Thursday, April 25, 2024

पुण्यतिथि पर विशेष: बेहद उदात्त शख्सियत के मालिक थे मुंशी प्रेमचंद

प्रेमचन्द के जीवन और व्यक्तित्व के बारे में जो भी तथ्य मिलते हैं उनसे अन्ततोगत्वा इसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि वे एस असाधारण साधारण इन्सान थे। शायद उनके व्यक्तित्व की इसी खूबी ने उन्हें आम-फहम नजर आती जिन्दगियों के ऐसे पहलुओं को उद्घाटित करने की सामर्थ्य दी जो स्वयं में असाधारण होने पर भी एक साधारण इन्सान की जिन्दगी में स्वाभाविक स्थान लिये हुए है।

एक साधारण इन्सान स्वयं में कितनी उदात्त और क्षुद्र भावनाओं का पुंज होता है जो उसकी स्वाभाविक जिन्दगी के समूचे ताने-बाने को बुनता है, प्रेमचन्द ने शायद खुद अपनी जिन्दगी के अनुभवों से इस सच्चाई को आत्मसात कर लिया था। यही वजह है कि आम आदमी की जिन्दगी का ऊपरी सहज स्वरूप और उस सहजता को संगठित करने वाली विभिन्न परस्पर-विरोधी और परस्पर-पूरक प्रवृत्तियों के अन्तर्विरोध और अन्तर्संबंध उनके सम्पूर्ण लेखन में यथार्थ-रूप में अभिव्यक्त हो पाये हैं। 

यही जहाँ उनके लेखन की मूल शक्ति है, वहाँ जीवन के प्रति उनकी यथार्थपरक और प्रगतिशील मानवतावादी दृष्टि का आधार भी। शायद यही दृष्टि उनके स्वयं के जीवन में उदात्त मानवतावादी पहलुओं के विस्तार की प्रेरणा और शक्ति देती है और साथ ही दुनियादारी की वह संतुलित समझ भी जिसके अभाव में शोषण पर आधारित समाज व्यवस्था में एक ईमानदार मानव प्रेमी इंसान या तो अजायबघर की चीज बनाकर नुमाइश के लिये रख दिया जाता है या फिर अनेकानेक ग्रंथियों और कुंठाओं का शिकार बनाकर छिन्न-भिन्न कर दिया जाता है। सारत: यथार्थ दुनिया से उसके सम्पर्क टूट जाते हैं।

बहुत ही सीधी जुबान में प्रेमचंद के व्यक्तित्व के बारे में यह कहा जाता है कि वे एक अच्छे इन्सान, अच्छे पिता, अच्छे पति और चिंतनशील व्यक्ति थे। वैसे उनके व्यक्तित्व की चर्चा करते वक्त शिवरानी देवी की ही बात खुद को महसूस होती है कि “मैं जानती हूँ कि उनके गुणों का बखान करने में मैं तिल का ताड़ भी बनाती तो भी उनके चरित्र की विशालता का पूरा परिचय नहीं मिला पाता” (प्रेमचन्द घर में, शिवरानी देवी की भूमिका से)।

प्रेमचंद के रोजमर्रे की जिन्दगी, उनकी चिट्ठी-पत्री, उनके साहित्य और उनकी सामाजिक गतिविधियों के बारे में जो कुछ उपलब्ध है, उन सबका बखान करके भी इस सामान्य जिंदगी में व्यक्तित्व की विशालता की गहराइयों को मापा जा सकेगा या नहीं, मेहनत और महनतकशों के प्रति उनकी अडिग आस्था, दिखावे से कोसों दूर, सिद्धान्त और व्यवहार के बीच मेल बिठाने के उनके जीवन-पर्यन्त अथक संग्राम, हर प्रकार की गुलामी के खिलाफ समाज के कमजोर हिस्सों को जाग्रत करने के उनके अदम्य संकल्प, सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सत्य के कंकरीले रास्ते पर उनकी अविराम यात्रा, न्याय-अन्याय, अच्छे और बुरे के बीच पहचान कराने की साहित्य की सामाजिक भूमिका को समझते हुए यथार्थवादी साहित्य के सृजन-कार्य में उनकी अटूट लगनशीलता, मेहनतकशों के बीच कृत्रिम विभाजन की दीवारें खड़ी करने वाली जातिवादी और साम्प्रदायिक ताकतों, दमनकारी अंग्रेजों, हिंदू समाज के टके पंथियों और धार्मिक पाखण्डियों के प्रति उनकी तीव्र घृणा, विज्ञान की तरह ही समाज विज्ञान के सर्वव्यापी स्वरूप की उनकी गहरी समझ को प्रस्तुत किया जा सकेगा या नहीं, इसमें संदेह है।

