Friday, April 19, 2024

मध्य प्रदेश के उपचुनाव नतीजों से ‘ऑपरेशन कमल’ का रास्ता साफ

मध्य प्रदेश विधानसभा की 28 सीटों के लिए हुए उपचुनाव में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने जबरदस्त जीत हासिल कर राज्य विधानसभा में न सिर्फ अपना बहुमत कायम कर लिया है, बल्कि अगले तीन वर्ष तक सत्ता में बने रहने का पुख्ता इंतजाम भी कर लिया है। आठ महीने पुरानी भाजपा सरकार को विधानसभा में बहुमत के लिए 28 में से महज आठ सीटों की दरकार थी, जबकि उसने 19 सीटों पर जीत हासिल की।

कांग्रेस के लिए ये नतीजे गहरा सदमा देने वाले रहे। जिन 28 सीटों पर उपचुनाव हुए, उनमें से 27 सीटें ऐसी थीं, जहां दो साल पहले हुए विधानसभा चुनाव में उसने जीत हासिल की थी, लेकिन उपचुनाव में वह इनमें से महज 8 सीटें ही जीत सकी। एक अन्य सीट जो उसने जीती वह भाजपा विधायक के निधन से खाली हुई थी। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ सभी 28 सीटें जीत कर फिर मुख्यमंत्री बनने की हसरत पाले हुए थे, लेकिन उपचुनाव के नतीजों ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया।

आमतौर पर किसी राज्य में विधानसभा सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव के नतीजे उसी राज्य की राजनीति के लिए ही महत्व रखते हैं, मगर मध्य प्रदेश में 28 विधानसभा सीटों के लिए एक साथ हुए उपचुनाव के नतीजे इसका अपवाद हैं। चूंकि ये उपचुनाव एक बड़े और निर्णायक राजनीतिक घटनाक्रम की वजह से हुए हैं, लिहाजा इनके जो नतीजे आए हैं, वे देश की राजनीति के लिहाज से ऐतिहासिक और दूरगामी महत्व वाले साबित हो सकते हैं।

गौरतलब है कि इसी साल मार्च महीने में एक चौंकाने वाले घटनाक्रम के तहत पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस से अपना 18 साल पुराना नाता तोड़ कर भाजपा में शामिल हो गए थे। उनके समर्थन में कांग्रेस के 19 विधायकों ने भी कांग्रेस और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया था। उसी दौरान तीन अन्य कांग्रेस विधायक भी पार्टी और विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हुए थे।

कुल 22 विधायकों के पार्टी और विधानसभा से इस्तीफा दे देने के कारण बेहद सूक्ष्म बहुमत के सहारे चल रही कांग्रेस की 15 महीने पुरानी सरकार अल्ममत में आ गई थी। सरकार को समर्थन दे रहे कुछ निर्दलीय, समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के विधायक भी कांग्रेस पर आई इस ‘आपदा’ को अपने लिए ‘अवसर’ मानते हुए पाला बदल कर भाजपा के साथ चले गए थे।

प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद भाजपा के शीर्ष नेता पहले दिन से दावा करते आ रहे थे कि वे जिस दिन चाहेंगे, उस दिन कांग्रेस की सरकार गिरा देंगे। सिर्फ 15 महीने बाद ही उनका दावा हकीकत में बदल गया। कांग्रेस सत्ता से रुखसत हो गई। विधानसभा की प्रभावी सदस्य संख्या के आधार पर भाजपा बहुमत में आ गई। इसी बीच तीन विधायकों के निधन की वजह से विधानसभा की तीन और सीटें खाली हो गईं और कांग्रेस के तीन अन्य विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया। इस प्रकार विधानसभा की कुल 28 सीटें खाली हो गईं, जिन पर अभी उपचुनाव हुए हैं।

बहरहाल उपचुनाव के नतीजों से भाजपा को आरामदायक बहुमत हासिल हो गया है और साथ ही यह भी तय हो गया है कि कांग्रेस को बाकी के तीन साल विपक्ष में ही बैठना है, लेकिन इन नतीजों को महज सत्तापक्ष और विपक्ष के संख्याबल के नजरिए से ही नहीं देखा जाना चाहिए।

उपचुनाव के इन नतीजों को इस नजरिए से देखना भी पर्याप्त नहीं होगा कि इनका आने वाले दिनों में भाजपा और कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति पर क्या असर होगा? मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भविष्य में कितने समय तक मुख्यमंत्री रह पाएंगे या प्रदेश कांग्रेस की कमान कमलनाथ के हाथों में ही रहेगी या किसी और को सौंपी जाएगी?

इन नतीजों को इस नजरिए से जरूर देखा जा सकता है कि भाजपा में उन ज्योतिरादित्य सिंधिया की हैसियत पर इन नतीजों का क्या असर होगा, जिनके कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने की वजह से कांग्रेस की सरकार गिरी, भाजपा की सरकार बनी और इन उपचुनावों की नौबत आई।

उपचुनाव लड़े भाजपा के 28 उम्मीदवारों में से 19 वे पूर्व विधायक थे, जो सिंधिया के समर्थन में कांग्रेस से बगावत कर भाजपा में शामिल हुए थे। उनमें से आठ उम्मीदवार चुनाव हार गए हैं। इन आठ में से भी छह तो उस ग्वालियर-चंबल इलाके में हारे हैं, जिसे सिंधिया पुश्तैनी तौर पर अपने प्रभाव वाला इलाका मानते हैं। हारने वाले उम्मीदवारों में तीन तो राज्य सरकार में मंत्री भी हैं।

