Friday, March 29, 2024

उत्तराखंड में भूकानून बन गया है बड़ा चुनावी मुद्दा

सोशल मीडिया के चिराग से ‘उत्तराखंड मांगे भूकानून’ का जिन्न पता नहीं कब बाहर निकल आया और सबकी ज़ुबान पर छा गया। आने वाले विधानसभा चुनाव में भी राजनीतिक पार्टियों के लिए भूकानून एक ऐसा मुद्दा है जिस पर वह वोटों का सैलाब अपनी तरफ़ मोड़ने का प्रयास करेंगे।

कोरोना काल में सालों पहले उत्तराखंड के गांवों को छोड़ देशभर में फैले हुए प्रवासी अपने गांव वापस लौटे और जीवन जीने के एकमात्र साधन कृषि पर निर्भर हो गए। जब उन्होंने यहां आकर देखा कि उत्तराखंड के अधिकतर लोगों ने उनकी अपनी ज़मीन बाहरी लोगों को औने पौने दामों में बेच दी और उन लोगों ने यहां की जमीनों में होटल बना कर पर्यटकों से कमाई शुरू कर ली तो शुरू हो गए वो भूकानून लागू कराने।

कृषि भूमि या अपनी भूमि की उपयोगिता हम उनसे समझ सकते हैं ,जिनके लिए गांवों में रहने के बाद अब भी उनकी ज़मीन ही रोज़ी रोटी का एकमात्र ज़रिया बनी हुई है।

अल्मोड़ा से साठ किलोमीटर दूर स्थित झालडूंगरा गांव के नवल कुमार राजकीय माध्यमिक विद्यालय झालडूंगरा में कक्षा नौ के छात्र हैं, गांव की दूरी मुख्य मार्ग से एक किमी दूर है। सुबह ग्यारह बजे वह मुझे अपने सहपाठी झालडूंगरा गांव के ही प्रकाश राम के साथ हाथ में स्मार्टफोन लिए बकरी चराते मिले।

नवल के पिता मिस्त्री हैं पर आजकल काम ठप है और कोरोना काल के बाद से घर में खाने के लिए पैसे भी बड़ी मुश्किल से जुट पाते हैं।

पिता को मनरेगा से कभी-कभार काम मिलने पर कुछ कमाई हो जाती है या नैनीताल में काम करने वाले नवल के चाचा द्वारा भेजे पैसों से घर का चूल्हा जल जाता है।

उनकी छह बकरियां, एक भैंस और तीन बैल हैं। बकरी बड़ी होने पर उसे बेच देते हैं, जिससे 2500 रुपए प्रति बकरी तक की कमाई हो जाती है, भैंस का दूध परिवार के पीने के काम आता है।

नवल का परिवार अपनी ज़मीन पर रहते हुए अपना पेट पालने में तो सक्षम ही है, कल के दिन अगर वो लोग अपनी ज़मीन किसी को बेच देते हैं तो अभी इस गरीबी में भी कम से कम एक आशियाना होने की जो संतुष्टि नवल के परिवार में है वो खत्म हो जाएगी।

इसके बाद रोटी का जुगाड़ करने के साथ उसके परिवार को सर छुपाने का इंतज़ाम भी करना पड़ेगा।

एक नज़र कोरोना काल मे वापस लौटे प्रवासियों और उत्तराखंड की बेरोज़गारी पर

जून 2021 में आयी उत्तराखंड ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 3.5 लाख से अधिक प्रवासी सितम्बर 2020 तक अपने मूल स्थानों को लौटे इनमें सबसे अधिक जनपद पौड़ी, टिहरी और अल्मोड़ा से थे। इसके बाद लगभग 29% लोगों ने रोजगार के लिये पुनः पलायन किया। इसी प्रकार कोरोना की दूसरी लहर (अप्रैल 2021 से 5 मई 2021 तक) में 53,092 लोगों की वापसी हुई जिनमें अधिक संख्या पर्वतीय जिलों से थी, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि रोजगार के लिये पलायन पहाड़ी जिलों से अधिक होता है।