सतही तौर पर देखने से शायद प्रेमचंद नामक यह इन्सान घर-गृहस्थी के पचड़े में पड़ा हुआ, एक तंगदस्त मुदर्रिस ही नजर आये। ठीक उसी प्रकार जैसे कि आम जिन्दगी में देखने पर होरी की विलक्षणताएँ जाहिर न हों। इसके लिये जरूरी है प्रेमचंद की ही तरह की निगाह की। और यह निगाह, यह दृष्टि, यह बोध तभी हो सकता है जब एक आम आदमी, जो होरी भी हो सकता है और कलम का मजदूर प्रेमचंद भी हो सकता है, कि जिंदगी को बनाने वाले एक-एक रेशे को हम अलग-अलग और उनके गुंथे हुए रूप में देख सकें। निश्चित रूप में इसे पहचानने के लिये हमें उस मिट्टी, उस हवा, और उस खाद को भी पहचानना पड़ेगा जिसके बीच जिंदगी का यह पौधा खड़ा होता है और फैलकर एक विशाल वृक्ष का रूप धारण करता है।

बहुत ही प्रतिकूल स्थितियों में खड़े हुए इस पौधे की खासियत इसी में है कि शुष्क आबो हवा में भी इसने अपना अस्तित्व बनाये रखा, ईमानदारी पूर्ण जीवन के लिए लगातार संघर्ष करता रहा और हमेशा कोई न कोई मार्ग ढूँढ़ निकाला।

बचपन में माँ का प्यार छिन गया तो कहीं से ‘कजाकी’ मिल गया। गाँव का डाकिया, मिला चाहे थोड़े समय के लिये ही लेकिन इस छोटे से दिल में प्यार का हमदर्दी का एक गहरा अहसास हमेशा के लिये छोड़ गया। ‘कजाकी’ की सहृदयता ने प्रेमचंद के हृदय में भी सहृदयता बीज बो दिया। खुद उन्हीं के शब्दों में – “मेरी बाल-समृतियों में कजाकी एक न मिटने वाला व्यक्ति है। आज चालीस वर्ष गुजर गये लेकिन कजाकी की मूर्ति अभी तक आँखों के सामने नाच रही है …. कजाकी जाति का पासी थी, बड़ा ही हंसमुख, बड़ा ही साहसी, बड़ा ही जिंदादिल। मुझे देखकर वह तेज दौड़ने लगता, उसकी झुनझुनी और तेजी से बजने लगती, और मेरे हृदय में और जोर से खुशी की धड़कन होने लगती। हर्षातिरेक में मैं भी दौड़ पड़ता, और क्षण में कजाकी का कंधा मेरा सिंहासन बन जाता, वह स्थान मेरी अभिलाषाओं का स्वर्ग था। …..संसार मेरी आँखों में तुच्छ हो जाता। ……उसकी कहानियों के चोर और डाकू सच्चे योद्धा होते थे जो अमीरों को लूटकर दीन-दुखी प्राणियों का पालन करते थे, मुझे उन पर घृणा के बदले श्रद्धा होती थी।” (‘कजाकी’ कहानी से)

सौतेली माँ की निर्दयता के बजाय कजाकी और गांव के दूसरे सीधे-सादे इंसानों की हार्दिकता उनके व्यक्तित्व निर्माण की बुनियाद के तौर पर कहीं अधिक प्रभावशाली साबित हुई, यद्यपि किशोर और युवा प्रेमचन्द को अभी और भी अनेक अप्रिय मोड़ों में — ‘लालाजी ने मेरे लड़के को कुएं में धकेल दिया। अफसोस मेरा गुलाब-सा लड़का और उसकी स्त्री। मैं तो उसकी दूसरी शादी करूँगा। प्रेमचन्द के अनुसार वे “यथा रूप तथा गुण” वाली महिला थीं। इन्होंने और चाची (सौतेली माँ) ने मिलकर घर में कुछ ऐसा कुहराम मचाया कि वह कुछ ही दिन की मेहमान रहकर अपने घर चली गईं।  वैसे भी वे जितने समय घर में रहीं, प्रेमचन्द का उनके साथ सम्बंध नहीं रहा, प्रेमचन्द को प्राय: बाहर ही रहना पड़ता था।

