।

तो ये इस तरह से आपको उस गठबंधन के चरित्र के बारे में कुछ तो बताता है। जितनी बात एआईएमआईएम के बारे में हो रही है इससे थोड़ा ज़्यादा बात इन लोगों के बारे में होना चाहिए। इनके प्रत्याशियों के पास ख़ूब सारा पैसा आ रहा था। पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा था। कहां से आ रहा था वो पैसा। ये इनसे पूछा ज़रूर जाना चाहिए।

प्रश्न- मतगणना के दौरान आखिरी समय में चुनाव आयोग और प्रशासन के रवैये पर आप सभी ने सवाल खड़े किए थे और कुछ सीटों पर हेर-फेर के भी आरोप लगाए थे, लेकिन उसको लेकर महागठबंधन की तरफ से कोई आधिकारिक स्तर पर पहल नहीं हुई। क्या उस मामले को आप लोगों ने छोड़ दिया?
कविता कृष्णन- पहल हो रही है। पहल के लिए होमवर्क चाहिए और हम लोग होमवर्क कर रहे हैं। माले की तीन सीटों भोरे, आरा, दरौंदा पर कानूनी चैलेंज में जाएंगे। इसमें हमारे सारे प्रत्याशियों ने काउंटिंग हॉल की वीडियो फुटेज की मांग की है। इसकी कॉपी प्रत्याशी को मिलने का अधिकार है, लेकिन वो अभी तक प्रत्याशियों को नहीं मिली है। भोरे में जांच में हमें पता लगा कि आखिरी घंटों तक हम लीड कर रहे थे, उसके बाद तो घंटे तक काउंटिंग स्थगित की गई और आरओ को काउंटिंग हॉल से बाहर बुलाकर जदयू प्रत्याशी और आला प्रशासनिक अधिकारी मिले हैं।

दो घंटे तक काउंटिंग क्यों स्थगित की गई। ये भी सवाल उठता है। फिर काउंटिंग जब शुरू की गई तब उन्होंने दूसरे प्रत्याशी को जिता दिया। ये हमारे सवाल हैं, जिन्हें तैयारी के साथ उठाएंगे। मतगणना के दौरान आरओ को काउंटिंग हाल से बाहर जाकर प्रशासनिक अधिकारी से मिलने का अधिकार नहीं है। वो बाहर नहीं जा सकते, ये कानून के खिलाफ़ है। कोई भी संघर्ष या राजनीति ठहराव में नहीं आती।

प्रश्न- अब कुछ बातें माले को लेकर। आपको नहीं लगता कि पार्टी पहली बार मध्यमार्गी पार्टियों के साथ इस तरह के किसी गठबंधन में गई है, लिहाजा इसका असर पार्टी की कतारों पर पड़ेगा? जिनके खिलाफ अभी तक लड़ती थी अब उन्हीं की वकालत करनी पड़ रही है?
कविता कृष्णन- जिनके मन में ये सवाल है, मैं उनसे कहूंगी कि उन्हें माले की राजनीति और टैक्टिक को थोड़ा और बेहतर तरीके से समझने की ज़रूरत है। मध्यमार्गी पार्टी के साथ जाएंगे, नहीं जाएंगे ऐसा कोई नियम भाकपा-माले का नहीं रहा है। हमने हमेशा लेफ्ट-डेमोक्रेटिक एलायंस की बात की है। इसमें हमारे लिए कहीं कोई संकट नहीं रहा है। जब राजद सत्ता में थी हमने उनके साथ गठबंधन नहीं किया, क्योंकि तब इसकी ज़रूरत नहीं थी तो क्यों करते।

राजद का विरोध करते समय हमने हमेशा ही भाजपा का भी विरोध किया। 90 के दशक में जब बिहार में भाजपा का प्रेजेंस राजनीतिक तौर पर बहुत नहीं थी। तब भी हमने भाजपा-आरएसएस के बारे में, रणवीर सेना के पीछे कैसे भाजपा है इसके बारे में, बाबरी मस्जिद विध्वंस की आड़ में भाजपा कितना बड़ा ख़तरा है, इसके बारे में बिहार में भाकपा-माले हमेशा सक्रिय रही। राजद से किन्हीं मामलों में हमारा संघर्ष बहुत तीखा रहा, लेकिन इसके साथ-साथ कोई वैचारिक कन्फ्यूजन हमारे रैंक में कहीं नहीं रहा। सीवान का उदाहरण दूं, जहां संघर्ष सबसे तीखा रहा, वहां पर शहाबुद्दीन राजद के नेता थे और अगर सीपीआई-एमएल की कोई वैचारिक कमजोरी होती तो वहां लड़ाई का सांप्रदायिक रंग ले लेना बिल्कुल संभव था।