इंडिया स्पेंड वेबसाइट की एक रिपोर्ट पढ़ें तो पता चलता है कि सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के अनुसार उत्तराखंड में 2021 के मई से अगस्त के चार महीनों में बेरोजगारी की दर 5.3% थी जो कि देश में 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की बेरोज़गारी दर के आकड़ों में 17 वें नंबर पर रही और इस दौरान बेरोज़गारी दर का राष्ट्रीय औसत 8.57% रहा। हालाँकि ये आंकड़ा देश के दूसरे राज्यों की तुलना में काफी अच्छा दिखाई देता है लेकिन जब इस बेरोजगारी की दर को हम युवाओं में, यानी 20 से 29 वर्ष के आयु वर्ग में देखते हैं तो पाते हैं कि यह दर इस वर्ग में काफी ज़्यादा है।

इस दौरान प्रदेश में 20 से 29 वर्ष के आयु वर्ग में बेरोजगारी की दर 56.41% देखी गयी है। साल 20 से 24 के आयु वर्ग में बेरोजगारी की दर सबसे ज़्यादा 81.76% और 25 से 29 वर्ष में यह दर 24.39% है। देश में 20 से 29 वर्ष के आयु वर्ग में बेरोजगारी की दर 27.63% देखी गयी है। साल 20 से 24 के आयु वर्ग में बेरोजगारी की दर सबसे ज़्यादा 41.53% और 25 से 29 वर्ष में यह दर 13.71% है।

 यह आंकड़े दर्शाते हैं कि राज्य में युवाओं की एक बड़ी संख्या है जो बेरोजग़ार है।

स्थिति साफ़ है प्रदेश के युवा बेरोज़गारी से तंग हैं और चाहते हैं कि वह स्वरोज़गार पर ध्यान केंद्रित करें पर भूमि बेचने को लेकर बने शिथिल कानून बड़े भूमाफियाओं को ज्यादा छूट दे रहे हैं, जिनसे लड़ने युवा आंदोलन चलाने पर मजबूर हैं।

कृषि ज़मीन के हालात और जमीन को लेकर समय-समय पर उत्तराखंड के बदलते कानून

आज उत्तराखंड में जमीन के हालत क्या हैं इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि राज्य में हर साल औसतन पांच हजार हेक्टेयर कृषि भूमि खत्म हुई है। कुल लगभग आठ लाख हेक्टेयर भूमि में से तकरीबन एक लाख हेक्टेयर भूमि खत्म हो चुकी है। हर साल औसतन तीन हजार हेक्टेयर खेती की भूमि बंजर हो रही है। यह तो सरकारी आंकड़ा है, असलियत तो इससे अधिक भी हो सकती है, रुद्रपुर और देहरादून जैसे बड़े शहरों में कृषि की जगह अब दिखती कहां है!

प्रदेश में बड़े पैमाने पर हो रही कृषि भूमि की खरीद फ़रोख़्त, अकृषि कार्यों और मुनाफ़ाख़ोरी की शिकायतों पर वर्ष 2002 के दौरान प्रदेश में बनी प्रथम निर्वाचित कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री दिवंगत एनडी तिवारी द्वारा संज्ञान लेते हुए वर्ष 2003 में ‘उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम,1950’ में कई बंदिशें लगाई गईं, जिसके बाद किसी भी गैर-कृषक बाहरी व्यक्तियों के लिए प्रदेश में भूमि खरीद की सीमा 500 वर्ग मीटर की गयी। इसके बाद वर्ष 2007 में बनी प्रदेश की दूसरी निर्वाचित भाजपा सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.सी. खंडूरी ने अपने कार्यकाल में पूर्व में घोषित सीमा को आधा कर 250 वर्ग मीटर कर दिया। हालांकि ये सीमा नगरीय क्षेत्रों में लागू नहीं थी।

राज्य की उपजाऊ जमीन विकास और उद्योग के नाम पर बिल्डरों और संपन्न लोगों को लुटाई जाती रही। उस सरकार में बड़े पैमाने पर भूमि खरीद की इजाजत दी गयी। आश्चर्यजनक यह है कि उस सरकार में उत्तराखंड क्रांति दल भी शामिल था और उक्रांद के कोटे से मंत्री बने दिवाकर भट्ट सरकार में राजस्व मंत्री थे। उक्रांद चाहता तो तब मजबूत भू-कानून बनवा सकता था , पर उसने ऐसा कुछ किया नहीं।

