Thursday, April 18, 2024

एक बहुवर्गीय लोकतांत्रिक मंच ही रोक सकता है बीजेपी-संघ का सांप्रदायिक रथ: अखिलेंद्र

(देश एक बड़े आंदोलन के मुहाने पर खड़ा है। कोरोना संकट ने रही-सही अर्थव्यवस्था की भी कमर तोड़ दी और बात यहां तक पहुंच गई है कि राज्यों के जीएसटी के पैसे की अदायगी से भी केंद्र ने हाथ खींच लिया और वित्तीय संकट से उबारने की जगह उन्हें उधार लेने के लिए आरबीआई के दरवाजे का रास्ता दिखा दिया। यह देश के टूटते संघीय ढांचे की सबसे भयावह तस्वीर है। जिस न्यायपालिका को इन सभी संवैधानिक मसलों में निर्णायक भूमिका निभानी थी वह या तो निष्क्रिय हो चुकी है या फिर केंद्रीय सत्ता के साथ खड़ी है। और इन सब चीजों की चौतरफा मार जनता को झेलनी पड़ रही है, जिसे आत्मनिर्भरता का नारा देकर पीएम मोदी ने उसके हाल पर छोड़ दिया है। रोजी-रोटी की समस्याओं से जूझ रही इस जनता को सांप्रदायिक नफरत और घृणा की आग में अलग से झोंक दिया गया है। ऐसे में उसके पास बचाव का न तो कोई रास्ता दिख रहा है और न ही कोई दिखाने वाला है। इन परिस्थितियों में यह सवाल बेहद मौजूं हो गया है कि आखिर विकल्प क्या है? ‘लाउड इंडिया टीवी’ और ‘चौथी दुनिया’ के कार्यक्रम ‘लाउड टाक’ में स्वराज अभियान के राष्ट्रीय कार्यसमिति सदस्य अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने इन्हीं कुछ सवालों का जवाब देने की कोशिश की है। इसमें उन्होंने देश में पल रहे वित्तीय पूंजीवाद, अधिनायकवाद के खतरे, कम्युनिस्ट पार्टियों की जनता में पैठ न बना पाने के कारणों और देश के मौजूदा हालात से निपटने के नए विकल्पों पर खुलकर अपनी बात रखी। पेश है उनकी पूरी बातचीत-संपादक)

वामपंथी आंदोलन जनता का आंदोलन क्यों नहीं बन पाया? इस सवाल पर अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने कहा कि यही सवाल मेरे भी दिमाग में था, इसीलिए मैं सीपीआई (एमएल), लिबरेशन से अलग हुआ था। भारत में आम तौर पर वामपंथ का आशय कम्युनिस्ट पार्टी से निकाला जाता है। मैं वामपंथ को जनवादी आंदोलन के बतौर देखता हूं। इसमें तीन धारा मानता हूं। एक धारा 1920 में बनी कम्युनिस्ट पार्टी को मानता हूं। दूसरी धारा आचार्य नरेंद्र देव और जय प्रकाश की सीएसपी थी, उसको मानता हूं। तीसरी महत्वपूर्ण धारा थी डॉ. अंबेडकर की। वह स्टेट सोशलिज्म की बात करते थे, उनको भी मानता हूं। इन तीनों धाराओं का भारत की राजनीति पर जो असर होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। इसकी मैंने खोजबीन करनी शुरू की तो हमने देखा कि जो हमारे कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन थे, वह भारत की परिस्थिति के अनुकूल नहीं थे।

उन्होंने कहा कि यह संगठन यूरोप और खास तौर से लेनिन के रूस का था। इन संगठनों ने उसकी दिशा को पकड़ते हुए भारत में प्रयोग किए। यह संगठन भारत की सामाजिक और खेतिहर समाज की सच्चाई को नहीं समझ सके। न ही उसे राजनीति में उतार सके और न विचारधारा में ही ला सके।

