Tuesday, April 16, 2024

प्रतापगढ़: छुट्टा सांडों का आंतक, परती छूटे खेत

यूपी विधानसभा चुनाव में प्रतापगढ़ की जनता के क्या मुद्दे हैं और कोरोना के दो वर्षों तक चले कहर के बाद आज वह किस दशा-दिशा में है की पड़ताल के लिए जनचौक टीम ने सड़क मार्ग से जाने का तय किया। हमारी टीम इलाहाबाद जिले के फूलपुर-सिंकदरा रोड से होते हुये कलंदरपुर मोड़ से मऊआइमा पहुंची। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-96 ने मऊआइमा के पुराने प्रसिद्ध बाज़ार की रौनक खत्म कर दी है और इलाहाबाद से प्रतापगढ़ होते हुए यह अपने तथाकथित विकास का भोपूं बजाता हुआ आसपास के इलाकों को मुहँ चिढ़ाता सा लगता है। मउआइमा की पुरानी पतली संकरी सड़कों से निकल जब हम हाईवे पर चढ़े तो इलाहाबाद-प्रतापगढ़ सीमा पर स्वागत करता हुआ टोल प्लाजा मिला। दयालपुर के साथ ही प्रतापगढ़ जिले की सीमा शुरु हो जाती है। बमुश्किल कुछ किलोमीटर ही चले होंगे कि हाईवे को दोनों ओर ग़रीबी-बदहाली की तस्वीर नुमाया करती हुई झोपड़-पट्टियां दिखने लगी थीं। प्रतापगढ़ का इलाका यह इलाका जनजातीय बाहुल्य भी है।

गँजेड़ा इलाके में हाईवे से 10 फुट नीचे खेतों में पसरे एक खंडहर में धइकार (धैकार) जनजाति का एक परिवार मिला। 200 रुपये के मासिक किराये पर रह रहा यह परिवार बांस की डलिया बनाने में जुटा हुआ था। बग़ल में दो छोटे-छोटे बच्चे बालू चालने का खेल खेल रहे थे। वंचित मजलूमों के बच्चों के खेल में भी श्रमकार्य निहित होता है। 3 स्त्रियां दौरी बुन रही थी, जबकि तीन पुरुष बांस को छील-छीलकर दौरी बनाने के लिये सीकीं और पतरे तैयार कर रहे थे। परिवार का एक सदस्य समान बेचने गया था और एक महिला छोटे बच्चों को संभालने में व्यस्त थी। पूछने पर पता चला कि कुल मिलाकर यहां दो क़मरों में 25-30 लोग रहते हैं।

धइकार जनजाति की महिलायें

लक्ष्मन और सत्तर डलिया बना रहे थे। सत्तर बताते हैं “लॉकडाउन में सब कुछ बंद था। शादी-ब्याह भी। शादी-ब्याह में ही यह सब बिकता है। लॉकडाउन में गांव के भीतर लोग घुसने नहीं देते थे। लोग कोरोना है, कोरोना है, कहकर पास नहीं फटकने देते थे। यदि किसी ने हमारा और बच्चों का झुराया मुंह देख कर दया दिखा दी तो 5-6 किलो राशन दे देता था। वही बच्चों को खिला देते थे। खुद नहीं खाते थे कि कहीं बच्चे भूखे न रह जायें। कभी-कभार ज़्यादा मिल जाता था तो खा लेते थे।”   

पूछने पर पता चला कि इन लोगों ने खुद से पानी की बोरिंग की थी, जिसमें से गंदा पानी आता है। राशनकार्ड नहीं बना है, इसलिए मोदी सरकार की कृपा इनपर नहीं बरसी। शौचालय की सुविधा इनके पास नहीं है, इसलिए शौच के लिये खेतों में जाते हैं। आधारकार्ड भी नहीं बना है, जिसके कारण सरकारी अस्पतालों में इलाज नहीं मिलता। आंखों में उदासी लिये प्रियंका बताती हैं “दुनों परानी मिलकर सारा दिन काम करते हैं, तब जाकर 300 रुपया का काम कर पाते हैं। तीन बच्चे हैं। कोरोना के बड़े वाले लॉकडाउन में सरकार की ओर से कोई राशन नहीं मिला। बच्चों ने कई दिन उपवास किया तो कभी किसी गांव वाले ने मया (दया दिखाई) तो 4-6 किलो राशन दे जाता था, तो बच्चे खा पाते थे। हमें सरकार ने कोई सहारा नहीं दिया।”         