वर्ष 2017 की बात है जब उत्तराखंड में फ़िर से भाजपा सरकार सत्ता में आई, जिसमें 57 विधायकों वाली पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत सरकार ने 04-06 दिसंबर 2018 को उत्तराखंड की विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दौरान ‘उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम,1950 में संशोधन का नया विधेयक पारित करवाया।

 इस संशोधन के तहत उक्त विधेयक में धारा 143(क) जोड़ कर यह प्रावधान कर दिया गया कि अब औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमिधर स्वयं भूमि बेचे या फिर उससे कोई भूमि क्रय करे तो इस भूमि को अकृषि करवाने के लिए अलग से कोई प्रक्रिया नहीं अपनानी पड़ेगी। औद्योगिक प्रयोजन के लिए खरीदे जाते ही उसका भू उपयोग स्वतः बदल जाएगा और वह अकृषि या गैर कृषि हो जाएगा। इसके साथ ही उक्त अधिनियम में धारा 154(2) जोड़ी गयी, जिससे कि यानी अब पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को समाप्त कर दिया गया। अब कोई भी राज्य में कहीं भी भूमि खरीद सकता है। साथ ही इसमें उत्तराखंड के मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंह नगर में भूमि की हदबंदी (सीलिंग) खत्म कर दी गई। इन जिलों में तय सीमा से अधिक भूमि खरीदी या बेची जा सकेगी।

सदन में इस विधेयक के विरोध में सरकार द्वारा पहाड़ों की भूमि को बेचने की बुरी मंशा पर सवाल उठाते हुए कांग्रेस से केदारनाथ विधानसभा विधायक मनोज रावत के जवाब में तत्कालीन दिवंगत कैबिनेट मंत्री प्रकाश पंत ने कहा था, “पर्वतीय क्षेत्रों में रोज़गार नहीं मिल पा रहा है, रोज़गार केवल इंडस्ट्री के माध्यम से आ सकता है, उनको लाने में हमें कुछ प्रबंध करना होगा। रोज़गार के लिए इंडस्ट्री 250 वर्ग मीटर में कैसे लगेगी? हमें प्रबंध करना होगा। रोज़गार लगाएंगे तो स्कूल खुलेंगे, हेल्थ टूरिज़्म लगेगा इसके साथ ही हमारे यहां पलायन रुकेगा। यह तभी संभव है जब हम उनको कुछ सुविधाएं देंगे।”

कांग्रेस के वरिष्ठ हरीश रावत नेता भूकानून को लेकर हाल ही में फेसबुक पर की गई अपनी पोस्ट में लिखते हैं

#उत्तराखंड_मांगे_नया_भू_कानून, 

एक दिलचस्प बहस और मुझ जैसे लोगों के लिए यह अत्यधिक प्रसन्नता का विषय है कि ऐसे कानूनी पेजदगियों भरे विषय पर युवा चर्चा में भाग ले रहे हैं। मैंने लोगों के कमेंट्स पढ़े। मोटे तौर पर लोग जो जमीनों की बेखौफ, बिना बंदिश के खरीद-फरोख्त है, उससे चिंतित हैं। ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड इस दिशा में पहली बार चिंतित हुआ है या सचेष्ट होकर जनमत बनाने का प्रयास कर रहा है। उत्तराखंड की जो पहली निर्वाचित सरकार आई, उस सरकार की पार्टी के मेनिफेस्टो में हिमाचल की तर्ज पर भू कानून बनाने का उल्लेख था, जिसका अनुपालन करते हुये तात्कालिक सरकार ने 500 वर्गमीटर से ऊपर जमीन की खरीद के लिए सरकार की परमिशन अनिवार्य कर दी।

