Friday, April 19, 2024

आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन के अधिकारों पर सीधा हमला है छत्तीसगढ़ के पेसा और केंद्र के वन संरक्षण नियमों में बदलाव:संगठन

बस्तर। छत्तीसगढ़ के कांकेर में विगत माह आदिवासी इलाकों में स्वशासन के लिए ज़रूरी पेसा (अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत उपबंध का विस्तार) कानून के नियम लागू कर दिए गए। लम्बे समय से पेसा नियमों की मांग की जा रही थी और कांग्रेस पार्टी ने चुनावी जनघोषणापत्र में इसे बनाकर लागू करने का वादा किया था। हालांकि, यह नियम अब कागज़ी शेर साबित हो रहे हैं, बल्कि, कांग्रेसनीत यूपीए शासन के समय लाए गए जनपक्षीय कानूनों, जैसे वनाधिकार मान्यता कानून की भावना के विरुद्ध खड़े दिखाई दे रहे हैं। यह दुखद है कि कांग्रेस की प्रदेश सरकार केंद्र की सरकार के नक़्शे-कदम पर चलते हुए, मजबूत जनपक्षीय कानूनों को कमज़ोर करने में लगी हुई है। जैसे, केंद्र ने हाल ही में वन संरक्षण नियमों में संशोधन सुझाया है, जो किसी भी वनभूमि के डायवर्जन के पूर्व वन अधिकारों की मान्यता की अनिवार्यता और ग्राम सभा की सहमति को लगभग ख़त्म कर देगा। 

लिहाजा केंद्र और प्रदेश सरकार के यह कदम प्रदेश के जल जंगल जमीन बचाने वाले संघर्षों और जन आंदोलनों पर सीधा हमला ही हैं, ताकि, संसाधनों को हड़पने के कार्पोरेट प्रयास में कोई बाधा न रह जाये। उक्त बातें छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन के संयोजक आलोक शुक्ला ने वनाधिकार और संसाधनों पर ग्राम सभा के अधिकारों पर हमले विषयक एक-दिवसीय परिचर्चा में कही।

उदंती-सीतानदी अभ्यारण्य संघर्ष समिति के अर्जुन ने कहा कि प्रदेश सरकार द्वारा संरक्षित क्षेत्रों में सामुदायिक संसाधन के अधिकार देना प्रशंसनीय कदम है, पर यह वहां के लोगों के लम्बे संघर्षों का नतीजा है, और अभी बहुत से गाँव इस अधिकार से वंचित हैं। उन्होंने बताया कि तीन वर्ष पूर्व दस हज़ार लोगों ने जाकर उदंती फील्ड डायरेक्टर की ऑफिस का घेराव किया था, तब उन्होंने साफ कहा था कि “अभ्यारण्य में लोगों का कोई अधिकार नहीं है, चूँकि शासन के पास व्यवस्थापन का इंतजाम नहीं है, इसलिए आप लोगों को अभ्यारण्य में रहने दिया जा रहा है”। अर्जुन ने कहा कि आज वन विभाग को इस पर अपनी राय स्पष्ट करना चाहिए।

हसदेव अरण्य संघर्ष समिति के जयनंदन ने बताया कि वर्ष 2012 में ही उनके गांव सहित 8 गांव को सामुदायिक वनाधिकार दिया गया था, लेकिन संसाधन के अधिकार आज तक नहीं दिए गए। और तो और, वर्ष 2018 में निरस्त किए गए वनाधिकारों की सूचना में लिख कर दिया गया कि खदान क्षेत्र होने की वजह से लोगों के व्यक्तिगत दावे अमान्य किए जा रहे हैं। 

मानपुर से आये सरजू टेकाम ने बताया की पड़ोसी महाराष्ट्र प्रदेश जाकर स्थानीय लोगों ने ग्राम सभा द्वारा तेंदू पत्ता व्यापार की पद्धति समझ कर आये, और अपने जंगल के तेंदू पत्ते स्वयं बेचने का फैसला किया। 13 गाँव ने इस सन्दर्भ में शासन, प्रशासन, मंत्रालय को पत्र भी लिखा, पर वन विभाग ने उनके माल का परिवहन नहीं होने दिया। पर हमारी लड़ाई को नए पेसा नियम ने धाराशायी कर दिया। जहाँ, शासन वनाधिकार कानून के तहत गौण वनोपज पर मालिकी को मानने के लिए बाध्य है, वहीं पेसा नियम में तेंदू पत्ता को राष्ट्रीयकृत वनोपज बताकर वन विभाग के नियंत्रण में छोड़ दिया। उन्होंने कहा कि आज भी हमारा पत्ता सुरक्षित रखा है, जिसे हम ग्राम सभा के जरिये ही बेचेंगे। 