लक्षमन और सत्तर के बच्चे स्कूल नहीं जाते। 200-300 रुपये में एक बांस ख़रीदकर लाते हैं। इसमें 4-5 सामान बनता है। मेहनत-मजूरी करके पेट पाल रहे हैं। प्रियंका कहती हैं “एक दौरी 100-150 रुपये में बिकती है। जो शुभ मानता है वही लेता है। गांव के लोग लेते हैं शहर के लोग प्लास्टिक से काम चला लेते हैं। गांव के लोग भी अब प्लास्टिक का कई सामान इस्तेमाल करने लगे हैं, इसलिए बिक्री काफी कम हो गई है।”

यहाँ से विदा लेकर हम विश्वनाथगंज बाज़ार की ओर बढ़े। यहां मान्धाता रोड पर विश्वनाथगंज खास में हरकेश बहादुर सिंह खेतों में सिंचाई करते दिख गए। हरकेश बहादुर सिंह ने अपने खेतों के चरे हुये हिस्सों को दिखाते हुये बताया कि “गेहूं के खेत में जो पीला भाग दिख रहा है वो जानवरों का चरा हुआ है, और जो हरा भाग है वो बचा हुआ है।” यह पूछने पर कि क्या पहले भी आवारा पशुओं की समस्या आपको होती थी, पर वो बताते हैं कि “छुट्टा जानवरो का इतना आतंक 4-5 साल पहले तक नहीं था। तब केवल नीलगाय हुआ करती थीं। लेकिन अब तो हर तरफ आवारा गाय और सांड ही नजर आते हैं।” हरकेश ने अपने खेतों से सटे 20 बीघे बंजर पड़े खेद दिखाकर कहा “पानी का साधन होने के बावजूद, ये चक परती पड़े हैं। लागत तक नहीं निकल पाती है इन छुट्टा सांडों के कारण। जुताई, खाद, बीज, कीटनाशक पानी, मजदूरी सब जोड़ने के बाद भी जब खेत में फसल नहीं बचती तो लोगों ने बोना ही छोड़ दिया है।”

खेतों को परती रखना अशुभ माना जाता है, ऐसी मान्यता रही है, यह पूछने पर हरकेश जी बोले “हां अशुभ तो होता है। लेकिन क्या करें जब बचेगा ही नहीं तो। नीलगाय टिकाऊ जानवर नहीं है वो डराने पर भाग जाता है लेकिन छुट्टा जानवर नहीं भागते। वो झुंड के झुंड चलते हैं और सब चट कर जाते हैं।”

सारी रात खेतों की पहरेदारी

यहाँ से हम सेंहुरवा गांव पहुंचे, और खेतों और नालियों से होते हुये शिव कुमार के खेतों में घुस गये। शिव कुमार सरसों के खेत में बने 7 फुट ऊँचे मचान पर सो रहे थे। जगाने पर बोले “रात भर खेतों की रखवाली में जगना पड़ता है, दिन में यहीं मचान पर सो जाते हैं।” यह कहानी यहाँ पर आम है।

शिव कुमार बटाई पर खेती करते हैं। उन्होंनें खेतों के चारो ओर बांस की बाड़ लगा रखी है और कांटों से रूंध रखा है, और मचान बनाकर रखवाली करते हैं। इतने इंतजाम के बावजूद जंगली सुअरों ने खेतों में घुसकर उनकी सरसों की फसलों को मटियामेट कर डाला है। शिव कुमार अपने खेतों में सुअर के आंतक के निशान को दिखाते हुये बताते हैं कि “इस सीजन में डीएपी और यूरिया खाद की बहुत किल्लत हो गई थी। छुट्टा जानवरों में भैंस और भैंसा नहीं दिखते सिर्फ़ गाय सांड़ ही हैं। सरकार जानवर काबू में कर ले तो किसान खेती से ही जी खा लेगा, वर्ना किसानों के सामने कोई रास्ता नहीं बचेगा।”