दूसरी निर्वाचित सरकार आई, उसने 500 वर्ग मीटर के मापदंड को घटाकर के 250 वर्ग मीटर कर दिया, वो भी उत्तराखंड की कृषि योग्य भूमि को या देव तुल्य भूमि और उससे जुड़ी हुई संस्कृति को बचाने का एक प्रयास था। हमने राज्य की प्रस्तावित राजधानी गैरसैंण में भराड़ीसैंण से लगे हुए एरियाज के भूखंडों को नोटिफाइड कर दिया ताकि वहां की भूमि को कोई खरीद न सके। 2017 के बाद आई सरकार का चिंतन इस दिशा में कुछ लीक से हटकर के रहा। उन्होंने उत्तराखंड में प्रचलित भू-कानून को इन्वेस्टमेंट के खिलाफ माना। उन्होंने उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भू सुधार अधिनियम में संशोधन कर विधानसभा में एक विधेयक पारित करवा लिया। इस विधेयक के माध्यम से उत्तराखंड में भूमि क्रय-विक्रय पर लगी सभी पाबंदियां शिथिल कर दी गईं और कानून की धारा में 143 (क) और 154 (2) जोड़ते हुये पहाड़ों में भी भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को खत्म कर दिया गया। 

आश्चर्यजनक रूप से श्री मनोज रावत, अकेली आवाज रहे जिन्होंने उत्तराखंड की जन भावना को समझकर विरोध दर्ज किया और मुझे पता लगा तो मैंने भी अपना विरोध अपने फेसबुक पेज पर दर्ज किया। मगर जिस बहस की उम्मीद थी, जिस प्रतिक्रिया की उम्मीद थी, न विधानसभा में वह प्रतिक्रिया आई और न राज्य के अंदर कोई आवाज जबरदस्त तरीके से उठी। ऐसा लगा जैसे निवेश-निवेश, निवेश के कोरस में उत्तराखंड, भूमि के महत्व को भूल रहा है। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद प्रतिबंधों के बावजूद एक कृषि विभाग के आंकड़ों के अनुसार 4500 हेक्टेयर भूमि प्रतिवर्ष खेती के दायरे से बाहर हो रही है। क्योंकि जितने भवन बन रहे हैं, जितनी अट्टालिकाएं बन रही हैं और सरकारी निर्माण भी, उनमें अधिकांश यही जमीन हैं और शेष जमीन वन विभाग की हैं, जो भारत सरकार की जमीन हैं और यदि इस लॉस को हम मृदा लॉस के साथ जोड़ें तो ये बहुत बड़ी पर्यावरणीय क्षति हर वर्ष हो रही है, जिसकी भरपाई की दिशा में कोई बड़ा कदम नहीं उठाया जा रहा है। मैंने अपने कार्यकाल में तीन कदम इस प्रकार के भू-कानून के संबंध में बनाये।

1. पर्वतीय चकबंदी का कानून, जिसके रूल्स इत्यादि बना करके लागू करने का काम राज्य सरकार नहीं कर पा रही है। कुछ गांवों का चयन जरूर उन्होंने किया, जिनकी वो चकबंदी जहां से प्रारंभ करवाएंगे। मगर मामला कुछ सरकारी हल्ले-गुल्ले तक ही सीमित रहा है, आगे नहीं बढ़ा है। 

2. दूसरा हमने छोटी-छोटी जोतों व छोटे-छोटे जमीनों के टुकड़ों पर जो हमारे शिल्पकार भाइयों से लेकर के किसानों के कब्जे थे, हमने उनका नियमितीकरण कर दिया। हमने कहा जो ये उत्तराखंड की जमीनों के कई प्रकार के वर्गीकरण हैं और जिससे लिटिगेशन बहुत बढ़ता है, इस लिटिगेशन को मिनिमाइज के लिए यह कदम उठाया गया और इससे मैं एक अंदाज के आधार पर कह रहा हूँ कि नैनीताल जनपद में इंदिरा ग्राम, हरी ग्रामों आदि के जो मुकदमे हैं, वो बड़ी संख्या में हैं और वर्षों से लोग खेती में काबिज़ भी हैं, मालिक हैं भी और मालिक नहीं भी हैं, तो मैंने इस दुविधा को मंत्रिमंडलीय फैसला लेकर के समाप्त कर दिया। 

