Wednesday, April 24, 2024

गाड़ी नहीं, समाज की ड्राइविंग सीट पर बैठने की तैयारी

मुस्लिम समाज को लेकर एक विशेष तरह का अभियान पिछले 7 साल से लगातार चलाया जा रहा है। कभी तीन तलाक़ के मुद्दे को लेकर, कभी अंतर्धार्मिक प्रेम व विवाह को लेकर, कभी जनसंख्या को लेकर, तो कभी मुस्लिम महिलाओं के पहनावे को लेकर। आज हम आपको मौजूदा सत्ता द्वारा साजिशन फैलाये जा रहे तमाम दावों के उलट एक मुस्लिम महिला तबस्सुम से मिलवाते हैं जो अपने इरादों, संघर्ष, प्रतिरोध और काम के जरिये तमाम मुहावरों और परंपराओं को ध्वस्त करती हुई एक आत्मनिर्भर, स्वावलंबी सशक्त महिला समाज बनाने के लिए लगातार कार्यरत हैं।

तबस्सुम पिछले 7 साल से ‘आज़ाद फाउंडेशन’ के साथ जुड़कर काम कर रही हैं। बता दें कि आज़ाद फाउंडेशन साल 2008 से काम कर रहा है। मीनू वड़ेरा इसकी संस्थापक हैं। आज़ाद फाउंडेशन एकल महिलाओं के रोज़गार के लिए काम करता है। तबस्सुम आज़ाद फाउंडेशन का परिचय कराते हुए कहती हैं “एक समय ड्राइविंग में स्त्रियों का आना अच्छा नहीं समझा जाता था, आज भी कहा जाता है ये तो मर्दों का काम है। हम उस अवधारणा को तोड़ते हैं। जो संसाधनहीन महिलायें हैं हम उनके साथ काम करते हैं। पहले महिलाओं को लेकर आना पड़ता था लेकिन अब दूसरी महिलाओं की देखादेखी महिलाएं खुद आ रही हैं।”

किशोरावस्था से शुरू हुआ संघर्ष

8 भाई बहनों में सबसे छोटी तबस्सुम बताती हैं कि मेरा संघर्ष किशोरावस्था से ही शुरू हो गया था। लाड़-प्यार के बावजूद प्रतिबंध लगा कि बाहर मत जाओ। इनके साथ मत खेलो, उनके साथ बात मत करो। तो मुझे अच्छा नहीं लगा। और जब मेरी हम उम्र दोस्त सब घर में ही रहने लगे तो मुझे बड़ा अजीब सा लगा। तो वहां से विद्रोह की शुरुआत हुई। तबस्सुम के पिता मीट की दुकान चलाते थे। बड़े भाई यूनियन लीडर थे। कोरोनाकाल में वो इंतकाल फरमा गये। तबस्सुम बताती हैं कि बड़े भाई का उन पर गहरा प्रभाव रहा है। इसके अलावा उनके दो भाई सोशल एक्टिविस्ट हैं।

तबस्सुम अविवाहित हैं। वो बताती हैं कि “इसके लिए भी मुझे संघर्ष करना पड़ा है। दजरअसल मुझे पर्दे से घिन आती है। इसके खिलाफ़ मैंने लड़ाई लड़ा और उसका प्रभाव परिवार में देखा है। आज मेरे परिवार में कतई ज़रूरी नहीं है कि कोई बुर्का ओढ़े। या साइकिल स्कूटी न चलाये। मैं साइकिल चलाने वाली अपनी मोहल्ले में पहली लड़की थी। मैं साइकिल से स्कूल जाती थी।”   

बीएससी (बायो) से ग्रेजुएट तबस्सुम आगे कहती हैं, “मुझे ये नहीं था कि डॉक्टर या कुछ बनना है बस ये था कि साइंस पढ़ूँ। घर वाले दबाव डाल रहे थे कि मैं आर्ट पढ़ूँ वो मेरे लिए ठीक रहेगा। लेकिन मैंने साइंस ही चुना। मेरे बड़े भाई चूंकि ट्रेड यूनियन में थे तो साहित्य और विचार का माहौल था। लेनिन और कम्युनिज्म से जुड़ी किताबें मेरे घर पर थीं। मैंने खाली टाइम उन्हीं किताबों के साथ बिताया। क्योंकि बाहर बहुत निकलना नहीं था, बहुत दोस्त भी नहीं थे तो किताबें ही मेरी दोस्त थीं।