हमें बातें करते देख प्रदीप मिश्रा व राधे श्याम मिश्रा ने भी बातचीत में उत्साह दिखाया। दोनों लोग छुट्टा सांड़ों के आतंक का एक दूसरा कारण चकबंदी का निस्तारण न हो पाना बताते हैं। प्रदीप मिश्रा ने कहा कि चकबंदी विभाग के अधिकारियों ने भूमाफियों के साथ सांठगांठ कर चकबंदी का कोई निस्तारण नहीं किया। जनहित में इसकी लिखा-पढ़ी भी हुई, चंकबंदी आयुक्त का लिखित आदेश भी आया, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। इसलिये चंकबंदी विभाग क़सूरवार है। उनका कहना था कि छुट्टा गाय और सांड़ों के चलते गाँव से पलायन की स्थिति बनी हुई है।

यहां से आगे बढ़ते हुए हम उगईपुर गांव पहुंचे। वहां एक अधेड़ किसान सड़क से सटे खेत में गेहूं की फसल में दूसरी बार सिंचाई करते हुए मिल गये। हाथ में खुर्पी लिये एक बटहा से दूसरे बटहा पानी सम्हलाते हुये वह बताते हैं कि कंटीले तार का बाड़ खींच रखा है, फिर भी जानवरों के मारे फसल नहीं बच रही। वो क्रुद्ध स्वर में कहते हैं “जब से जोगी आये हैं, सांड़ों की बहार है, किसानों के यहां मातम है। जोगी किसानों के उपर गाय, सांड सुअर सब छोड़ दिये हैं।”

अपने स्थानीय सांसद-विधायक से इसके बारे में पूछते क्यों नहीं, पूछने पर वे कहते हैं “यहां कोई नहीं आता भैय्या। वोट लेने के बाद कोई नहीं झांकता कि हम जी रहे हैं कि मर रहे हैं। 3 भाईयों में 3 बीघे साझा खेत में एक मड़हा बनाकर रहते हैं, और रात भर जागकर खेतों में रखवाली करते हैं। पहले दाल नहीं ख़रीदनी पड़ती थी, सब कुछ खेतों में हो जाता था। अब दाल भी ख़रीदकर खाना पड़ता है। किसानी जीवन की समस्यांओं को हमसे साझा करते हुये वो कहते हैं “मौके पर खाद और डीएपी नहीं मिलती। सिंचाई के समय बिजली नहीं मिलती। बिल इतना बढ़कर आता है कि जीना मुहाल है। दूसरों से कर्ज़ा लेकर बिजली का बिल जमा किया है। नहीं भरते तो सरकार छोड़ देती क्या?” रोज़गार के सवाल पर उन्होंने बताया, “चार बच्चे हैं। यहां काम नहीं मिला तो एक सूरत चला गया। वहां वो सब्ज़ी का धंधा करता है। दूसरा लड़का फर्नीचर की दुकान पर रहता है। कोरोना की वजह से बहुत तकलीफ झेलनी पड़ी। एक बार मारकर जब भगाये जा रहे थे यूपी-बिहार के लोग, तब घर लौट आया था। फिर गया तो कोरोना ने घेर लिया।”

महंगाई के मुद्दे पर उनका कहना था “फसल जब तक हमारे खेतों में रहती हैं, तो दाम ज़मीन पर रहता है और जैसे ही बाज़ार में पहुंच जाता है और हमें ख़रीदना पड़ता है तो वही चीज दोगुने-चौगुने दाम पर मिलता है।”                                                                