3. तीसरा कदम मैंने उठाया कि मैं चकबंदी का कैडर बनाऊं राज्य के अंदर और राजस्व के अंदर भर्तियां पैमाइशकर्ता जो लोग अमीन आदि हैं, उनकी भी भर्ती हो सके। क्योंकि इनका बिल्कुल टोटा पड़ गया है, उत्तराखंड के अंदर सरकारी कामों के लिए भी जमीन की पैमाइश के लिए अमीन मिलना मुश्किल हो जा रहे हैं और जो जमीनों के मामले में पारिवारिक उलझाव हैं और जिसके कारण छोटी-छोटी पूंजी यदि कोई कर्ज लेना चाहे, कर्ज नहीं ले पा रहा है, बहुत सारी दिक्कतें हैं, उन दिक्कतों को ध्यान में रखकर के हमने ये कैडर बनाने का फैसला किया। 

मेरे मन में एक बड़ी कुलबुलाहट थी कि मैं, उत्तराखंड में तीसरा विकेट का बंदोबस्त और उसके बाद स्वतंत्र भारत में 1960 के करीब चला भू-बंदोबस्त और अब 2016 का बंदोबस्त करूं। लेकिन उसमें लगने वाली समय सीमा को देखकर के मुझे घबराहट हुई, क्योंकि बहुत सारे लिटिगेशन इत्यादि खड़े होते और यह निर्णय मेरे लिए समय काल परिस्थिति को देखकर के व्यवहारिक नहीं था, तो मुझे उस अव्यय को वहीं डम्प करना पड़ा। हां मैंने एक लीजिंग पॉलिसी जरूर बना दी कि ये विकास कार्यों के लिए हों, चाहे किसी भी कार्य के लिए हो। जमीन को खरीदा न जा सके, किसान और गांव के स्वामित्व को बचाए रखते हुए उनको 30 वर्ष तक लीज देने का अधिकार और उस लीज में उनके स्वामित्व को स्वीकार करते हुए मुआवजे का प्रावधान आदि किया गया जिससे ताकि पर्वतीय क्षेत्रों में हॉस्पिटल, स्कूल आदि में जो इन्वेस्टमेंट आए, उसका रास्ता ब्लॉक न हो।

मगर बड़ा काम नया भू-कानून बनाना है, हमारे उत्तराखंड में लागू वर्तमान भू-कानून जिसको उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन कानून के नाम से जाना जाता है, उस कानून को रिप्लेस कर सकें और उत्तराखंड की आवश्यकता, विकास की आवश्यकता, लोगों की आकांक्षाएं और उसके साथ-साथ उत्तराखंडी परिवेश और संस्कृति को बचाने के महती काम को कानूनी रूप देकर संरक्षित किया जा सके और हम कोई पहले राज्य नहीं हैं, जिसने इस दिशा में सोचा है। इस दिशा में सोचने वालों में कर्नाटक की देवराज अर्स गवर्नमेंट, देवराज अर्स जी के समय में जो भूमि सुधार हुए वो पढ़ने के लायक हैं और उन्होंने यहां तक की लोकल ट्रिब्यूनल्स बनाकर के लिटिगेशन दायर किया था, उसे सीमित कर दिया और उसको कोर्ट से बाहर निकाल दिया और ट्रिब्यूनल्स को कानूनी अधिकार दिलवा दिये, यह अपने आप में एक बहुत बड़ा कदम था।

पूरे हमारे नॉर्थ ईस्ट जितना भी हिमालयन एरिया है और जितना जनजाति आवासित राज्य हैं, उन सबके अंदर कोई न कोई ऐसा भू कानून है, जो वहां की जमीन को किसी भी खरीद-फरोख्त से संरक्षित करता है और उनकी विकास की आकांक्षाओं को भी पूरा करता है। सिक्किम में नहीं था, तो सिक्किम ने शायद 2018-19 के आस-पास इस तरीके का कानून बना लिया, जब वहां निवेश आने लगा तो उन्होंने चेक एंड बैलेंस की नीति के लिए उस तरीके का कानून बनाया। मेघालय आदि में पहले से इस तरीके के कानून हैं, धारा 370, 371-A, B व 1,2,3, 4 कई धाराएं, वो धाराएं भूमि के अंधाधुंध खरीद-फरोख्त से इन राज्यों को और इन राज्यों के लोगों को और उनकी संस्कृति को संरक्षित करने का काम करती है। 