 NACDOR में जाकर हुआ दलित चेतना का विकास

तबस्सुम बताती हैं कि कॉलेज शिक्षा तक वो फातिमा शेख या ज्योतिबा बाई फुले से परिचित नहीं थी। वो आगे कहती हैं, “लेकिन जब मैंने नैकडोर से जुड़कर दलित मुद्दे पर काम करना शुरू किया तो मुझे इन लोगों के बाबत पता चला। तब मैंने जाना कि जाति क्या है और इसमें कैसे भेद-भाव होता है।”

NACDOR में जाने के सवाल पर वो बताती हैं कि “अनीता भारती और मेरे भाई साथ काम करते थे। उनका हमारे घर आना-जाना था। जब मैं दिल्ली आई तो उन्होंने मुझे अपनी संस्था के साथ जुड़ने के लिए कहा। और तब मैंने उनके साथ जुड़कर नैकडोर में काम किया।

NACDOR में भी दिखा पुरुष सत्ता का दर्प

तबस्सुम बताती हैं कि नैकडोर में काम करते हुए जब मेरा नाम होने लगा तो नैकडोर के संस्थापक अशोक भारती मुझसे डरने लगे थे। वो मेरे काम पर शक़ करने लगे। फिर वो मुझे परेशान करने लगे थे। जैसे कि जब किसी को काम से हटाना होता है तो उसे टॉर्चर किया जाने लगता है। फिर उन्होंने मेरी सैलरी रोक ली । तब मैंने उनसे लिखित में सवाल-जवाब किया। मैंने उनसे ये भी कहा कि मेरे साथ जो यहां हो रहा है मैं उसे पब्लिश कर दूंगी। तो उन्होंने बहुत हल्के में लेते हुए कहा जाओ कर दो। शायद उन्हें लगा मैं नहीं करुंगी। उन्होंने कहा कर दो तो मैंने कर दिया। तो जब मैंने पब्लिश कर दिया नैकडोर में मेरे साथ जो हुआ तो उन्हें बहुत बुरा लगा। उन्होंने फिर मेरे खिलाफ़ केस भी कर दिया था। केस एक साल तक चला। उसके बाद फिर सब ठीक हो गया।

आज़ाद फाउंडेशन के साथ काम

नैकडोर छोड़ने के बाद तबस्सुम ने सोसायटी फॉर लेबर एंड डेवलपमेंट के साथ जुड़कर दो साल काम किया। बता दें कि ये संस्था गारमेंट सेक्टर में काम करने वाली महिलाओं के लिए काम करती है। वहां 2 साल का प्रोजेक्ट पूरा हो गया तो तबस्सुम ‘आज़ाद फाउंडेशन’ के साथ जुड़ीं। वहां उनसे पहले सर्वे कराया गया फिर काम पर रख लिया गया।

तबस्सुम आगे बताती हैं कि आज़ाद फाउंडेशन में मैंने एक साल ट्रेनिंग कोआर्डिनेटर के तौर पर काम किया। फिर अभी बतौर मोबिलाइजर कोआर्डिनेटर काम कर रही हूँ। इसके तहत मुझे ज़रूरतमंद महिलाओं तक पहुंचना होता है। चूँकि अधिकांश परिवार जल्दी मानते नहीं हैं। वो कहते हैं ये फील्ड स्त्रिय़ों के लिए ठीक नहीं है तो ऐसी स्थिति में उनकी काउंसिलिग करके उन्हें समझाना होता है।

तबस्सुम बताती हैं कि ये छः महीने का कोर्स है। ड्राइविंग के अलावा इसमें और भी 14 तरीके की ट्रेनिंग है। जैसे कि जेंडर ट्रेनिंग, लीगल ट्रेनिंग आदि। इसके बाद महिलाओं को जॉब दिलाता है आजाद फाउंडेशन।

