Tuesday, April 23, 2024

पाटलिपुत्र का रण: जनता के मूड को भांप पाना मुश्किल

प्रगति के भ्रम और विकास के सच में झूलता बिहार 2020 के अंतिम दौर में एक बार फिर प्रदेश की 17 वीं विधान सभा के चुनाव के मुहाने पर आ पहुँचा है। ज्ञान और नीतियों की भूमि किस अंतर्द्वंद्व में पिछले 68 सालों से उलझी है ये आज भी एक अनसुलझा सवाल ही है। आज़ादी के बाद से भारत में जिस प्रकार दूसरे प्रदेशों ने  आधुनिक औद्योगीकरण को अपना कर भौतिक तरक्की की, बिहार उसमें लगभग हर क्षेत्र में पीछे रह गया। 

भारत में क्षेत्रफल की दृष्टि से बिहार वर्तमान में 13 वाँ राज्य है। राज्य का कुल क्षेत्रफल 94,163 वर्ग किलोमीटर है जिसमें 92,257.51 वर्ग किलोमीटर ग्रामीण क्षेत्र है। बिहार की अनुमानित जनसंख्या लगभग 10 करोड़ 38 लाख से कुछ ऊपर है। संशोधित सूची के अनुसार बिहार में 7,18,22,450 मतदाता हैं। बिहार में 38 जिले,  534 खंड, 8406 पंचायतें, 45103 गांव, 199 कस्बे व शहर हैं। विधान सभा की 243 सीटें हैं। 203 सीटें सामान्य वर्ग की अनारक्षित, 38 अनुसूचित जाति, 2 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। बिहार में सबसे पहली विधान सभा 1937 में बनी थी जिसमें 152 विधायक थे। लेकिन 1947 में भारत आज़ाद होने के बाद भारतीय संविधान के अंतर्गत 1952 में चुनाव द्वारा विधान सभा अस्तित्व में आई।

इतिहास में दर्ज़ श्रेष्ठता की कई अद्भुत मिसालों के बावज़ूद यह प्रदेश वर्तमान में  पिछड़ेपन को कोसता भी है भविष्य के लिए अनिश्चित भी है। भौगोलिक परिस्थितियों और अपने सामाजिक ताने बाने के कारण कई संघर्षों से ये प्रदेश गुजरता रहा है। परन्तु योगदान के अंश में, भले ही वह स्वतंत्रता संग्राम हो, असहयोग आंदोलन हो, या देश निर्माण हो, कभी भी किसी अन्य राज्य से कमतर नहीं रहा। श्रम व श्रमिक की बहुलता लिए बिहार अपने लिए प्रगति के कोई स्थाई समाधान नहीं स्थापित कर पाया। कोई भी राजनैतिक नेतृत्व प्रदेश में बार-बार आने वाली बाढ़ की त्रासदी से मुक्त करने में भी लगभग विफल ही रहा है।

बिहार ने आज़ादी के बाद से 16 विधान सभा कार्यकाल के दौरान 23 मुख्यमंत्रियों को देखा है। डॉ. श्री कृष्णा सिंह सिन्हा कांग्रेस पार्टी से पहले मुख्यमंत्री 1952 से 1961 तक रहे! ‘श्री बाबू’ को आधुनिक बिहार का वास्तुकार भी कहा जाता है। पहली पंच वर्षीय योजना के अंतर्गत बिहार में ग्रामीण उत्थान के लिए कई योजनाएँ लागू हुयीं और बिहार देश के अग्रणी राज्यों शुमार रहा।

बिहार केसरी डॉ. श्री कृष्णा सिंह व उनके सहयोगी व उप मुख्यमंत्री अनुग्रह सिंह के 1952 -1961 के काल को बिहार के उज्जवल काल के रूप में माना जाता है।  तीसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बनाने वाले जगन्नाथ मिश्रा के 1990 के बाद कांग्रेस कभी दुबारा बिहार की सत्ता में नहीं आ सकी। 1990 के बाद लालू प्रसाद यादव का सत्ता काल 2005 तक रहा। लालू यादव के शासन को एक तरफ सामाजिक न्याय की स्थापना और पिछड़े व दलित तबकों के सशक्तिकरण के काल के तौर पर देखा जाता है तो दूसरी तरफ उनके ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों और कानून-व्यवस्था संबंधी दिक्कतों ने पार्टी के भविष्य को धूमिल कर दिया। 2005 से नीतीश कुमार लगातार बिहार की सत्ता के शीर्ष पर अपनी राजनैतिक पलटियों और संधियों के साथ बने हुए हैं। वर्तमान में भाजपा नीतीश कुमार की मुख्य सहयोगी पार्टी है।