जो भी हो, किसी तरह पहली पत्नी से मुक्ति पाने के बाद प्रेमचन्द ने दूसरी शादी की। इस घटना पर कई तथाकथित आदर्शवादी ठिठक जाते हैं। वे आह भरकर कहते हैं, एक महान आदर्शवादी लेखक ने ऐसा किया। पहली पत्नी को छोड़ दिया। जी हाँ, ये महोदय प्रेमचन्द को हाड़-मांस का इन्सान नहीं समझना चाहते। इनके लिये आदमी या तो देवता होता है या दानव। लेकिन प्रेमचन्द तो एक ऐसे इन्सान थे जो स्वस्थ और सुखी जीवन को अपना हक समझते थे उनके इस हक के मार्ग में आने वाले लोक-लाज और सामाजिकता की वे परवाह नहीं करते थे। प्रेमचन्द का परवर्ती जीवन इसे प्रतिपादित करने के लिये काफी है। किसी बोहेमियन ख्याल या “स्वतन्त्र पंछी” के आधुनिकतावादी विचार नहीं बल्कि एक स्वस्थ और सुन्दर जीवन की आकांक्षा ही उनके इस कदम की प्रेरक शक्ति थी।

घटनाक्रम की इसी कड़ी में शिवरानी देवी के साथ उनका विवाह स्वयं में हिंदू समाज में प्रचलित कुप्रथाओं और कुसंस्कारों को एक करारा तमाचा था। विधवाओं की जिंदगी के प्रति विगलित भावुकता की गंगा-जमुना बहाने, इनके विवाह के पक्ष में जबानी जमा-खर्च करने वाले कई प्रबुद्ध उस वक्त तक तैयार हो चुके थे, लेकिन प्रेमचन्द ने इस सबसे एक कदम आगे बढ़कर अपने उपन्यासों और निबंधों में ही नहीं बल्कि खुद अपनी जिंदगी में विधवा विवाह किया। यह कोई संयोग मात्र नहीं था। पहले से ही सोच-समझकर तय किया हुआ मामला था। “मुंशी दयानारायण के शब्दों में शादी के बारे में बड़े सोच-विचार और बहुत कुछ बहस-मुबाहिसे के बाद उन्होंने तय किया कि दूसरी शादी की जाए तो किसी विधवा ही से की जाए।”

दरअसल प्रेमचंद के व्यक्तित्व और जीवन की कहानी, जीवन को अपने विचारों के अनुसार ढालने के आत्मसंघर्ष और कार्यों की ही कहानी है। विधवा से विवाह का फैसला, आर्य समाज आंदोलन को उनकी आंतरिक स्वीकृति का ही परिणाम था। जिंदगी और विचारों के बीच दोहरापन उनकी सुख और शांति को छीन लेता था। उनके इसी आत्मनिर्णय का एक चरम उत्कर्ष उस वक्त देखने को मिलता है जब उन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के आह्वान पर अपनी आर्थिक तंगदस्ती की हालत में भी 20 वर्षों की सरकारी नौकरी को लात मार दी।

अपने विचारों और जिंदगी के बीच इस अनूठी एकता का बुनियादी कारण जो समझ में आता है वह है जीने के तौर-तरीकों के प्रति उनका दृष्टिकोण … अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त, सरकारी नौकरी होने तथा बी.ए. पास करके नौकरी में आगे और भी उन्नति के रास्ते खुल जाने के सारे संकेत मौजूद होने के बावजूद शान-शौकत या ऊँचे ओहदे वालों की दिखावे से भरी जिंदगी उन्हें कभी भी अपनी ओर नहीं खींच सकी। जिंदगी की भौतिक जरूरतों के रूप में उन्होंने रहने के लिए एक घर, पहनने को मोटे कपड़े तथा दो जून की रोटी से ज्यादा की ख्वाहिश नहीं की थी। यही वजह है कि सरकारी नौकरी छोड़कर अपनी कलम के बूते पर जीने का अहम फैसला लेते वक्त जिंदगी में संभावित अस्थिरता की आशंका उनके राह की बाधा नहीं बन पायी।