21वीं सदी की अपनी अपेक्षाएं हैं और हमारी भी 21वीं सदी के युवाओं को अपने तरीके से सपने देखने और आकांक्षा रखने का अधिकार है। हमको नया भू-कानून, उनकी आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर बनाना चाहिए। उस कानून में एक ऐसी क्षमता समाहित की जानी चाहिए कि 21वीं सदी में आने वाली चुनौतियों का सामना हो सके। जैसे मैंने अभी भू-बंदोबस्त की बात कही, लीजिंग पॉलिसी की बात कही, चकबंदी कानून की बात कही, ये सब उस भू-कानून के हिस्सा होने चाहिए और कानून तब तक सफल नहीं होगा, जब तक हम भूमि का बंदोबस्त नहीं करेंगे। एक नई भू प्रबंधन नीति इस कानून से बाहर आनी चाहिए। हमारा उलझाव केवल इस प्रश्न पर नहीं है कि हमारी जमीनें बिक रही हैं, कंक्रीट के जंगल खड़े हो रहे हैं, परिवेश प्रदूषित हो रहा है, हमारी संस्कृति व परंपराओं के लिए खतरा पैदा हो रहा है, ये सब अपनी जगह पर सत्य हैं।

मगर  इतना ही बड़ा सत्य यह भी है कि हमको भारत सरकार से भी खतरा है। हमारे गोचर पनघट जो गांव की असीसाला में गांव की संपत्ति हैं, वो आज प्रोटेक्टेड फॉरेस्ट के नाम से और कई स्थानों पर रिजर्व फॉरेस्ट के नाम से गांव की संपत्ति से बाहर कर दिये गये हैं, वन विभाग उनको अपनी संपत्ति मान करके चल रहा है। गांव के विकास की आकांक्षा के लिए आवश्यक है कि हम कानून के दायरे को पुरानी भूमि व्यवस्था के आलोक में देखें और नये आलोक में यह प्रयास करें कि भारत सरकार हमारे गांव गोचर पनघट की जमीन पर हमारे गांव का स्वामित्व स्वीकार करे और उसी तरीके से जल, मैं जानता हूं जल विवादों के कारण बहुत सारे उलझाव खड़े होते हैं

लेकिन जब हम 21वीं सदी में अपने विकास के अस्त्र के रूप में जल संग्रहण को लेकर के चलना चाहते हैं, जिसके लिए मैंने अपनी सरकार के समय में जल बोनस नीति भी बनाई थी, चाल-खाल और नदियों में जगह-जगह स्टोरेज खड़े किए थे, उसको और व्यवस्थित साइंटिफिक रूप देकर के ग्राम समाज के साथ जोड़ करके एक नया अभियान प्रारंभ करना पड़ेगा, ताकि जल, जमीन, जंगल, ये तीनों का एक समन्वित स्वरूप नये कानून के बाद स्पष्ट हो सकेगा। मैंने ये मुद्दे, कुछ चर्चा/बहस के लिए उठाए हैं और मुझे खुशी होगी कि इस बहस में यदि कुछ प्रबुद्ध लोग आगे आएं और कुछ नया मार्गदर्शन प्राप्त हो ताकि 2022 में जो राजनैतिक परिदृश्य बने, उस परिदृश्य में नया भू-कानून एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सके। 

                     “जय हिंद”

                                                      (हरीश रावत)

उत्तराखंड में हिमाचल की तरह ही भूकानून लागू कराने की बात समय समय पर की जाती रही है, पर हमें नगालैंड और सिक्किम में जमीन से जुड़े कुछ कानूनों के बारे में जानने की जरूरत भी है।