भाजपा की कोशिश शहाबुद्दीन के बहाने सांप्रदायिक माहौल बनाने की थी, पर हमने ऐसा होने नहीं दिया। हमारी वजह से भाजपा को पूरे सीवान रेंज में फायदा लेने में बहुत कठिनाई हुई। सीवान के बगल में गोरखपुर है। वहां से हिंदू युवा वाहिनी की बढ़त बिहार में होना शुरू हो गई। भाजपा की इस बढ़त को देख कर हमारे बिहार और सीवान के साथी वो भी समझ रहे थे कि ये बहुत बड़ा ख़तरा है। पुरानी चीजों के लिए हमारी न्याय की लड़ाई चलेगी वो भूलने की बात नहीं है, लेकिन कोई भी संघर्ष और राजनीति ठहराव में नहीं रहती। आप आज लड़ते हैं एक बेहतर कल के लिए।

प्रश्न- अपनी स्वतंत्र पहचान को बरकरार रखने की चुनौती आपके सामने और बड़ी हो गई है और अगर ज्यादा क्रूर तरीके से कहें तो कुछ लोग इसे माले को सीपीआई के रास्ते पर जाने के खतरे के तौर पर देख रहे हैं?
कविता कृष्णन- आज का खतरा भाजपा है, जो कल बहुत बड़ा ख़तरा बन सकता है। इससे लड़ने की ज़रूरत के तौर पर राजद के साथ बहुत स्वाभाविक तौर पर गठबंधन हुआ और हम अपनी ताक़त को मेंटेन रखते हुए शामिल हुए। शुरुआत में माले को 8 सीटों की पेशकश की गई थी, हमने ठुकरा दिया। हमने कहा कि हम ऐसा गठबंधन चाहते हैं, जहां वामपंथ भी मजबूत स्थिति में रहे तभी तो महागठबंधन मजबूत स्थिति में होगा।

बिहार चुनाव का पोस्टर।

सीपीआई की जो बात आपने की तो वो तब गठबंधन में गए जब राजद सत्ता में थी और जिसे निर्भरता कहते हैं वो निर्भरता बनी। निर्भरता में हुआ ये कि सीपीआई का जनाधार लगातार खिसकता गया राजद की तरफ और उसका अपना जनाधार सीमित हो गया। पहचान भी कमजोर होती गई। माले के साथ ऐसा कोई संकट नहीं है। जो हमारी पहचान है उसकी ताक़त के साथ बराबरी का गठबंधन किया। वो गठबंधन हम विपक्ष के तौर पर चलाएंगे। हमारी आंदोलन की ताक़त है उसे जब तक हम केंद्र में रखेंगे तब तक कोई कमजोरी हमारी छवि को लेकर या पहचान को लेकर कोई संकट नहीं होगा।

प्रश्न- अब जबकि नीतीश के नेतृत्व में सरकार का गठन हो गया है और जिस तरह का अविश्वास एनडीए खेमे में है क्या आपको लगता है कि सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर पाएगी?
कविता कृष्णन- सरकार कार्यकाल पूरा कर पाएगी या नहीं कर पाएगी अभी कहना कठिन है। वो उनके अंदर का मामला है कई सारी चीजों पर यह डिपेंड करेगा। ये भाजपा की बढ़ी हुई ताक़त वाली एनडीए है, जहां पर नीतीश का अपना कद कम और कमजोर हो गया है। उसका असर तुरंत शुरू हो गया है। जमुआ, वैशाली में जातिवादी, सांप्रदायिक हमले, पितृसत्तात्मक हमले अभी से ही दिखने शुरू हो गए हैं। इन सबका मुकाबला हमें करना होगा।

प्रश्न- और अगर बीच में कभी एनडीए के कुछ घटकों की तरफ से महागठबंधन के साथ मिल कर सरकार गठन का प्रस्ताव मिलता है तो क्या महागठबंधन उसके लिए तैयार होगा?
कविता कृष्णन- ऐसा किन हालातों में होता है, इन चीजों की एक समझदारी रखते हुए एक दिशा में सोचना चाहिए। ये चीजें हवा में नहीं सोची जा सकती हैं। कोई राजनीतिक परिघटना किस संदर्भ में होती है उसे देखते हुए इसे देखा जाना चाहिए। एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि किसी अमित शाही रवैये से तो बिल्कुल परे रहना चाहिए महागठबंधन को। अमित शाह के पास इलेक्टोरल बांड का जो अपार फंड है, जो इसी चीज के लिए रखा ही गया है कि सरकारों को तोड़ें और खरीदें, वगैरह ये सारी चीजें न हमारी योजना है और न ही ये होना चाहिए। विपक्ष होना इस समय एक बहुत बड़ा और बहुत ज़रूरी काम है देश के लोकतंत्र के लिए। तो हम सभी विपक्षी दलों को अपनी जनता को समर्थकों को समझाना चाहिए कि सरकार नहीं बनी तो क्या हुआ विपक्ष तो बना, विपक्ष का काम करिए मजबूती से।       

