Monday, April 29, 2024

ग्राउंड रिपोर्ट: प्रयागराज माघ मेला उजड़ा, फिर रोजी-रोटी का सवाल

प्रयागराज में गंगा के किनारे 6 जनवरी से लगा माघ मेला यूं तो 18 फरवरी महाशिवरात्रि तक चलेगा, लेकिन माघी पूर्णिमा के साथ मुख्य पांच नहावनों के बीत जाने के साथ ही कल्पवासी अपने घर वापस लौट गये हैं। केवल परेड ग्राउंड पर जहां दुकानें लगी हैं वहां और नहावन घाटों के पास ही लोग दिखते हैं। ऐसे में छोटे दुकानदारों और सफाईकर्मियों के सामने फिर से रोटी रोजी का सवाल उठ खड़ा हो गया है।  

धार्मिक महत्व के अलावा, माघ मेले का आर्थिक महत्व भी होता है। चूंकि मेलों का भी एक अर्थतंत्र होता है। मेला लगता है तो कई लोगों को रोटी-रोजी मिलती है। लेकिन डेढ़ महीने के लिये बसी इस दुनिया के उजड़ने का छोटे दुकानदारों पर बहुत बुरा असर पड़ता है। परेडग्राउंड से लेकर दारागंज तक और झूंसी और दारागंज के बीच 700 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले मेले में क़रीब 3-4 लाख लोगों ने कल्पवास किया।

इसके अलावा नहावनों और अन्य अवसरों पर लाखों लोगों का आना-जाना होता रहा। मेला क्षेत्र में इतनी बड़ी आबादी की सेवा के लिये दो तरह के कामों का सृजन हुआ। जहां इतनी बड़ी आबादी निवास करती है और रोज़ाना आती जाती है, वहां साफ-सफाई का काम होता है। जिसके लिए माघ मेले में बड़ी संख्या में सफाईकर्मियों की नियुक्ति की जाती है। और दूसरा इतनी बड़ी आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये सामानों की बिक्री का काम।

पहले बात करते हैं मेले में दुकान लगाने वालों की। माघ मेले में हर साल एक स्थापित और व्यवस्थित दुकानदारी का काम परेड ग्राउंड में होता है। जहां रजिस्ट्रेशन और शुल्क लेकर दुकान लगाने के लिये ज़मीन प्रशासन द्वारा आवंटित की जाती है। यहां दुकान लगाने वाले लोग ठीक-ठाक पूंजीवाले होते हैं और इनकी कहीं न कहीं शहर में स्थायी दुकानें होती हैं। परेड ग्राउंड में हजारों दुकानें लगती हैं। जहां कपड़े, फुटवियर, फर्नीचर, बर्तन क्रॉकरी से लेकर खाने पीने की हर चीज की दुकानें होती हैं।

वहीं दूसरे तरह के दुकानदार जो छोटी पूंजी वाले होते हैं। इन लोगों को कोई परमिट नहीं मिलती है और ये लोग घुसपैठियों की तरह मेला क्षेत्र के तमाम सेक्टरों में चकर्ड प्लेट के रास्तों पर और परेड की ओर जाने वाली मुख्य सड़कों के फुटपाथ पर अपनी दुकानें सजाते हैं या चलते फिरते हुए सामान बेचते हैं।

परेड ग्राउंड में जहां बच्चों के लिये झूले लगे हुये हैं वहीं गेट पर 11 साल की दुबली पतली लड़की यात्रा, आलता और सिन्दूर की छोटी सी दुकान सजाये बैठी है। यात्रा बाराबंकी से आयी है। उसके माता पिता भी मेले में काम कर रहे हैं। क्या आप स्कूल नहीं जातीं- पूछने पर यात्रा बताती है कि जाती हूं, लेकिन काम के समय नहीं जाती। वो कहती हैं कि मेला खत्म होने के बाद जब वापस अपने गांव जायेगी तो स्कूल जाएगी।

माघ मेला में यात्रा

एक दिन में कितने की बिक्री हो जाती है पूछने पर यात्रा बताती हैं कि दो से तीन सौ रुपये की। जिस दिन मेला ज़्यादा होता है उस दिन पांच सौ रुपये की बिक्री भी हो जाती है। मेला खत्म होने के बाद रोजी रोटी कैसे चलेगी पूछने पर यात्रा बताती हैं कि अभी कुछ दिन घर पर रहेंगे और फिर हरिद्वार मेले में जाएंगे।

पंटून पुल नंबर तीन के पास एक मल्लाह लड़की जिसकी उम्र क़रीब 7 साल होगी, मिट्टी के चूल्हे और उपले (कंडा) बेंच रही है। चूल्हे बीस रूपये का एक और कंडे 10 रुपये का दस। एक दिन में कितने चूल्हे बेच लेती हो पूछने पर वो बताती है कि कुछ निश्चित नहीं है। अच्छा कौन लोग ख़रीदते हैं, पूछने पर वो बताती है जो लोग एक दिन या दो दिन के लिये दूर से आते हैं। फिर वो लड़की जनचौक संवाददाता से पूछती है कि आप इतनी पूछताछ क्यों कर रहे हो।