अनुच्छेद 371A – नगालैंड

संविधान के इस प्रावधान के तहत नगालैंड का नागरिक ही वहां जमीन खरीद सकता है। देश के अन्य राज्यों के व्यक्ति को नगालैंड में जमीन खरीदने का अधिकार नहीं है। इसके तहत नगालैंड के मामले में नगाओं की धार्मिक या सामाजिक परंपराओं, इसके पारंपरिक कानून और प्रक्रिया, नागा परंपरा कानून के अनुसार फैसलों से जुड़े दीवानी और फौजदारी न्याय प्रशासन और भूमि और संसाधनों के स्वामित्व और हस्तांतरण के संदर्भ में संसद की कोई भी कार्यवाही लागू नहीं होगी।

अनुच्छेद 371F – सिक्किम

इसके तहत सिक्किम के पास पूरे राज्य की जमीन का अधिकार है, चाहे वह जमीन भारत में विलय से पहले किसी की निजी जमीन ही क्यों ना हो। यहां जमीन विवाद में देश के सुप्रीम कोर्ट या संसद को हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है। इसी के तहत सिक्किम की विधानसभा का कार्यकाल चार साल का है।

भूमि बंदोबस्त होगा तो पर उस पर भी सोचने की जरूरत

हाल में कहा गया था कि उत्तराखंड सरकार प्रदेश में पहली बार भू बंदोबस्ती को लेकर प्रदेशवासियों को बड़ी राहत देने जा रही है। बता दें कि देश में हुई 1960 की बंदोबस्ती के बाद उत्तराखंड राज्य गठन से लेकर अब तक भू बंदोबस्ती नहीं हुई है। मुख्य सचिव उत्पल कुमार सिंह ने बताया था कि जल्द ही भू बंदोबस्ती को लेकर कार्रवाई शुरू की जाएगी।

उत्तराखंड में भूमि का बंदोबस्त इस तरह है कि अधिकांश किसानों के पास नाप भूमि के साथ-साथ बेनाप भूमि भी है। गांव वालों के पास तो केवल बेनाप भूमि ही है, इस भूमि पर उनका मकान है तथा खेती भी होती है। नगरपालिका बन जाने के बाद बेनाप भूमि के नजूल में परिवर्तित होने की सम्भावना है। जिसे लेकर स्थानीय लोगों में डर का माहौल है। एक बात यह भी सामने आ रही है कि जंगल, पानी, वन पंचायतों का हक हकूक, जो थोड़ा बहुत बचे हुए हैं वे भी समाप्त हो जाएंगे। पहाड़ों में शहरों की संस्कृति व गांवों की संस्कृति में अभी भी बहुत अंतर दिखाई देता है, गांव को शहर से जोड़ने से न तो गांव शहर बन पाएंगे और न ही गांव गांव रह पाएंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि शहरों को गांवों में मिला गांवों को उजाड़ने की पूरी कोशिश की जा रही है।

जंगल ,पानी के अधिकार तो ख़त्म हैं ही अब पर्वतीय कृषि उत्पादक बनाने की जरूरत

प्रदेश के पानी पर हमारा अधिकार पहले ही खत्म हो चुका है, बिजली परियोजनाओं से हमें कुछ नही मिलता। कई रिपोर्टों से साबित हो चुका है कि प्रदेश में आने वाली बड़ी आपदाओं के लिए ये परियोजनाएं ही जिम्मेदार हैं, भविष्य में भी प्रदेश को इनसे खतरा बना हुआ है।

जंगलों पर अधिकार पहले ही ख़त्म है, अंग्रेज़ों ने जितने अधिकार स्थानीय लोगों को प्रदान किए थे आज़ाद भारत की जनता को अपने जंगलों में उससे कम अधिकार मिले हैं। भूकानून बनने के बाद भी जनता की समस्या का समाधान होगा यह कह पाना मुश्किल है, प्रदेश में जाना माना कृषि विश्वविद्यालय है पर उसने पहाड़ी कृषि में उत्पादकता बढ़ाने के लिए कितना काम किया है यह बड़ा प्रश्न है।

जरूरत है पर्वतीय कृषि को उत्पादक बनाया जाए और पहाड़ी स्थानों में रहने वाले प्रदेशवासियों को स्वरोज़गार के नए अवसर प्रदान किए जाएं।

(हिमांशु जोशी लेखक और समीक्षक हैं और आजकल उत्तराखंड में रहते हैं।)

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