कहते हैं “शैली ही व्यक्ति है”, प्रेमचन्द के साहित्य की शैली ही उनके जीवन की शैली है। इसका स्पष्ट, निथरा हुआ, निर्भीक, बेबाक, बनावटीपन से कोसों दूर, चरित्रों में गहरे तक पैठने वाला स्वरूप ही प्रेमचन्द के स्वयं के व्यक्तित्व का वास्तविक रूप है कृत्रिमता से कोसों दूर रहने वाले प्रेमचन्द को कभी भी दिखावे की थोथी चीजों ने आकर्षित नहीं किया। प्रेमचन्द की शैली में यदि भारतीय किसान जनता की जिंदगी की धड़कनें सुनाई देती हैं तो इसलिये नहीं कि प्रेमचन्द ने एक दर्शक की भाँति इस जिंदगी को देखा था, बल्कि स्वयं उन्होंने इसे अपने भीतर बहुत हद तक जिया था। किसान जिंदगी में प्रचलित अंधविश्वासों और एक प्रकार की उजड्ड मानसिकता से जहाँ वे परे थे किन्तु वहीं उस जीवन की जी तोड़ मेहनत और सादगी से जीवन यापन करने की उस शैली को उन्होंने अपना लिया था। प्रेमचन्द के साहित्य में जमींदारों, शोषकों, पुरोहितों के प्रति यदि तीव्र घृणा एक क्रान्तिकारी चेतना से सम्पन्न किसान की घृणा थी और यही वजह है कि उन्होंने कभी भी राजा-महाराजों या जमींदारों के सामने झुकना पसंद नहीं किया।

प्रेमचन्द ने खुद को कभी एक मजदूर से ऊँचा नहीं समझा और इसलिये जीवन में भोग-विलास की कभी कामना भी नहीं की। जिस अवस्था में वे जी रहे थे उसमें वे अच्छी तरह समझते थे कि जरूरतों का फैलाव गुलामी का बढ़ता हुआ फंदा है। आदमी खुद अपनी जरूरतों का शिकार बनकर कठपुतली की तरह उसके हाथों में नाचने लगता है।

“हर आदमी की जीत इसी में है कि कम खर्च करना और अधिक मेहनत करना। जिसको यह सबक आता है वह किसी का गुलाम नहीं हो सकता।

मैं बोली- यह तो आपकी हमेशा की दलील है।

आप बोले – मेरी दलील नहीं है। मैं तुम्हें सच बताता हूँ, जो आदमी जितनी ही अपनी जरूरत बढ़ाता जाता है वह उतना ही ज्यादा अपनी गुलामी की बेड़ियों को मजबूत करता जाता है”।

बढ़ती हुई जरूरतें गुलामी का फंदा होती हैं इसीलिये प्रेमचन्द बहुत कम खर्च में गुजारा करना चाहते थे। लेकिन कम खर्ची की इस आदत ने उन्हें कभी कंजूस या तंगदिल इंसान नहीं बनाया।

जिस व्यक्ति ने अपनी शादी के वक्त कर्ज न लेकर सिर्फ 5 सेर गुड़ के शर्बत से मेहमानवाजी करके संतोष कर लिया हो उसी ने किन्तु एक गैर व्यक्ति की शादी के लिये कर्ज लेकर रुपये और गहनों का बंदोबस्त किया। शिवरानी देवी ने ऐसी कई घटनाओं का उल्लेख किया है, जब प्रेमचन्द ने आर्थिक तंगदस्ती में भी औरों की मदद की थी। और तो और, उनसे छिपाकर भी इस प्रकार के कई काम किये। यहाँ तक कि एकाध दफा तो ठगे भी गये।

प्रेमचन्द की जिंदगी की शुरुआत की कुछ ऐसी अवस्थाओं में हुई कि अपनी किशोरावस्था से ही उन्हें अपने तथा अपने परिवार का बोझ उठाना पड़ा। यहीं से खुद की मेहनत और मेहनत करने वालों की शक्ति के प्रति उनमें गहरी आस्था का जो बीज पड़ा वह आगे जाकर उनके बौद्धिक विकास के साथ ही समाज में होने वाले हर परिवर्तन को मेहनत और मेहनतकशों की दुनिया में होने वाले परिवर्तनों के पैमाने से मापने वाली दृष्टि के रूप में सामने आया।