जिस उद्देश्य केंद्रित राजनीति को मगध की भूमि से चाणक्य ने सैद्धांतिक रूप में स्थापित किया था वह समय के साथ-साथ अपने मूल को खो कर महत्वाकांक्षा केंद्रित राजनीति में स्थापित हो गयी। सामंती अधिकारवाद ने कई अंतर्विरोधों और विसंगतियों को इस भूमि में रोपित किया। शोषण और शोषित के बीच वर्ग संघर्षों ने प्रदेश को आधुनिक प्रगति से दूर ही रखा। पूंजीवाद, सामंतवाद व संप्रदायवाद ने  बिहार में लोकतान्त्रिक व सैद्धांतिक मूल्यों को पनपने नहीं दिया। 

2020 में कोरोना संक्रमण महामारी की विपत्ति के बावजूद बिहार में विधान सभा के चुनाव करवाने का निर्णय चुनाव आयोग ने किया है। बिहार विधान सभा के चुनावी मुकाबले में 4 राष्ट्रीय राजनीतिक दल ( भाजपा, कांग्रेस, बसपा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) 5 बिहार राज्य की प्रादेशिक दल (सीपीआई एमएल, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, जनता दल यू, लोक जन शक्तिपार्टी, राष्ट्रीय जनता दल)  9 अन्य राज्यों की प्रादेशिक पार्टियों के साथ-साथ 138 के लगभग प्रदेश में पंजीकृत व अमान्यता प्राप्त राजनीतिक पार्टियाँ भी अपने भाग्य आजमाएंगी। 

एक बड़ा वर्ग स्वतंत्र उम्मीदवारों का भी चुनाव में अपनी आज़माइश करता है।  2015  में ये संख्या लगभग 1150 थी। 2015 के विधान सभा चुनाव में एक विधान सभा क्षेत्र में 6-10 उम्मीदवार वाली 34 विधान सभा 11-15 उम्मीदवार वाली 141 और 15 से अधिक उम्मीदवार वाली 68 विधान सभा क्षेत्र थीं। लगभग 3450 उम्मीदवारों ने 2015 के चुनावों में अपना भाग्य  आज़माया था। स्वतंत्र उम्मीदवारों ने 35 लाख 8 हज़ार 15 वोट प्राप्त किये थे जो कुल मतदान का 9.39 % है लेकिन केवल 4  उम्मीदवार ही जीत सके। अन्य पार्टियों ने जो पंजीकृत अमान्यता प्राप्त हैं के 1145 उम्मीदवारों ने 29 लाख 80 हज़ार 855  वोट हासिल किये जो कुल मतदान का 7.82 % था। बिहार के चुनाव में ये बड़ा वर्ग मुख्य पार्टियों और गठबंधन के समीकरण को बनाने बिगाड़ने में अहम भूमिका निभाता है।  

2015 में बिहार में 6 करोड़ 70 लाख 56 हज़ार 820 मतदाता थे जिसमें पिछले 5 सालों में लगभग 47 लाख 65 हज़ार 930 नए मतदाता और जुड़ गए हैं जिससे अब ये संख्या बढ़ कर 7 करोड़ 18 लाख 22 हज़ार 450 हो गई है। ये 7.10 % वृद्धि है। बिहार को हालाँकि बौद्धिकता की भूमि कहा जाता है लेकिन ये युवा मतदाता कोरोना काल, बढ़ती बेरोजगारी एवं आर्थिक कठिनाइयों में किन प्रभावों में अपने मतदान का प्रयोग करेंगे ये अभी कहना कठिन है।  2015 के  विधान सभा चुनाव में  3 करोड़ 79 लाख 93 हज़ार 173 वोट डाले गए थे 56.66 % मतदान हुआ था।  2020 में कोरोना काल में मतदान की संख्या व प्रतिशत बिहार चुनाव में एक महत्वपूर्ण कारक होगा।