सिलगेर (सुकमा) से रघु पोदियामी ने बताया कि बिना ग्राम सभा की अनुमति के सुरक्षा कैंप बैठाने के विरोध में कई गाँवों से आये लोगों के ऊपर गोली चालन को एक साल से ज्यादा हो गया है, पर अभी तक न तो गाँव वालों को कोई न्याय मिला है और न ही मृतकों और घायलों के परिवारों को। मुख्यमंत्री से भी तीन बार मुलाक़ात हुई पर अभी तक हादसे की दंडाधिकारी जांच की भी रिपोर्ट नहीं आई है। लोग अभी भी डटे हुए हैं, और अभी भी अधिकारों के लिए धरने पर हैं।

कोयलीबेडा के बेचाघाट आन्दोलन से आयी मैनी कचलामी ने कहा कि विगत 7 दिसंबर से बेचाघाट के ग्रामीण इसलिए आन्दोलनरत हैं क्योंकि बिना ग्राम सभा सहमति के BSF कैम्प खोला गया, जिससे वहां महिलाओं में असुरक्षा की भावना है। उन्होंने कहा कि यह आदिवासी संस्कृति पर हमला है। किसी भी विरोध का खामियाजा फर्जी मुकदमे और मुठभेड़ के रूप में चुकाना पड़ता है। पर, अब तक कोई सरकारी अधिकारी हमसे बात करने नहीं आया।

रावघाट क्षेत्र से आये नरसिंह मडावी ने कहा कि शासन अपना पूरा बल लगा कर रावघाट खदान को चालू कर रहा है। लेकिन आज भी महिलाएं निडरता से डटी हुई हैं। आन्दोलन को बदनाम करने की साजिश की जा रही है, और चंद लोग निजी स्वार्थों के लिए कम्पनी और सरकारी चालों के मोहरे बने हुए हैं।

कांकेर जिला पंचायत की पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष, सीरू कमडे ने कहा कि दुर्गकोंदल में मोनेट इस्पात अपनी खदान चला रहा है, लेकिन वह इलाका बदहाल है, और लोगों को कुछ नहीं मिल रहा। उनकी जमीन छीन ली गयी और रोजगार के साधन नहीं रहे। सिर्फ साधुमिच गाँव ही कम्पनी के खिलाफ संघर्ष कर रहा है। 

आमदाई पहाड़ क्षेत्र से रूपसिंह सलाम ने बताया कि निको कम्पनी की लौह खदान के चलते पूरी सड़क ख़राब हो गयी, और बहुत से लोग रोड दुर्घटना में अपनी जान गंवा बैठे। यह नक्सल प्रभावित क्षेत्र है, जब भी विरोध किया जाता है, लोगों को उठाकर ले जाया जाता है, और नक्सली बता कर खूब प्रताड़ित किया जाता है। 

बुर्जी, बीजापुर के बिन्तुराम ने बताया कि बुर्जी में भी लगातार आन्दोलन चल रहा है। बीजापुर के 60-70 गाँव के लोग विरोध कर रहे हैं।

पुसनार, बीजापुर से मिर्तुल तक बेहद चौड़ी सड़क बनायी जा रही है, जो जाहिर है, हमारे फायदे के लिए नहीं है। लोग अपनी जमीन बचाने के लिए विरोध करते हैं, तो कुछ दिन काम बंद रहता है, पर दूसरी जगह काम शुरू हो जाता है। ग्राम सभा के फैसलों के लिए कोई जगह नहीं है। 

परिचर्चा के समापन पर बिजय पांडा ने कहा कि आज भी यह भ्रम व्याप्त है कि पेसा कानून को आदिवासी क्षेत्रों में पंचायत कानून का विस्तार माना जाता है, जबकि, यह आदिवासी स्वशासन को संवैधानिक जरिये से लागू करने का कानून है। पेसा कानून की धारा 4(घ) ग्राम सभा को ग्राम सरकार के रूप में कार्य करने के लिए सक्षम बनाता है, जिसमें सूक्ष्म स्तर पर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्ति निहित है। उन्होंने कहा कि इस परिप्रेक्ष्य में क्या हम छत्तीसगढ़ में पेसा कानून को लागू होते देख सकते हैं?  