कानपुर में ‘प्रताप’ के दफ्तर में काम में जी-जान से जुटे गणेश शंकर विद्यार्थी को देखकर शिवरानी देवी से उन्होंने कहा था “विद्यार्थी जी बड़े मेहनती हैं। कार्यालय का बहुत काम अपने हाथों ही करते हैं। इसे ही पुरुषार्थ कहते हैं। इसी तरह के आदमियों की मुल्क को जरूरत है। ऐसे ही आदमी अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि विद्यार्थीजी अपने जीवन में सफल हो जायेंगे।” कहना न होगा यही वे विद्यार्थीजी हैं, जिन्होंने साम्प्रदायिकता की बलिवेदी पर अपनी बली तक दी थी।

नौकरी छोड़ने पर जब कुछ हलकों से चिंता जाहिर की गयी तो बौखलाकर वे कहते हैं “मैंने नौकरी छोड़ी है अपनी कलम के बल पर। मैंने किसी के आसरे काम किया ही नहीं। मैं हमेशा अपने बाजुओं पर भरोसा रखता हूँ।”

वे कलम के मजदूर थे, मजदूर राज के प्रति उतने ही उत्साही और आग्रही भी। उनके भी सपनों की दुनिया वही थी। “…. हां रूस है जहाँ बड़ों को मार-मार कर दुरुस्त कर दिया गया है, अब वहाँ गरीब को आनंद है। शायद यहाँ भी कुछ दिनों के बाद रूस जैसा ही हो।

मैं बोली – क्या आशा है कुछ?

आप बोले – अभी जल्दी कोई उसकी आशा नहीं।

मैं बोली – मान लो कि जल्दी ही हो जाए तब आप किसका साथ देंगे?

आप बोले – मजदूरों और काश्तकारों का। मैं पहले ही सबसे कह दूँगा कि मैं मजदूर हूँ। तुम फावड़ा चलाते हो, मैं कलम चलाता हूँ। हम दोनों बराबर ही हैं।”

शारीरिक और मानसिक श्रम के बीच की दीवार को ढहा देने का सपना प्रेमचन्द की जिंदगी का यथार्थ था। धनिया का स्वाभिमान कि “भीख मांगो तुम जो भिखमंगे की जात हो। हम तो मजदूर ठहरे जहाँ काम करेंगे वहीं पैसे पायेंगे।” यह खुद प्रेमचन्द का स्वाभिमान था।

“मैं कहता हूँ कि जिस दिन मुझे किसी की कमाई खाने की नौबत आई उस समय मैं जहर खा लूँगा।”

यही व्यक्ति बुर्जुआ उदारवादी विचारों से छाये हुए माहौल में निर्भीकता के साथ लिख सकता है – “जो केवल दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है वह पतिततम प्राणी है। उसे राज्य प्रबंधक में राय देने का हक नहीं है और वह नागरिकता के अधिकारों का भी पात्र नहीं है। “और 1919 में मेहनतकशों की ताकत को चित्रित करते हुए कहता है – वह जानता है इस सारे राष्ट्रीय वैभव और प्रभुत्व का कारण मैं हूँ। यह सारा राष्ट्रीय विकास और उन्नति मेरे हाथों का करिश्मा है। अब वह मूक, संतोष और सिर झुकाकर सब कुछ स्वीकार लेने में विश्वास नहीं करता है।” (पुराना जमाना नया जमाना लेख से)।

सामाजिक विकास की मूल शक्ति की यह पहचान ही सामाजिक संबंधों की वैज्ञानिक समझ का ठोस आधार बनी । दूसरी हर बात अब मिथ्या, बहकाने वाली, कृत्रिम और बनावटी लगने लगी। यहाँ तक कि महात्मा गांधी के प्रति उनकी गहरी आस्था भी डोल जाती थी, विशेष तौर पर जब गांधी उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन से अलग मनुष्य में सद्वृत्तिोयं को बढ़ावा देने वाले मसीहा के रूप में पेश आते और प्रकारान्तर में अंधविश्वासों और जड़ता को ही बल पहुँचाते। उन्होंने समझ लिया कि धर्म, सम्प्रदाय या जातियों के उत्थान और पतन का सारा इतिहास सभ्यता के विकास की सच्ची कहानी नहीं कहता।