मैं मानता हूं 1934 से जो समाजवादियों का प्रयोग हो रहा था, उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में ज्यादा परिपक्वता के साथ प्रदर्शन किया। 1955 जब तक आचार्य नरेंद्र देव सक्रिय थे, उन्होंने भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद के विकास की जो कोशिश की, वह हिंदुस्तान की परिस्थिति के ज्यादा करीब था। डॉ. अंबेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का गठन किया और वह कम्युनिस्टों से सहयोग करना चाहते थे। कम्युनिस्ट पार्टी उस अवसर का भी लाभ नहीं उठा पाई। कम्युनिस्ट पार्टी की विचार प्रक्रिया देश के यथार्थ से मेल नहीं खा सकी।

उन्होंने कहा कि भारत जिस स्टेज में था, जिसकी समझ गांधी जी को ज्यादा बेहतर थी वह स्पेस समाजवादी क्रांति का स्पेस नहीं था। उस वक्त जो नारे बनते (कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा) थे, वह समाजवादी नारे थे, वास्तविकता यह थी कि भारत में एक राष्ट्रीय लोकतंत्र की जरूरत थी। जितनी यात्रा लोकतंत्र के लिए की गई थी, उसे आगे बढ़ाने की जरूरत थी। समय की तात्कालिक जरूरत थी कि समाजवादियों को, अंबेडकर पंथ में यकीन करने वाले और उन गांधीवादियों को, जो कर्मकांडी या मठवादी नहीं थे, जोड़ा जाना चाहिए था। यह गांधी के अंतिम दौर के उद्देश्यों को लेकर एक बड़े बदलाव की अपेक्षा करते थे। उस वक्त एक जन पार्टी बनाने की जरूरत थी, जिसे हम बहु वर्गीय पार्टी कह सकते थे, उसके गठन की जरूरत थी, जो नहीं किया गया।

अखिलेंद्र ने बात चीत में कहा कि लोहिया ने पंचमढ़ी में कहा भी था कि कई दर्शन के लोगों को उनकी पार्टी में आना चाहिए। इस पर आचार्य नरेंद्र देव ने टिप्पणी भी की थी। उस पर विचार-विमर्श की जरूरत थी। उन्होंने कहा था कि वर्ग संघर्ष, जनतंत्र और योजना के प्रश्न को बनाए रखना है। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बनने के बाद लोहिया जी आदि का जो प्रयोग था वह वर्ग का संतुलन नहीं बना पाया। वह जाति का संतुलन बना, जो अंततोगत्वा जातिवाद में ही उसका पतन हो गया। दक्षिण में जो प्रयोग किए गए थे, जाति आंदोलन के, उससे नहीं सीखा गया। मुलायम और लालू जैसे लोगों को भी इसी संदर्भ में देख सकते हैं।

अखिलेंद्र ने कहा कि भारत में जो लोग समाजवाद को अपना लक्ष्य रखते थे, लेकिन मौजूदा दौर में जनतांत्रिक के कामों में लगे हुए थे और जनता के जनवाद के लिए संघर्ष कर रहे थे। उन ताकतों के साथ समायोजन करना चाहिए था। मैं मोर्चे की बात नहीं कर रहा हूं, एक आर्गेनिक लिंक बनाने की जरूरत थी। जैसे कभी चीन में माओत्से तुंग ने अपनी पार्टी बनाई थी। या भारत में गांधी जी के निर्देशन में जो कांग्रेस थी, उसमें विभिन्न दल और विचार के लोग थे। उस दौर में इस तरह का प्रयोग करना था। कम्युनिस्ट पार्टी उस दिशा में इस प्रयोग की तरफ नहीं बढ़ पाई। बहरहाल एक बेहतर समय फिर आया है।

यह पूछे जाने पर कि कम्युनिस्ट पार्टी के तमाम नेताओं ने किसानों की कई लड़ाइयां लड़ीं, लेकिन किसी ने भी उन्हें अपना नेता नहीं माना। अखिलेंद्र सिंह ने कहा कि कम्युनिस्ट पार्टी के सामने हर समय एक प्रैक्सिस का संकट था। वह महसूस भी करते थे। वह कभी भारतीय खेतिहर समाज के हिसाब से कार्यनीति और रणनीति को स्वतंत्रता पूर्वक आगे नहीं बढ़ा सके। उनकी कार्यशैली में एक विभाजन था। सिद्धांत गढ़ने वाले लोग और होते थे, जो आम तौर पर सैद्धांतिक काम देखते थे। और जमीन पर प्रैक्टिस करने वाले अलग। जमीन पर दलित, पिछड़ा आदिवासी समुदाय के लोग या सवर्ण जातियों के जो लोग संघर्ष में थे, दोनों के बीच सही समायोजन नहीं हो पाया।

उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के संदर्भ में कहा कि तमाम विभाजन के बावजूद राज्य के चरित्र के निर्धारण में ज़रूर बदलाव हुआ, लेकिन भारत के संदर्भ में जो मूल चरित्र था, जैसे जमीन और कृषि के प्रश्न को, वर्ग और जाति के प्रश्न को, महिला प्रश्न को, आदिवासी और अन्य उत्पीड़ित समुदाय के सामुदायिक प्रश्न को, हिंदू-मुसलमान के प्रश्न को और सर्वोपरि राष्ट्रवाद के प्रश्न को, जिसमें सीमा विवाद के लिए भी समाधान की तरफ बढ़ना चाहिए, कोई सुसंगत नीति और कार्यक्रम नहीं बना पाए। आज भी जो कम्युनिस्ट पार्टियों का ढांचा है, वह युद्ध काल का ढांचा है, जबकि हम संसदीय जनतंत्र में काम कर रहे हैं। संसदीय जनतंत्र के अनुरूप सांगठनिक ढांचा नहीं है। यह एक संकट रह गया है, जिसे अभी भी देर-सबेर सोचना होगा, क्योंकि पुराने ढांचे और पुराने ढंग की राजनीतिक समझ, खास तौर से सैद्धांतिक समझ के साथ आगे नहीं बढ़ पाएंगे। अच्छी बात है कि आज वर्ग के साथ जाति के प्रश्न को यह देखने की कोशिश कर रहे हैं।

उन्होंने एक सवाल पर कहा कि जहां तक नक्सलबाड़ी में कानू सान्याल या चारु मजूमदार की बात है, चारु मजूमदार का एक बड़ा प्रयोग था। इस धारा में एक संकट था कि पूंजीवाद की लंबी जिंदगी हो गई थी। कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लोग सोचते थे कि एक बेहतरीन बोल्शेविक पार्टी बना लें तो क्रांति हो जाएगी,  जबकि पूंजीवाद का भारत में विभिन्न रूपों में विकास हुआ है, चाहे वह औद्योगिक पूंजीवाद हो या आज का वित्तीय पूंजीवाद है, इसने ऐसी उत्पादन शक्तियों को जन्म दिया है, जिसने उनको मजबूत किया है। इन वस्तुगत परिस्थितियों के अनुरूप जो कार्रवाई होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई।

उन्होंने कहा कि चारु मजूमदार का जो नया प्रयोग था, उसमें समर्पण था, लेकिन राजनीतिक समझ भारतीय यथार्थ के विपरीत थी, इसलिए वह आंदोलन आगे नहीं बढ़ पाया। उसका एक प्रयोग भोजपुर में ज़रूर हुआ था, जाति और वर्ग के प्रश्न को हल करने की कोशिश की गई थी। आईपीएफ भी बनाया गया था, लेकिन वह प्रयोग भी आगे नहीं बढ़ सका। अभी वहां जो माओवादी रह गए हैं, उनका एक विशेष क्षेत्र के आदिवासियों में आधार है, लेकिन उसे टिकाए रखना और आगे बढ़ाना संभव नहीं है।

अखिलेंद्र ने देश के मौजूदा हालात के संदर्भ में कहा कि भारत में एक नया युग आ रहा है। आरएसएस और भाजपा देश को वित्तीय पूंजी के अनुरूप बना रही हैं। पूरे राजनीतिक पंथ को अंदर से अधिनायकवादी बनाने की कोशिश हो रही है। इसके खिलाफ एक बड़ा जनवादी मंच बनाने की जरूरत है। यह मोर्चाबंदी न हो, बल्कि यह आर्गेनिक रिलेशनशिप हो। जैसा आज़ादी के दौर में कांग्रेस ने किया था। यह प्रयोग का दौर है और हम इस प्रयोग में लगे हुए हैं और इसमें विकास हो रहा है।