गठबंधन की अदला-बदली और पाले बदलने के घटनाक्रम में बिहार में दलित जनसंख्या जो की अब लगभग 17 % तक पहुँच गयी है पर सभी राजनैतिक पार्टियों की नज़र है। 22 दलित जातियाँ बिहार में अपने राजनैतिक भविष्य को नेताओं और पार्टियों के सहारे खोजती हैं। इन जातियों में 70% रविदासिया, मुसहर,पासवान समुदायों से हैं। 2005 में  जद यू की ओर से 15, राजद से 6, भाजपा से 12, लोजशपा से 2 विधायक जीते थे। 2015 में जडीयू से 10, राजद से 14, कांग्रेस से 5, भाजपा से 5 दलित उम्मीदवार जीते थे। 1977 में बिहार से ही प्रथम दलित उप प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम हुए थे। भोला पासवान शास्त्री बिहार में 60 के दशक में पहले दलित मुख्यमंत्री बने थे। वर्तमान में राजनीति के ‘मौसम वैज्ञानिक ‘ राम विलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान की महत्वाकांक्षा आपदा में अवसर खोज रही है। उप मुख्यमंत्री बनाने की अपने लिए चिराग पासवान नीतीश कुमार की नीतियों की खुल कर आलोचना करने में लगे हैं। श्याम सिंह रजक अब जद यू छोड़ राजद के लिए कहाँ तक लाभकारी होंगे परिणामों के बाद ही तय होगा।जीतन राम मांझी खुद को अब ठगा हुआ महसूस करते हुए फिर से जेडीयू की गोद में जा बैठे हैं।   

संधि विशेषज्ञ अंतरात्मा से सुशासन चलने वाले नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन में भी जद यू 2015 में 101 सीटों पर चुनाव लड़ कर 71 सीटें जीती और 64 लाख 16 हज़ार 414 वोट प्राप्त कर पायी थी। वहीं लालू यादव और तेजस्वी यादव की पार्टी  राजद 101 सीटों पर चुनाव लड़ कर 80 जीती और 69 लाख 95 हज़ार 509 वोट प्राप्त की थी। कांग्रेस का प्रदर्शन 1990 के बाद काफी उत्साहजनक रहा था। कांग्रेस 41 सीटों पर चुनाव लड़ के 27 सीटें अपनी झोली में  डालने में सफल हुयी और 25 लाख 39 हज़ार 638  वोट जुटा सकी।

    राजग में भाजपा 2015 के लोकसभा चुनाव में सफलता से आश्वस्त बिहार विधान सभा में 157 सीटों पर चुनाव में उतरी और उसकी सहयोगी रामविलास की लोजशपा 42 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। भाजपा 93 लाख 8 हज़ार 15 मत हासिल कर के भी केवल  53  सीटें ही जीत पायी थी। राम विलास की लोजशपा 18 लाख 40 हज़ार 834 वोट ले कर भी केवल 2 सीटें ही जीत पायी थी। उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा पार्टी  23 सीटों  पर चुनाव लड़ी और 9 लाख 76 हज़ार 787 मत पाने के बाद भी केवल 2 ही सीटों पर जीत मिल सकी।

 भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भाकपा (माले) एवं अन्य मार्क्सवादी पार्टियों ने मिल कर चुनाव लड़ा था और 3 सीटों पर ही सफल हो पायी थीं। और ये तीनों सीटें माले की थीं। 

2020 में बिहार चुनाव में जातीय क्षेत्रीय समीकरण और गठबंधन सीधे तौर पर परिणामों को प्रभावित करेंगे। इस बार बिहार विधान सभा गठबंधन,नेतृत्व और पार्टियों से ज्यादा बिहार की जनता ही लड़ेगी ऐसी  संभावना अधिक प्रबल है। हालाँकि जमीनी स्तर पर कोई बड़े आंदोलन तो नहीं हुए परन्तु अपेक्षाओं की टीस और विपत्ति काल में शासन की नीतियों के परिणाम जन मानस की स्मृतियों में दर्ज़ तो हैं। आश्वासन कब आक्रोश में बदल जाते हैं ये चुनाव परिणामों के बाद ही पता चलता है।

(जगदीप सिंधु वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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