क्योंकि इसमें निर्माण की मूल शक्ति, मानव श्रम ही गायब है। इसीलिये राष्ट्रीय विकास और एकता का आधार भी धर्म और सम्प्रदाय नहीं बन सकते। इनसे सिर्फ पिछड़ापन और फूट ही पनप सकते हैं। सम्प्रदायों की राजनीति राष्ट्रीय गुलामी की मियाद को बढ़ाने भर का काम कर रही है। गहरे क्षोभ की जनता को दो भागों में बाँट रही है। धर्म संस्कृति बन गया है तथा अलगाव की खाई को चौड़ा करता जा रहा है। एक ही मिट्टी से जीवन लेने वाली दो भाषाएँ हिन्दी और उर्दू इसी के चक्कर में पड़कर सम्पर्क के बजाय अलगाव का काम कर रही हैं।

प्रेमचन्द किन्तु अपने जीवन से, अपने लेखन से और अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व से सारी जिंदगी जबरन अलग-अलग बाँट दी जा रही जनता के बीच सम्पर्क के सूत्र खोज कर उन्हें जोड़ने के काम में लगे रहे। उनके लिए हिन्दी और उर्दू का स्थान मनुष्य की भाषा से ज्यादा न था, जो आदमी-आदमी के बीच संवाद स्थापित करने का काम करती है संवाद तोड़ने का कदापि नहीं। व्यक्तित्व के इस पहलू के निर्माण में हिन्दी और उर्दू, दोनों भाषाओं पर उनके समान अधिकार तथा इन दोनों भाषाओं को बोलने वाले लोगों से उनके आंतरिक परिचय ने कम बड़ी भूमिका अदा नहीं की। 

फारसी और उर्दू साहित्य की परंपरा से उनके गहरे परिचय ने हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति की चर्चा करने वालों और इनके बीच चीन की दीवार खड़ी करने वालों की मक्कारी को उनके सामने नंगा कर दिया। अपने शुरू के दिनों का साहित्य उन्होंने उर्दू में ही लिखा । हिन्दी में उन्होंने काफी बाद में लिखना शुरू किया। जीवन और व्यक्तित्व की यही सच्चाई इस सत्य तक पहुँचने के उनके रास्ते को बिल्कुल आसान कर देती है कि “अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक, मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं। हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है, किन्तु ईसाई संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है।” (साम्प्रदायिकता और संस्कृति निबंध से)

शायद यही वजह है कि जिस वक्त निराला जी उन्हें ‘हिन्दी के युगान्तर साहित्य के सर्वश्रेष्ठ रत्न, अन्तरप्रांतीय ख्याति के हिन्दी के प्रथम साहित्यिक, प्रतिकूल परिस्थितियों से निर्भीक वीर की तरह लड़ने वाले, उपन्यास संसार के एकछत्र सम्राट, रचना प्रतियोगिता में विश्व के अधिक से अधिक लिखने वाले मनीषियों के समकक्ष आदरणीय श्रीमान’ आदि विभूषणों से अलंकृत कर रहे थे उस समय भी प्रेमचन्द ने खुद को बड़ा आदमी नहीं समझा।

नये लिखने वालों के प्रति उनमें अगाध प्रेम था। इसी काल में बीमारी के बावजूद नौजवान साहित्यकारों तथा अन्य लोगों से मिलने का तांता बंद ही नहीं होता था। इस दौरान एक बार शिवरानी देवी ने उन्हें मिलने का एक निश्चित समय बांधने के लिये कहा तो उनका जवाब था – “तो अच्छा अब मैं भी बड़ा आदमी बन जाऊँ? तुमको ख्याल है कि नहीं, मैं जब एक मर्तबा महात्मा गांधी से प्रयाग मिलने गया और महात्मा जी से न मिल सका था, उस समय मुझे कितनी झुंझलाहट हुई थी कि दो दिन का समय भी दिया, और उनसे मिल भी न सका। हालांकि महात्मा जी बड़े आदमी थे। जिनके कि ऊपर झुंझलाहट नहीं आनी चाहिए थी, फिर भी मुझे झुंझलाहट आई, और तुमको भी।