कभी दक्षिणपंथ पहले बहुत कमजोर था, कांग्रेस से लेकर तमाम संगठन और वामपंथी पार्टियां मजदूरों के बीच काम कर रही थीं, इसके बावजूद कैसे दक्षिणपंथ इतना हावी हो गया? इस सवाल पर अखिलेंद्र सिंह ने कहा कि ऐसा नहीं है कि भारत में जितनी धाराएं थीं, वह सभी एक मंच पर नहीं आ पाईं, जो एक प्रोग्राम के तहत एक साथ मिलकर काम करतीं। कांग्रेस पूरी तरह से विफल रही और वह दूसरी ताकतों से मिल गई, उससे भारत में एक जगह खाली हुई। न तो दलित आंदोलन साथ आया और न समाजवादी आंदोलन साथ आया। नब्बे के दशक के बाद वीपी सिंह के प्रयोग के विफल होने के बाद दक्षिणपंथी ताकतों ने उस स्पेस को भरा। या तो विरोधी ताकतें देखती रह गईं, या बहुत सारे समाजवादी उनके (भाजपा के) साथ खड़े हो गए। कम्युनिस्ट पार्टियां भारत में उस प्रयोग को आगे नहीं बढ़ा पाईं। न तो वर्ग और जाति के प्रश्न को हल कर पाईं और न अधिनायकवाद के खतरे के खिलाफ निपटने के लिए कोई क्षेत्र विशेष विकसित कर पाए और न राष्ट्रीय स्तर पर कोई पहलकदमी ही ले पाए।

इसके पीछे क्या वामपंथ की विचारधारा की कमजोरी रही? अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने कहा कि भारत में जो बुनियादी काम था, भारतीय समाज, खेतिहर समाज में राजनीति विकसित करने का, बड़ी शक्तियों को अपने अंदर समायोजित करने का, खास तौर से खेत-मजदूर या गरीब किसान या किसानों का व्यापक हिस्सा, मजदूर आंदोलन और सब ट्रेड यूनियन तक सीमित हो गए। खेत-मजदूरों को भी व्यवस्थित ढंग से खड़ा नहीं किया गया। किसान आंदोलन में स्वीकृति नहीं हो पाई। मध्य वर्ग में भी स्वीकृति नहीं हो पाई। सैद्धांतिक भारतीय समाज की समझ का संकट आज तक बरकरार है। उसका (वामपंथ का) जो सांगठनिक स्वरूप है वह भारतीय जनतांत्रिक ढांचे के अनुरूप नहीं है। नेताओं के काम करने की शैली आफिस केंद्रित है। वह अपने चिंतन को लेकर जनता के बीच ले जाएं और फिर वहां से सीखें और नया सैद्धांतिक सूत्रीकरण करें। यह काम नहीं होगा तो सिद्धांत सुस्त हो जाएगा। व्यवहारिक ज्ञान नहीं होगा तो संगठन और राजनीति में सुधार नहीं होगा पाएगा। यह संकट शुरू से रहा है और इधर बहुत बढ़ा है।

उन्होंने कहा कि अब (वामपंथ का) आफिस केंद्रित काम हो गया है। दस से पांच के बीच का। कोई भी नेता गांव में जनता के बीच नहीं जा रहा है। हम लोगों ने छात्र आंदोलन में ऐसा ज़रूर किया है। हम लोग मुसहर बस्ती में भी गए और रहे भी। साथ ही उसी समय वीपी सिंह के साथ मिलकर आंदोलन भी किया। हमारे जैसे लोग थे वह अब भी हैं, लेकिन व्यवस्थित प्रयोग नहीं हो पा रहा है। 