पुरुष सत्ता रोकती है

तबस्सुम इस क्षेत्र की चुनौतिय़ों के बाबत बताती हैं कि पुरुष सत्ता महिलाओं को इस फील्ड में आने से रोकता है। महिलायें तो सहयोग करेंगी। लेकिन कहीं न कहीं महिलाओं पर भी प्रेशर आ जाता है। जिससे कई महिलायें बीच में छोड़कर चली जाती हैं। ऐसे में उन्हें बार बार अप्रोच करना होता है। कई बार एक डेढ़ महीने की लंबी छुट्टी पर चली जाती हैं महिलायें। पता करने पर कहती हैं हमारा परिवार इजाजत नहीं दे रहा है। चूँकि अभी तो कहीं जॉब है नहीं कहीं। तो कई बार ग्रेजुएट लड़कियां और महिलायें भी हमारे पास आती हैं। लेकिन हम उन्हें नहीं लेते। क्योंकि उनके पास और भी विकल्प होते हैं। उन्हें कोई अवसर मिलता है तो वो बीच में छोड़कर चली जाती हैं।

तबस्सुम आगे बताती हैं कि वायदा राशि के रूप में हम 2000 रुपये लेते हैं। इसके अलावा और कोई पैसा नहीं लिया जाता। लेकिन जो इन महिलाओं का लर्निंग और परमानेंट लाइसेंस बनता है वो आज़ाद फांउंडेशन निःशुल्क बनवाकर देता है। आज की तारीख में आज़ाद फाउंडेशन से ड्राइविंग कोर्स करने के बाद काफी महिलायें दिल्ली में बतौर ड्राइवर काम कर रही हैं। इस क्षेत्र में काफी महिलायें आ गई हैं तो रोड पर जो पुरुष का एकल वर्चस्व था उसे चुनौती मिल रही है।

दलित-बहुजन समाज की महिलायें ज़्यादा आती हैं

तबस्सुम बताती हैं कि राजधानी दिल्ली में प्रवासी लोग ज़्यादा हैं। हमारी संस्था में ड्राइविंग कोर्स करने आने वाली 70-80 प्रतिशत महिलायें दलित बहुजन समाज की होती हैं। दस प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं होती हैं। ज़्यादातर एकल महिलायें आती हैं और आर्थिक रूप से कमजोर महिलायें आती हैं। हमारी प्राथमिकता भी वही होती है। इनमें विधवा, तलाकशुदा, अविवाहित महिलायें होती हैं। ऐसी महिलायें दूर तक जाती हैं। और ट्रेनिंग पूरा करने के बाद वो जॉब भी करती हैं।

तबस्सुम आगे बताती हैं कि एक यौनकर्मी भी आई थी। उसने फीस जमा करवाया और कुछ दिन सीखा भी। उसने हमसे कहा भी कि मैं अपने जैसी और भी महिलाओं को ले आऊंगी। लेकिन फिर कुछ दिन सीखने के बाद वो चली गई। हमने संपर्क किया कि क्य़ों नहीं आ रहे तो वो बोली कि हमारे पास आर्थिक संकट ज़्यादा है। आप तो छः महीना सिखाओगी फिर कहीं काम दिलवाओ तब तक हमारा काम कैसे चले। हम अपने बच्चों का पेट कैसे भरें।    

तबस्सुम आगे बताती हैं हमारे यहां से काफी महिलायें ओला-उबर से जुड़ रही हैं। वो सिर्फ़ इतना बताती हैं कि उन्होंने आज़ाद फाउंडेशन से कोर्स किया है तो ओला उबर रख लेता है। इसके अलावा आज़ाद फाउंडेशन के साथ ‘सखा’ संस्था भी जुड़कर काम कर रहा है। सखा संस्था में सिर्फ़ महिलायें ड्राइवर हैं।    

आज़ाद फाउंडेशन से कोर्स करके ड्राइवर का काम कर रहीं महिलायें ‘आज़ाद फाउंडेशन’ के संपर्क में रहती हैं। वो अपने अनुभव और फीडबैक संस्था से साझा करती हैं।

वो बताती हैं कि आज बतौर ड्राइवर काम कर रही अधिकांश महिलाओं की एक कॉमन प्रतिक्रिया होती है कि दिन में जब वो गाड़ी लेकर निकलती हैं तो उन्हें अजीब नज़रों से देखा जाता है। रात में भी गाड़ी चलाती हैं। वो रोड पर सुनसान सड़क पर गाड़ी चलाते समय दिन की तुलना में ज़्यादा सेफ महसूस करती हैं। वैसे भी उन्हें बाहर ड्राइविंग करते समय किसी भी असमान्य हालात से कैसे निपटना है उसकी ट्रेनिंग हम पहले ही उन्हें देते हैं।

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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