उसी तरह जब मुझसे कोई मिलने जाएगा, और फिर मैं कोई बड़ा आदमी भी नहीं, तब तुम सोचो कि वह अपने दिल में क्या कहेगा? फिर उसके साथ-साथ यह भी है, वह बेचारा कितनी दूर से कितनी इच्छाएँ लेकर मुझसे मिलने आता है, वह अपने दिल में क्या सोचेगा। यही न सोचेगा कि यह भी बड़े आदमी हो गये, जिस बड़े आदमी के नाम से मैं खुद घबड़ाता हूँ, वह इल्जाम मेरे सर पर लगे, कितनी बुरी बात होगी। अरे भाई हमसे तो वही मिलने आते हैं, जो कि हमारी तरह गरीब हैं। “(प्रेमचंद घर में, पृष्ठ 265)

यह सिर्फ कहने भर की बात हो, ऐसा नहीं है। ‘हिन्दी के युगान्तर साहित्य के सर्वश्रेष्ठ रत्न’ के असाधारण व्यक्तित्व की कल्पना के साथ उनसे मिलने वाले कई लोग भौंचक रह गए थे। लेखक कैसा? लेखक का भी अस्तित्व है। गवर्नमेंट जेल में डालती है, पब्लिक मारने की धमकी देती है, इससे लेखक डर जाए और लिखना बंद कर दे?’ (प्रेमचन्द घर में, पृष्ठ 196)

साहित्य आत्मानन्द की वस्तु नहीं। इसका सीधा संबंध जीवन से है जो सामाजिक और व्यक्तिगत दोनों है। कलम का मजदूर साहित्य के निर्माण में जीवन की भूमिका और जीवन के निर्माण में साहित्य की भूमिका दोनों को बखूबी समझा था। इसीलिए उसे विश्वास था कि कलम चलाता उसका हाथ अन्य निर्माण कार्य में लगे मजदूरों की तह ही काम करता है। अपनी जिन्दगी की सार्थकता भी उसने इसी में समझी कि अपनी लेखनी से सदियों से सोई जनता को जगा दे और जीवन को सुन्दर बनाये। साहित्य कर्म यद्यपि बाद के दिनों में उनकी रोजी के साथ भी जुड़ गया लेकिन उनके जीवन में हमेशा सबसे अहम स्थान लिए रहा। कलम, दवात और कागज से अलग अपनी जिन्दगी की कल्पना वे नहीं कर सकते थे। शिवरानी देवी से कहते हैं “मेरी इच्छा तो यह होती है कि कलम, दवात हो और कागज हो और तुम हो और हम हों।” (प्रेमचंद घर में, पृष्ठ 111)

जब हंस और जागरण निकालते थे तो इनमें उनकी जान बसती थी। खुद की किताबों की बिक्री की सारी आय इन्हें निकालने और किसी तरह प्रेस चलाने में स्वाहा हो जाती थी। “अभी इसी महीने मालूम हुआ कि अभी आठ साल के अन्दर कोई बीस हजार की किताबें बिकीं, और ‘हंस’ और ‘जागरण’ को तुम्हारा प्रेस खा गया।” शिवरानी देवी के इस उलाहने पर प्रेमचंद कहते हैं – “यदि मैं इस तरह के काम न कर पाऊं तो मुझे सुख शान्ति नहीं मिलती।” (प्रेमचंद घर में, पृष्ठ 301)

‘जागरण’ के बंद होने पर उन्होंने कहा था कि मजदूरों की आवाज बंद हो गयी। साहित्य उनकी रोजी का जरिया बनने पर भी उनका किसी भी पत्रिका में पैसे के लिए लिखना उसी प्रकार का था, जैसा मार्क्स का ‘न्यूयार्क ट्रिब्यून’ में लिखना था जहाँ पैसे के लिए विचारों में कोई समझौता नहीं किया गया था। वह उनके जीवन का उद्देश्य था। घाटे नफे का व्यापार नहीं था। इसके इतर उनके लिए व्यक्तित्व की कोई कल्पना नहीं थी। इसी में अपना सब कुछ विलीन कर देना ही जीवन का ध्येय था। जो लोग जनता को उसके बुनियादी संघर्ष से अलग करके गो-कशी तथा इसी प्रकार दूसरे सस्ती भावनाओं को भड़काने वाले मुद्दों को राजनीति के केन्द्र में लाना चाहते थे, ऐसे लोग प्रेमचन्द के घृणा के पात्र थे।