स्वराज अभियान समाजवादी अभियान है। आप उससे क्यों जुड़े, क्या वहां जाकर आपकी आशाएं पूरी हुईं? इस पर अखिलेंद्र सिंह ने कहा कि प्रशांत भूषण से मेरी बात हुई थी। तब वह आम आदमी पार्टी में थे। उस वक्त हमने दस दिन दिल्ली में अनशन किया था। हमने कहा था कि विदेशी पूंजी पर निर्भर होकर समाज में बदलाव की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। अरविंद केजरीवाल और एसपी शुक्ला के साथ प्रशांत भूषण भी मिले थे, लेकिन हमने आम आदमी पार्टी के साथ न जाने का फैसला किया। हमने 2012 में आईपीएफ बनाई थी। हमें प्रशांत ने हिमाचल प्रदेश में आमंत्रित किया। वहां तीन दिनों की वर्कशाप थी, उसमें योगेंद्र यादव से बहुत सारे प्रश्नों पर मतभेद थे। खास तौर से वित्तीय पूंजी वगैरह को लेकर। हमने कहा कि स्वराज अभियान में इसे बदला जाना चाहिए। हम बहुवर्गीय राजनीतिक मंच के साथ काम करना चाहते थे, इसलिए हमने आईपीएफ को उससे जोड़ा। मेरी पहले भी वहां स्वतंत्र हैसियत थी और आज भी है। मैं आईपीएफ के प्रतिनिधि के तौर पर ही वहां रहा हूं और आज भी हूं।

भारत में दो साल का समय कैसे देखते हैं? इस सवाल पर उन्होंने कहा कि खतरा बहुत बड़ा है। भारत का सबसे बड़ा संकट वित्तीय पूंजी है। पहली बार वित्तीय पूंजी एकतरफा ढंग से हिंदुत्व की ताकतों को बढ़ावा दे रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत-अमेरिकी खेमे की तरफ जा रहा है। ऐसे समय में संकट गहरा हो गया है। प्रशांत भूषण के राय देने पर उनके खिलाफ सजा का फैसला हो रहा है। विरोध भी हो रहा है। दक्षिण पंथ की ताकतें आज भी बहुत मजबूत हैं। उन्होंने सामाजिक संरचना को अपने पक्ष में कर लिया है। वह पड़ोसी मुल्कों के साथ सीमा विवाद खड़ा करके उन्माद पैदा करते हैं। परिस्थितियां उनके पक्ष में ज्यादा हैं। संकट गहरा है, लेकिन उसको पलटा जा सकता है। देश में सिविल सोसायटी के साथ ही अधिनायकवाद विरोध की ताकतें एक राजनीतिक मंच पर आएं, एक बहुवर्गीय ढांचा तैयार करें, उसमें सभी उत्पीड़ित समुदाय, जातियों और वर्गों को ले आया जाए तो उन्हें बराबर की टक्कर दी जा सकती है और परास्त भी किया जा सकता है। सोचने का तरीका बदलना होगा और राजनीतिक व्यवहार भी बदलना होगा।

उन्होंने कहा कि देश में जो भी आंदोलन हो रहे हैं उसमें जुड़ा हूं। जय प्रकाश आंदोलन के बहुत सारे लोग बैठ गए थे वह फिर से सक्रिय हो रहे हैं। वामपंथी दलों से मेरे आर्गेनिक रिलेशन हैं। प्रकाश करात के साथ कम्यूनिकेशन है। भाकपा (माले) के साथ बेहतर रिश्ते पहले से हैं। दिल्ली में जब मैं अनशन पर बैठा था तो जस्टिस सच्चर, प्रकाश करात, वर्धन के साथ सीपीआई (एमल) के प्रतिनिधि वहां आए थे।

उन्होंने कहा कि भारत में भाजपा और आरएसएस अप्राकृतिक चीज लेकर आ रही हैं। भारतीय स्वभाव और समाज से उसका मेल नहीं है। हमारी बहुलता हमारा चरित्र है। हम अपने चरित्र में जनवादी और लोकतांत्रिक हैं। अधिनायकवाद भारत में सफल नहीं होगा। यूरोप की नकल करके नहीं, भारतीय संदर्भ में आधुनिकता के विचार नए सिरे से ले जाने होंगे। जनता को इस सवाल पर हमें खड़ा करना होगा।

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