Friday, March 29, 2024

इसरो को दया का पात्र बना देना भी अच्छा नहीं

अंतरिक्ष की दुनिया में कामयाबी के झंडे गाड़ चुके हमारे संस्थान ‘इसरो’ पर हर भारतवासियों को गर्व है। लेकिन चंद्रयान-2 को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाने के बाद प्रधानमंत्री के कंधों पर टिके इसरो प्रमुख की तस्वीर ने एक कारुणिक दृश्य उत्पन्न किया। मीडिया की ख़बरें भी कुछ ऐसे ही विलाप का शिकार रहीं। मानों सब कह रहे हों- मत रो इसरो।

क्या इस मौके पर यह भी याद दिलाना चाहिए कि इसरो के वैज्ञानिकों ने पिछले ही महीने अपने वेतन में हुई कटौती से नाराज होकर पत्र लिखा था? उन्हें 1996 से लगातार मिल रहे दो विशेष वेतनवृद्धि के लाभ से वंचित कर दिया गया। वह भी ठीक ऐसे मौके पर, जब दस साल की कठिन मेहनत के बाद चंद्रयान-2 के प्रक्षेपण की अंतिम तैयारी थी। ऐसे मौके पर वैज्ञानिकों के वेतन में कटौती ने उनका मनोबल कम किया।

इसी तरह, इसरो के काम में निजी कंपनियों की भागीदारी और बढ़ती मुनाफाखोरी की प्रवृति से भी वैज्ञानिकों में निराशा है। उन्होंने पत्र लिखकर उपग्रह अनुसन्धान के निजीकरण का खुला विरोध किया।

आंकड़े बताते हैं कि विगत कुछ वर्षों में स्पेस रिसर्च से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा इस्तीफा देकर अन्य कार्यों से जुड़ने की प्रवृति बढ़ी है। ऐसे में यह चिंता की बात है कि इसरो जैसे गरिमामय संस्थान की हालत “रो” तक सीमित क्यों रह गई?

इसके लिए हमें ताजा घटनाक्रम का बारीक़ अध्ययन करना होगा। चंद्रयान प्रथम को इसरो ने 2008 में ही सफलता पूर्वक स्थापित किया था। चंद्रयान द्वितीय को भी 2008 में ही स्वीकृत कर दिया गया था। अभी चंद्रयान द्वितीय को कितनी सफलता मिली है, और इससे क्या लाभ होंगे, इसका वैज्ञानिक आकलन होने में समय लगेगा। इसके लिए वैज्ञानिकों को शांति और संयम से बिना तमाशे, बगैर दबाव और बिना हस्तक्षेप काम का अवसर देने की जरूरत है।

इसरो के भीतर का दृश्य।

लेकिन 2008 और 2019 में एक बड़ा फर्क है। अब सनसनी ख़बरों और बकवास के आदी न्यूज चैनलों ने माहौल को काफी दूषित करके नागरिकों और वैज्ञानिकों को उलझाया।

साथ ही, हर मामले को इवेंट और प्रचार का अवसर के तौर पर देखने के चक्कर में मोदी जी ने वहां जाकर इसरो वैज्ञानिकों पर अनावश्यक दबाव और ध्यानभंग की स्थिति उत्पन्न की।

होना तो यह चाहिए था कि वैज्ञानिकों को इस परिघटना का स्वतंत्र पर्यवेक्षण करने दिया जाता। प्रधानमंत्री दिल्ली में ही अपने आवास में रहते। उन्हें उचित जानकारी मिल ही जाती। इससे इतना हाइप नहीं बनता। इसरो प्रमुख के विलाप और प्रधानमंत्री द्वारा उन्हें कंधे से चिपकाकर पीठ रगड़ने की नौबत नहीं आती। तब चंद्रयान द्वितीय की तस्वीरें मीडिया में प्रमुखता पातीं और उस पर कोई अवैज्ञानिक बातें नहीं आतीं।

चंद्रयान द्वितीय के प्रक्षेपण के बाद इसरो का उस पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया। इसरो को सिर्फ उससे मिलने वाले सन्देश के जरिये वैज्ञानिक निष्कर्ष निकालने हैं। इसलिये मोदी की उपस्थिति के कारण उसकी कार्यक्षमता पर कोई अच्छा या बुरा प्रभाव नहीं पड़ना था।