जेब से मोबाइल निकालता देख लड़की दुकान छोड़ भागकर थोड़ी दूर पर अपोजिट पटरी पर बैठी अपनी मां के पास जाकर खड़ी हो जाती है। जनचौक संवाददाता जब उसकी मां की दुकान के पास जाता है तो वो भी दुकान छोड़कर खड़ी हो जाती है और यह कहते हुये दुकान से हटने लगती है कि बाबू फोटो मत खींचिये। जब तक संवाददाता आगे नहीं बढ़ गया वो लोग दुकान पर नहीं लौटे और ना बात करने को राजी हुए।

मिट्टी के चूल्हे और उपले बेचता मल्लाह परिवार

चुंगी साइड से परेड ग्राउंड मेला क्षेत्र में घुसते ही पक्की सड़क के किनारे फुटपाथ पर, पेड़ के नीचे रोल गोल्ड (गिल्ट) के आभूषणों की दुकान सजाये बैठे हबीब और गुड्डी से मुलाकात होती है। लाल कपड़े पर पायल, मंगलसूत्र, जंजीर, अंगूठी, बिछुआ आदि बेचते हुए हबीब बताते हैं कि ये माल आगरा से बनकर बनारस आता है। वहां थोक व्यापारी से वो ख़रीदकर यहां बेचते हैं। वो बताते हैं कि उनके कस्टमर खेतिहर मज़दूर, दिहाड़ी मज़दूर और सफाई आदि के कामों में लगे लोग होते हैं।

हबीब बताते हैं कि उन्होंने बंधन बैंक से 80 हजार रुपये लोन ले रखा है। वो भूमिहीन हैं और 12 फीट की आबादी की ज़मीन पर घर बनाकर परिवार के साथ रहते हैं। हबीब की पत्नी गुड्डी बताती हैं कि कुछ लोग उनके घर में बिजली का मीटर टांग गये थे। जिसका 38 हजार रुपये बिजली का बिल आया है जबकि दो बल्ब जलाने और मोबाइल चार्ज करने के अलावा और कोई काम नहीं लेते। उनके घर में एक पंखा तक नहीं है।

ये लोग गांव नवानीपुर, तपसेठी, बनारस से आये हैं। मेला खत्म होने के बाद क्या करेंगे, पूछने पर हबीब बताते हैं कि वापस अपने गांव बनारस जाएंगे और फेरी लगायेंगे। इस माहौल में जब एक मुस्लिम चूड़ीवाले की इंदौर में मॉब लिंचिंग कर दी जाती है, डर नहीं लगता फेरी लगाने में। हबीब बताते हैं डर तो लगता है लेकिन भूखे तो नहीं मर सकते। भूख का डर, हर डर से बड़ा होता है। हबीब बताते हैं कि वो सिर्फ़ कुछ जान पहचान के मोहल्लो में ही जाते हैं, बिक्री हो या न हो वो अनजान बस्तियों में नहीं जाते।

आभूषण की दुकान पर बैठे हबीब और गुड्डी

राजस्थान के जयपुर से सूरज और उनके दो भाई अपने परिवार के साथ माघ मेले में आये हैं। वो भी पक्की सड़क के किनारे फुटपाथ पर टैटू बनाने की अपनी दुकान सजाये बैठे हैं। एक छोटी सी लॉरी में वो लोग अपना परिवार और घर गृहस्थी लादकर आये हैं। सूरज बताते हैं कि अधिकांश कस्टमर अपना या अपने साथी का नाम लिखवाते हैं। सूरज प्रति शब्द लिखने के बीस रुपये लेते हैं।

रंगीन टैटू प्रति वर्ग सेमी 100 रुपये चार्ज करते हैं। सूरज के ग्राहकों में नये उम्र के लड़के लड़कियां हैं। क्या आप जहां रहते हो वहां या अपने नज़दीकी शहर में टैटू बनाने की दुकान नहीं खोल सकते, पूछने पर सूरज बताते हैं कि शहर में दुकान खोलने पर कमरा लेना पड़ेगा और हर महीने किराया देना पड़ेगा। वो बताते हैं कि एक जगह ज्यादा दिन टिकने पर काम मंदा पड़ने लगता है क्योंकि रोज रोज तो कोई टैटू बनवाने आयेगा नहीं।

क्या मेले में इतनी कमाई हो जाती है कि बिना कोई काम किये कुछ महीने बैठकर खाया जा सके। पूछने पर सूरज हंसते हुए कहते हैं नहीं इतनी कमाई नहीं होती। लेकिन हां रोजाना 5-7 सौ रूपये का काम हो जाता है। जिस दिन मेला ज़्यादा लगता है उस दिन कमाई दोगुनी हो जाती है। सूरज बताते हैं कि मेला खत्म होने पर वो लोग अपने गांव जाएंगे और कुछ दिन रुककर फिर कहीं किसी और मेले में डेरा डालेंगे।