कृषि विविधता खत्म कर रहे छुट्टा जानवर

प्रतापगढ़ में 4-5 साल पहले तक जिन खेतों में अरहर की फसले लहलहाया करती थी वहां आज या तो सरसों बोई गई है या फिर परती पड़ी है। हरकेश सिंह कहते हैं पहले इस इलाके में परबत अरहर होती थी परबत बाजरा होता था। लेकिन अब गेहूं और सरसों के अलावा कुछ नहीं दिखेगा। वो भी बच गया तो ठीक, नहीं तो वो भी चौपट हैं। गंजी, मटर, चना अरहर सब होता था जानवरों की वजह से कुछ नहीं हो रहा। परती खेतों का शोक मनाते हम आगे बढ़े जा रहे थे, कि निषाद चौराहे के आस-पास कुछ खेतों में अरहर की फसल और उनमें आये फूल देखकर हम ठिठक गये। बचपन उछलकर आगे खड़ा हो आया। स्कूल जाते-आते समय अक्सर हम बच्चे अरहर की फलियां तोड़कर रास्ते भर खाते जाते। ख़ैर। जय निषादराज चौराहे पर हम खड़े हुये तभी वहां से निषाद पार्टी के प्रत्याशी और कार्यकर्ता इनोवा कार से आये और कुछ सेंकड को चौराह पर खड़े हुये लेकिन शायद हमें वहां लोगों से बातें करते देख आगे बढ़ गये। चौराहे पर एक छोटी से चाय की दुकान पर चाय पीते राम कृपाल पटेल बताते हैं, “पानी की बहुत दिक्कत है। बिजली का कनेक्शन नहीं है। केवट बस्ती में बिजली नहीं है। लोगों को मिट्टी का तेल भी नहीं मिलता है। अँधेरा दूर करने के लिये वो मोमबत्ती ख़रीदकर लाते हैं।”

यहाँ से निकले तो शाम हो चली थी। हवा में ठंडापन बढने लगा था। हमने रानीगंज होते हुये जौनपुर की ओर जाने का फैसला किया। कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक मोड़ पर शीत लाल धुरिया पूरे परिवार के साथ आलू की खुदाई में लगे हुए थे। पता चला कि शीतलाल धुरिया के पास अपना कोई खेत नहीं है। एक उपाध्याय परिवार का खेत अधिया पर लेकर खेती करते हैं। इत्तेफाक से खेत मालकिन भी वहां पर मौजूद थीं। शीतलाल धुरिया ने हमें बताया कि वो अक्सर (सामान्य समय से पहले पैदा होने वाला आलू) लगाते हैं, और उसी की खुदाई कर रहे हैं। नई खोदी आलू दिखाते हुये शीतलाल धुरिया बताते हैं कि देखो आलू की साइज। क्योंकि डीएपी खाद नहीं मिली। इस समिति से उस समिति दौड़ने के बावजूद, जब नहीं मिली तो बाज़ार से 1500 रुपये में नंबर दो की डीएपी ख़रीदकर आलू की बुआई की थी। लेकिन नकली डीएपी थी वो। कुछ काम ही नहीं किया। आलू छर्रा रह गये।  

किसानी जीवन के अन्य समस्याओं पर बात करते हुए शीतलाल कहते हैं “जानवरों का आतंक है। सुअर सब उखाड़ देते हैं। पानी की सुविधा नहीं है। 120 रुपये घंटे की दर से पानी यदि मिल भी गया तो बिजली कट जाती है। बीच-बीच में तो सिंचाई की लागत भी बढ़ जाती है। 16 रुपय. किलो की दर से खरीदे हुए आलू को लगाया है, जब बेंचूगा तो 7-8 रुपये किलो से अधिक पर नहीं बिकेगा। अरहर भी बोया था, लेकिन जानवरों ने सारा चर लिया। लहसुन धनिया सब चर गये।

तभी दूसरे खेत से कांधे पर कुदाल धरे खेत मालिक संतोष कुमार उपाध्याय मिल गए, कहने लगे “योगी- मोदी गाय-बछड़ा छोड़ दिये हैं। इनकी कोई व्यवस्था नहीं है। सारी खेती चरि के खाय लेत हैं। जितना 10 किलो देते हैं, उससे न जाने कितने कुंटल फसल सांड़ों गायों से खियाय देते हैं। चार बीघा सरसों में 40 बोझ पैदा होई, सब चरि लिये हैं।”

कृषक संतोष कुमार उपाध्याय

बटाईदार चित्रा देवी प्रजापति का स्वर लाचारगी से आक्रोश में बदल जाता है। कहती हैं “हमरे खेते में नाही होत बा तौ छीमी मटर 35-40 रुपिया किलो मिलत बा। निमोना खाय के तरसि गये।” हाथ से इशारा करते हुए उन्होंने बताया “यूं मोटी मोटी गंजी (शंकरकंद) होती रही आज आंख में दरेरै के सुतरा तक मुअन्सर नाही होत बा। सब छुट्टा जानवर और जंगली सुअर के चलते। दर्जन भर जानवर कूद परत हइ तो चरि के बैठाय देति हैं। 10 हजार लागत लगावा और 2 हजार से फसल नाही मिलत बा। अधिया तिकुरी खेत लिहे अहि। बांस लगाये हैं ख़रीद के। साड़ी पांच पांच सौ के ख़रीदे रहे पहिरै के लिये। लेकिन खेत के लागत जाते नहीं देखा जात भैय्या। सब साड़ी खेत में बांध दी।”