लेकिन जिस वक्त चंद्रयान-2, को चांद पर लैंडिंग करनी थी, उस वक्त हर पल की गतिविधियों पर इसरो वैज्ञानिकों को तीक्ष नजर रखनी थी। मोदी जी के पहुंचने से सुरक्षा के तामझाम तथा वहां कई तरह की रोक-टोक के कारण इसरो की कार्यक्षमता अवश्य ही प्रभावित हुई होगी। वरीय अधिकारियों और वैज्ञानिकों का ध्यान मूल काम के बजाय फालतू की औपचारिकता और सुरक्षा पर केंद्रित हुआ होगा।

साथ ही, उस मौके पर मोदी जी ने अपने सन्देश में चाँद का शायराना अंदाज में वर्णन करके इस परिघटना को वैज्ञानिक तरीके से समझने के बजाय साहित्यिक कल्पना के तौर पर देखने के अवैज्ञानिक नजरिये को बढ़ावा दिया। इसके कारण अंतरिक्ष संबंधी वैज्ञानिक समझ के प्रसार के अवसर से हम वंचित हुए।

चंद्रमा पर लैंडर।

कोई प्रधानमंत्री कहीं भी जा सकता है। उन्हें भला कौन रोकेगा? इसलिए खुद उन्हीं को अपनी गरिमा, मर्यादा और सीमा समझनी चाहिए।

ध्यान रहे, मोदी जी ने पिछले दिनों सर्जिकल स्ट्राइक के वक्त भी कहा था कि वायुसेना के अधिकारी इस एक्शन के कारण तैयार नहीं थे, क्योंकि आसमान में बादल थे। लेकिन मोदी जी ने कहा कि बादल के कारण पाक के रडार हमारे एयरक्राफ्ट को नहीं देख पाएंगे।

इस बात का दुनिया भर में मजाक उड़ा। कारण यह कि बादल के कारण रडार की क्षमता पर कोई असर नहीं होता। बल्कि एयरक्राफ्ट की ही क्षमता कम होती है।

कल्पना करें, अगर बादलों के कारण हमारे एयरक्राफ्ट सही काम न कर पाते और हमारे वायु सेना अधिकारियों को नुकसान होता, तो इसका जिम्मा कौन लेता?

ऐसे फैसले कौन लेगा? जो वायुसेना के विशेषज्ञ हैं, उन्हें फैसला लेना है? न कि इसका एबीसीडी तक न जानने वाले किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसने कभी ढंग से शिक्षा हासिल नहीं की, बचपन में चाय बेची और खुद कहे कि मैंने 35 साल भीख मांगकर गुजारा किया।

मोदी जी ने नाले की गैस से चाय बनाने की बात कहकर भी जगहंसाई कराई। सेना के मामले हों, या वैज्ञानिक प्रयोग के अहम मौके, किसी भी राजनेता को प्रचार की हवस में इसमें दखल करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। इसके लिए किसी कानून की जरूरत नहीं। यह तो खुद समझने और आत्मसंयम की चीज है।

अब से पहले किसी प्रधानमंत्री ने ऐसा छिछोरपन नहीं किया। पीएम के लिए ऐसे शब्द का उपयोग करना अच्छा नहीं लगता। लेकिन यह नौबत खुद उन्होंने पैदा की। लोग आपका सम्मान करें, इसके लिए आपको खुद अपना आचरण ठीक रखने की जरूरत है। कभी किसी ने वाजपेयी जी या मनमोहन या अन्य पर ऐसे सवाल नहीं उठाए गए।

अभी अंधभक्ति में किसी को ये बातें चुभ सकती हैं, लेकिन जल्द ही सबको समझ में आएगा कि मोदी जी ने किस तरह पीएम पद का अवमूल्यन किया।

बहरहाल, चंद्रयान-2 की सफलता या असफलता का वैज्ञानिक मूल्यांकन अभी बाकी है। संभव है, विक्रम से संपर्क स्थापित हो जाए और हमें वांक्षित सफलता मिल जाए। लेकिन इसरो को एक स्वतंत्र स्वायत्त वैज्ञानिक संस्थान के तौर पर विकसित करने की चुनौती शेष है।

(यह लेख स्नेहा भारतीय ने लिखा है।)

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