टैटू बनाते सूरज

दारागंज साइड से पंटून पुल नंबर पांच पर उतरकर कुछ कदम चलने पर अन्नपूर्णा मार्ग के पास रामलाल भरतीया अपने ऊंट के साथ मिल जाते हैं। वो मेले में ऊंट की सवारी करवाते हैं और प्रति सवारी 20 रुपये लेते हैं। 70 वर्षीय रामलाल बताते हैं कि वो जवानी के दिनों में ऊंट से बोझा ढोया करते थे। लेकिन ट्रैक्टर और मिनी ट्रक आदि के आने से वो काम लगभग खत्म हो गया।

रामलाल यहां के लोकल ही हैं। मेला खत्म होने के बाद क्या करेंगे। पूछने पर वो निराशा भरे स्वर में कहते हैं- मेला खत्म, खेला खत्म। रिटायरमेंट की उम्र में कमाने की क्या आन पड़ी पूछने पर वो कहते हैं- मज़दूर के परिवार में हर व्यक्ति को कमाना पड़ता है।

अपने ऊंट के साथ रामलाल भरतीया

पंटून पुल नंबर 4 पर बच्चों के लिये ट्रेम्पोलिन लगाये बैठे नंन्दलाल वैश्य पड़ोसी जिला प्रतापगढ़ से आये हैं। नन्दलाल का एक हाथ नहीं है। नन्दलाल बीबी और चार बच्चों के साथ 3 जनवरी से ही मेले में डेरा डाले हुये हैं। एक सेक्टर में एक सप्ताह डेरा डालने के बाद वो दूसरे सेक्टर में शिफ्ट कर लेते हैं। 10 रुपया (10 मिनट के लिये) प्रति बच्चा लेते हैं।

नन्दलाल बताते हैं कि एक हाथ नहीं होने के चलते वो मेहनत मजदूरी नहीं कर सकते हैं तो उन्होंने बच्चों के लिये ट्रेम्पोलिन ख़रीद लिया है। एक दिन में कमाई पूछने पर वो बताते हैं कि रोज़ाना एक से डेढ़ हजार रुपये की आमदनी हो जाती है।

मेला खत्म होने के बाद क्या करेंगे पूछने पर नन्दलाल बताते हैं कि जो कुछ पूंजी जुटेगी उससे परचून की एक छोटी सी दुकान है उसमें सामान भरेंगे और उसी से कमायेंगे खाएंगे।

माघ मेले में नंन्दलाल वैश्य

अब बात सफाईकर्मियों की। माघ मेले में ठेकेदारों द्वारा सोनभद्र, चंदौली, फतेहपुर, कौशाम्बी, चित्रकूट, मुरादाबाद, मिर्जापुर, बांदा, महोबा, औराई आदि से सफाईकर्मी लाकर संविदा पर रखे गये हैं। इन लोगों की हायरिंग एक से डेढ़ महीने के लिये होती है। मेला क्षेत्र में सड़कों और टेंटों, पंडालों के अलावा, 11,000 संस्थागत और 4,000 व्यक्तिगत शौचालयों और घाट पर बने अतिरिक्त शौचालयों की सफाई की जिम्मेदारी भी इन्हीं लोगों पर थी।

इस बार क़रीब 4-5 हजार सफाईकर्मी मेला क्षेत्र में काम पर लगाये गये जिनमें महिला सफाईकर्मी भी शामिल हैं। कई बार काम कराने के बाद ठेकेदार पैसा नहीं देते और पूरे साल ये लोग पैसा नहीं पाते हैं। बांदा से आये सफाईकर्मी लालचंद बताते हैं कि उनके और साथी लौट गये बस कुछ ही लोग बचे हुये हैं। लालचंद की संगिनी भी सफाईकर्मी का काम करती हैं और वो भी मेले में आई हैं।

मेला खत्म होने के बाद क्या करेंगे पूछने पर लालचंद बताते हैं कि दिहाड़ी का काम ढूंढ़ेंगे, खेतों में कुछ दिन का काम मिलेगा और ऐसे ही गुज़ारा होगा। लालचंद बताते हैं यहां उन लोगों को बहुत अच्छा सलूक और सहूलियत नहीं मिलती है लेकिन पेट और परिवार के लिये सब कुछ सहना पड़ता है।

लालचंद बताते हैं कि 31 जनवरी मंगलवार को उनके साथी रामरतन की मौत हो गई। तबीयत खराब होने पर इलाज कराने के बजाय ठेकेदार ने उसे तीन दिन पहले नौकरी से निकाल दिया था। रामरतन की तबीयत खराब होने पर उसे स्वरूपरानी अस्पताल ले जाया जा रहा था लेकिन पुलिस ने एंबुलेंस को मेला क्षेत्र में रोक दिया जिससे वो अस्पताल नहीं पहुंच पाया और उसकी मौत हो गई।

अब ऐसे में ये सवाल उठ खड़ा होता है कि ये छोटे दुकानदार और सफाईकर्मी कहां जाएंगे और क्या कमायेंगे। इनके सामने रोजी रोटी एक बड़ी चुनौती बन कर रह गई है। क्या मेला खत्म होने के बाद दर दर की ठोकरें खाना ही इनकी नियती है?  

(प्रयागराज से सुशील मानव की ग्राउंड रिपोर्ट)

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