सरजू नेताम और किसान नेता सुदेश टीकम ने आगे की रणनीति के लिए एक सम्मिलित आंदोलन के लिए आह्वान किया, और इस वर्ष गाँधी जयंती 2 अक्टूबर को ग्राम सभाओं का महा सम्मलेन का प्रस्ताव दिया।

छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन व छत्तीसगढ़ वनाधिकार मंच के इस आयोजन में हसदेव अरण्य संघर्ष समिति सहित प्रदेश के अलग अलग संघर्षरत सगठनों और समूहों से 150 लोग उपस्थित थे। 

इस बीच, पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस पार्टी के सीनियर आदिवासी नेता अरविंद नेताम ने पेसा कानून को लेकर अपनी ही पार्टी की राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है। अरविंद नेताम ने पेसा कानून के बहुप्रतीक्षित नियमों में जानबूझकर ढिलाई बरतने की बात कही। अरविंद नेताम ने कहा कि 1996 में संविधान की पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में स्वशासन की स्थापना के लिए पेसा कानून पारित किया गया था। देश में ऐसे कुल 10 राज्य हैं जो पूर्ण या आंशिक रूप से संविधान के इस दायरे में आते हैं। इन राज्यों में से पांच ने पहले ही पेसा कानून को लागू करने की नियमावली बना ली थी।

नेताम ने कहा कि ” छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार ने पेसा कानून को लागू कराने के लिए नियमों को ज़रूर बना लिया है। लेकिन इस कानून की मूल भावना के साथ बनाए गए नियम इंसाफ नहीं कर रहे। ग्राम सभा की संवैधानिक शक्तियों को जिला प्रशासन के सामने बौना बना दिया गया है। भूमि अधिग्रहण से पहले ग्राम सभाओं की सहमति के प्रावधान को परामर्श तक सीमित किया गया है। जो कि ठीक नहीं है।

इन नियमों पर पुनर्विचार करने की मांग नेताम ने राज्य सरकार से की है। उन्होंने कहा कि अगर राज्य सरकार नियमों को लेकर अडिग रहती है तो आदिवासी समाज भविष्य में आंदोलन को लेकर विचार कर सकता है। फिलहाल बातचीत से समाधान का प्रयास किया जाएगा।

इन नियमों के अधिसूचित होने से ग्राम सभा को गौण खनिज के हक और उन पर निर्णायक भूमिका को भी तवज्जो मिली है। अब ग्राम सभा की अनुमति और निर्णय के बगैर गौण खनिजों का दोहन नहीं किया जा सकता। स्थानीय तौर पर मौजूद जल संरचनाओं पर नियंत्रण और ग्राम सभाओं की भूमिका को सुनिश्चित किया गया है। हालांकि यह प्रावधान पहली नजर में ही वनाधिकार कानून के प्रावधानों को संकुचित किए जाने का प्रयास दिखाई पड़ता है। ग्राम सभा के गठन, संचालन और उसकी प्रशासनिक क्षमताओं को बढ़ाने के लिए इन नियमों में विस्तृत जगह मिली है।वनाधिकार कानून को ध्यान में रखते हुए पेसा नियमों को उसके अनुकूल बनाने की भरसक कोशिश हुई है। लेकिन इस कोशिश में 22 पन्नों में प्रकाशित दस्तावेज में व्यापक अंतर्विरोध हैं। हालांकि इन दोनों महत्वपूर्ण कानूनों के बीच संतुलन बनाने और एक दूसरे का पूरक बनाने के लिए भी गुंजाइश तलाश की गयी है।

(बस्तर से जनचौक संवाददाता तामेश्वर सिन्हा की रिपोर्ट।)

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