सिंधिया ने कांग्रेस से बगावत कर भाजपा की सरकार बनवाने में योगदान की अभी तक मनचाही कीमत वसूल की है। सबसे पहले उन्होंने खुद के लिए राज्यसभा की सदस्यता हासिल की। फिर दो किस्तों में अपने समर्थक 11 पूर्व विधायकों को राज्य सरकार में मंत्री बनवाया। उन मंत्रियों को मनचाहे विभाग दिलवाने में भी वे सफल रहे। जो समर्थक मंत्री नहीं बन पाए उन्हें निगमों और बोर्डों का अध्यक्ष बनवा कर मंत्री का दर्जा दिलवाया। यही नहीं, वे अपने साथ कांग्रेस छोड़कर आए सभी पूर्व विधायकों को उपचुनाव में भाजपा का टिकट दिलवाने में भी कामयाब रहे, लेकिन अब उनके ही प्रभाव क्षेत्र में उनके छह समर्थक हार गए हैं तो सवाल उठता है कि क्या वे अब भाजपा में पहले की तरह मोल-भाव करने की स्थिति में रह पाएंगे?

असल में इन नतीजों को बहुचर्चित ‘ऑपरेशन कमल’ के भविष्य के नजरिए से देखना महत्वपूर्ण होगा। अब तक भाजपा ने ‘ऑपरेशन कमल’ के तहत विभिन्न राज्यों में में विपक्षी दलों के विधायकों और सांसदों के इस्तीफ़े कराए हैं और फिर उन्हें अपनी पार्टी से चुनाव लड़ा कर विधायक या सांसद बनाया है। इसी रणनीति के सहारे उसने कर्नाटक, गोवा, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आदि राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें गिराकर या उन्हें सरकार बनाने से रोक कर अपनी सरकारें बनाई हैं और राज्यसभा में भी अपनी ताकत में जबरदस्त इजाफा कर लिया है।

मध्य प्रदेश में भी उसने इसी ‘ऑपरेशन कमल’ के जरिए अपनी सरकार बनाई थी, लेकिन इस ऑपरेशन की असल परीक्षा उपचुनाव में ही होनी थी, जो हो चुकी है। कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा में आए ज्यादातर पूर्व विधायक उपचुनाव जीत गए हैं, लिहाजा माना जा सकता है कि उसका ऑपरेशन बहुत हद तक कामयाब रहा। इस कामयाबी से अब दूसरे राज्यों में इसे आजमाने का रास्ता खुल सकता है।

महाराष्ट्र, राजस्थान, झारखंड, हरियाणा आदि राज्यों में भाजपा इस फार्मूले को आजमाने का इरादा रखती है। खबर है कि हरियाणा में कांग्रेस के विधायकों को मध्य प्रदेश की तर्ज पर विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल होने और उपचुनाव लड़ने का प्रस्ताव मिल चुका है। झारखंड में भी कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा के कई विधायकों के सामने यह प्रस्ताव लंबित है। हालांकि राजस्थान और महाराष्ट्र में भाजपा एक-एक बार तो इस सिलसिले में कोशिश कर चुकी है, लेकिन उसमें उसे कामयाबी नहीं मिल सकी। चूंकि अब मध्य प्रदेश में उपचुनाव के ज्यादातर नतीजे उसके पक्ष में रहे हैं, लिहाजा महाराष्ट्र और राजस्थान में दोबारा कोशिश करने का रास्ता खुल सकता है।

तमाम दूसरी पार्टियों के विधायकों की नजर भी मध्य प्रदेश के उपचुनावों पर टिकी हुई थीं। अगर कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा में आए ज्यादातर पूर्व विधायक चुनाव नहीं जीत पाते तो ऐसी स्थिति मे ‘ऑपरेशन कमल’ पर ब्रेक लग सकता था, क्योंकि कोई भी विधायक अपनी विधानसभा की सदस्यता को खतरे मे डालने का जोखिम मोल नहीं ले सकता, खासकर ऐसे राज्यों में जहां विधान परिषद नहीं है।

गौरतलब है कि महाराष्ट्र में विधान परिषद है। वहां अगर भाजपा ऑपरेशन कमल के जरिए अपनी सरकार बना लेती है तो वह विधानसभा चुनाव हारने वाले को राज्य विधानमंडल के उच्च सदन यानी विधान परिषद में भेज सकती है, लेकिन राजस्थान, हरियाणा और झारखंड में यह सुविधा यानी विधान परिषद नहीं है।

मध्य प्रदेश में चूंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया के करीब आधे समर्थक उपचुनाव में हार गए हैं। उनकी हार का सिंधिया की हैसियत पर क्या असर होता है, यह आने वाले दिनों में पता चलेगा। अगर भाजपा में सिंधिया की हैसियत कमजोर होती है तो फिर कांग्रेस के उन नेताओं को भी सोचना होगा, जो सिंधिया का रास्ता अपनाने का इरादा रखते हैं। कुछ दिनों पहले राजस्थान में सचिन पायलट ने भी सिंधिया की तर्ज पर कांग्रेस के बाहर कदम रखने की कोशिश की थी, लेकिन पर्याप्त संख्या में विधायकों का समर्थन न जुटा पाने की वजह से उन्हें अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे, हालांकि यूपीए सरकार में मंत्री रहे जितिन प्रसाद और मिलिंद देवड़ा जैसे नेता काफी दिनों से कांग्रेस से बाहर निकलने के लिए कसमसा रहे हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश के चुनाव नतीजे चूंकि भाजपा के मनमाफिक आए हैं, इसलिए आने वाले दिनों में मध्य प्रदेश जैसा ऑपरेशन कमल अन्य राज्यों में भी देखने को मिल सकता है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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