प्रश्न- अब आप लोगों की रणनीति क्या होगी? आप किन एजेंडों पर सरकार की घेरेबंदी करेंगे?
कविता कृष्णन- स्थायी रोजगार, सरकारी नौकरी के सवाल, समान काम के लिए समान वेतन, अलग-अलग क्षेत्रों और तबकों के मजदूरों के अधिकार के सवाल, नागरिक अधिकारों के सवाल, स्वास्थ्य और शिक्षा के सवाल, ये सारे सवालों पर हम सरकार को घेरकर लड़ेंगे। बिहार की जनता का ये अधिकार है कि वह लड़े और सरकार से जवाब मांगे। निजीकरण का विरोध करके हम राज्य और केंद्र दोनों को घेरेंगे। 25 सूत्रीय जो महागठबंधन का कार्यकम बना था, उस कार्यक्रम पर हम लड़ाई को तेज करेंगे। हम पूरी उम्मीद से पॉजिटिव तरीके से चीजों को आगे बढ़ाएंगे। इस असेंबली का महत्पूर्ण फीचर ये रहेगा कि ये ज़्यादा मजबूत विपक्ष है, जिसमें वामपंथ मजबूत है। ऐसे विपक्ष से पूरे देश को सीखने का मौका, ऊर्जा और मोटिवेशन मिले हम ऐसा विपक्ष होना चाहेंगे। सरकार को कठघरे में खड़ा कर उन्हें जवाबदेह बनाएंगे।

प्रश्न- अभी पोलित ब्यूरो और सेंट्रल कमेटी की बैठक हुई है। इसमें क्या एजेंडा था और क्या कुछ खास फैसला हुआ? 
कविता कृष्णन- बिहार के संदर्भ में मजबूत विपक्ष की भूमिका की तैयारी पर चर्चा हुई। बिहार के बाद पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाड़ु, इन जगहों पर विधानसभा चुनाव में हमारी कैसी तैयारी हो सकती है, कैसी हम योजना बना सकते हैं, इसका एक शुरुआती खाका हमने बैठक में बनाया। इन चुनावों में वामपंथ एक एजेंडा सेट करने उतरे। ये समय है जब चुनावों में एजेंडा हम तय कर सकते हैं। उस तरह के एजेंडे को सेट करने के लिए जिस तरह के आंदोलन को केंद्रीकरण करने के लिए फोकस करना चाहिए। इस पर हमने बैठक में फोकस किया है।

प्रतीकात्मक फोटो।

प्रश्न- दीपंकर भट्टाचार्य के बंगाल संबंधी बयान पर बंगाल में बवंडर मच गया है। टीएमसी ने तो स्वागत किया है, लेकिन सीपीएम ने कड़ा प्रतिरोध जाहिर किया है और उसके कुछ नेताओं ने तो बंगाल के बारे में दीपंकर की समझ पर ही अंगुली उठा दी है। इसका क्या लेफ्ट के साथ गठबंधन पर असर पड़ेगा?
कविता कृष्णन- दीपंकर जी ने ये कहा कि भाजपा हमारी मुख्य दुश्मन है, इसमें किसी वामपंथी नेता को क्या आपत्ति होनी चाहिए। इसका लोगों ने ये मतलब निकाला कि टीएमसी के साथ हमारा कोई गठजोड़ है। पर ये तो दीपंकर जी ने कहा भी नहीं। उन्होंने कहा कि भाजपा बंगाल में नंबर एक दुश्मन है और भाजपा से वामपंथ को नंबर एक दुश्मन की तरह दो हाथ होने की ज़रूरत नहीं। दूसरी चीज कि जो तृणमूल के खिलाफ हम करेंगे वो हम किस जगह से खड़े होकर करेंगे।

अगर हम उन्हीं सवालों को उठाएंगे या दोहराएंगे जो भाजपा-टीएमसी के खिलाफ उठा रहे हैं तो हमारी पोजीशन में और भाजपा की पोजीशन में लोग फर्क न कर पाएंगे। समझदारी न रख पाएं ये स्थिति नहीं होना चाहिए। टीएमसी को हम वहां घेरेंगे जहां वो भाजपा से लड़ने में चूक रही है। टीएमसी के गुंडे अगर मारपीट कर रहे हैं, लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रहे हैं तो टीएमसी की आलोचना हम यहां से करें कि आपकी वजह से जो भाजपा संविधान और लोकतंत्र का सबसे बड़ा दुश्मन है वो भाजपा बंगाल में लोकतंत्र का चोला ओढ़कर चली आ रही है।

ये आप जिम्मेदारी लीजिए। यहां से नहीं कि भाजपा हिंदू सांप्रदायिकता कर रही तो टीएमसी मुस्लिम सांप्रदायिकता कर रही। ये पूरी तरह से झूठा प्रचार है और हम झूठे प्रचार को तूल देने के बजाय इससे लड़ें। इससे फाइट करें। ये वामपंथ की ज़रूरत है। भाजपा बंगाल और देश के लिए भयानक आपदा है। इसको रोकने के लिए वामपंथ में बात हो। हम बंगाल की अवाम को ये महसूस कराएं कि कैसे भाजपा बड़ी आपदा है वामपंथ को इस पर लगना चाहिए।    

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