कोरोना का जिक्र छिड़ा तो संतोष उपाध्याय कहने लगे “माघमेला में मनई नहायेंगे तो वहां कोरोना नहीं है, जहां छात्र पढ़ेंगे वहां स्कूल कॉलेज यूनिवर्सिटी में कोरोना धरा बाऑ। केंद्र सरकार राज्य सरकार का आदेश जारी हो जाता है कि स्कूल कॉलेज यूनिवर्सिटी बंद करो। लेकिन फीस पूरा वसूल लेगें। ये तो नहीं करेंगे कि दो चार महीना की फीस माफ कर दें। वो पूरा के पूरा देना पड़ेगा। उसमें कोई रियायत नहीं है।”  

वहां से निकले तो रानीगंज में मिर्जापुर चौहारी बाज़ार पर स्थानीय बाज़ार लगा हुआ था। आस-पास के मोहल्लों के कुर्मी कोइरी मौर्या सब्जियां सजाये बैठे थे। पालक, मूली, सोया, छोड़ अधिकांश फसलें वे मंडियों से ख़रीदकर लाये थे। प्याज और मटर बाहर की मंडियां से यहां चौक में बिकने के लिये लाया गया था। बाज़ार में दुकान लगाने वाले अधिकांश लोगों ने बताया कि लोग कम ख़रीद रहे हैं। वहीं ख़रीदारों ने भी बताया कि इस सीजन में कभी सब्जियां इतनी महंगी नहीं होती थीं। दाल, तेल सब्जी ने तो पसीने छुड़ा दिये हैं। जौनपुर मछलीशहर के बेलवार बाज़ार में रवींद्र धर दूबे से मुलाक़ात हो गई। कहने लगे जिला बदला लेकिन हालात नहीं बदले। मुंह में पान का पीक दबाये भुइंधरा गांव के रवींद्र धर बताते हैं “योगी के सांड़ सारी फसल खा गये हैं। बहुत नुकसान हो रहा है। किसान परेशान हैं। कहते हैं हमारे यहां मक्का, बाजरा, अरहर मटर आलू की बढ़िया फसल होती थी। लेकिन चार सालों से या तो खेतों में 90 प्रतिशत लोग सरसों बो रहे हैं या परती छोड़ दिया जा रहा है। जो बो रहे हैं वो यह भलीभांति समझकर बो रहे हैं कि कुछ मिलने वाला नहीं है। चार साल पहले तक ऐसी स्थिति नहीं थी।”  

बेल्वार बाज़ार से हमने मुंगरा बादशाहपुर रोड पकड़ लिया। 15 किलोमीटर लंबी सड़क पर 20 की स्पीड में भी बाइक उछल रही थी। पहिये के नीचे बोल्डर पड़ता तो हैंडल सम्हालना मुश्किल हो जाता। पीछ बैठे-बैठे मेरी कमर दुखने लगी। सड़क पर मिल रहे झटकों ने मन में भय भर दिया कि कहीं स्लिप डिस्क का शिकार न हो जाऊँ। प्रदेश भर में प्रमुख शहरों की प्रमुख सड़कों और चंद एक्सप्रेसवे से पूरे प्रदेश और देशभर में करोड़ों रुपयों के विज्ञापन रह-रहकर याद आ रहे थे, लेकिन यह कहानी तो प्रदेश के सभी जिलों और कस्बों की है। जिले के किसान और कामगार आज भी प्रेमचन्द के ‘गोदान’ के होरी की तरह चुपचाप जिए जा रहे हैं, और किसी को दोष देने के बजाय अपनी किस्मत को दोष देते लगते हैं। देखना होगा लोकतंत्र में अपनी दावेदारी को ये लोग कब बुलंद करते हैं, वरना शासन के लिए आगे भी उनसे श्रेष्ठ जानवर ही बना रहने वाला है।  

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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