वे किसी भी मुद्दे को उसके आर्थिक-राजनीतिक महत्व से अलग हटाकर नहीं देखते थे। गो हत्या के मामले को तूल देने वालों को फटकारते हुए उन्होंने लिखा- “अगर हिन्दुओं को अभी यह जानना बाकी है कि इंसान किसी हैवान से ज्यादा पवित्र प्राणी है, चाहे वह गोपाल की गाय हो या ईसा का गधा, तो उन्होंने अभी सभ्यता की वर्णमाला भी नहीं समझी। हिन्दुस्तान जैसे कृषि प्रधान देश के लिए गाय का होना एक वरदान है, मगर आर्थिक दृष्टि के अलावा इसका और कोई महत्व नहीं है।” (मनुष्यता का अकाल : लेख से)

शिवरानी देवी से वे कहते हैं – “मैं एक इन्सान हूँ, और जो इन्सानियत रखता हो, इन्सान का काम करता हो, मैं वही हूँ, और उन्हीं लोगों को चाहता हूँ। मेरे दोस्त अगर हिन्दू हैं तो मेरे कम दोस्त मुसलमान नहीं है। इन दोनों में मेरे नजदीक कोई खास फर्क नहीं है, मेरे लिये दोनों बराबर हैं।” ) (प्रेमचंद घर में, पृष्ठ 127)

यह तथ्य है कि प्रेमचन्द के ऐसे विचारों और लेखों से बनारस के पोंगापंथी हिन्दू बेहद नाराज रहते थे। कई बार उन्हें मारने तक की धमकियाँ दी गयीं। ऐसे ही एक लेख पर जब वातावरण काफी तनावपूर्ण था और कुछ हिन्दू कट्टरवादी प्रेमचंद के घर तक पहुँच गये तो शिवरानी देवी ने पूछा – ये लोग क्या कह रहे हैं?

– कुछ नहीं जी! वह लेख बहुत सुन्दर है।

– मैं- मारने की धमकी आखिर क्यों दे रहे हैं?

– यह सब हिन्दू सभा वालों का काम है।

– ये सब तो कांग्रेसी थे।

– आजकल ये लोग भी उसी के पक्षपाती हैं।

“ऐसा लेख आप क्यों लिखते हैं कि लोग दुश्मन बनें। कभी गवर्नमेंट, कभी पब्लिक कोई न कोई तुम्हारा दुश्मन रहता ही है। आप ढाई हड्डी के तो आदमी हैं।”

‘लेखक को पब्लिक और गवर्नमेंट अपना गुलाम समझती है। आखिर लेखक भी कोई चीज है वह सभी की मर्जी के मुताबिक लिखे तो “दक्षिण के एक हिन्दी प्रेमी चन्द्रहासन, ……. ने आगे बढ़कर कहा, मैं प्रेमचन्द से मिलना चाहता हूँ। उस आदमी ने झट नजर उठाकर ताज्जुब से आगंतुक की ओर देखा, कलम रख दी और ठहाका लगाकर हंसते हुए कहा – खड़े-खड़े मुलाकात करेंगे क्या। बैठिए और मुलाकात कीजिये…..।”

“नाशाद ने उससे पूछा – मुंशी प्रेमचन्द कहां रहते हैं? आप बतला सकते हैं? वह आदमी आगे-आगे चला, नाशाद पीछे-पीछे। ऊपर पहुंचकर उस आदमी ने नाशाद को बैठने के लिये कहा और अन्दर चला गया। जरा देर बाद कुर्ता पहनकर निकला और वह बोला- अब आप प्रेमचन्द से बात कर रहे हैं। (कलम का सिपाही, अमृत राय, पृष्ठ1)

ऐसे-ऐसे ढेरों संस्मरण मिलते हैं। वैसे तो उनका सारा जीवन ही चौंकाने वाला है। लोग उन्हें महान कहते हैं, लेकिन उनकी महानता किसी भी रूप में सांसारिकता से निर्लिप्त ज्ञानी, दोनों हाथों से लुटाने वाले दानी, एक चींटी तक के मरने से दुखी होने वाले दयालु या हर अच्छे-बुरे इंसान पर समान कृपा दृष्टि रखने वाले विशाल हृदय-पुरुष की तरह की महानताओं की कोटि में कतई नहीं रखा जा सकता। उनका सम्पूर्ण जीवन और व्यक्तित्व किसी भी माने में किसी देव-पुरुष चरित्र का अहसास नहीं कराता है क्योंकि यहाँ तो पत्नी-बच्चों के प्रति प्यार और मोह तथा जिम्मेदारियाँ भी थीं जिनसे आँख मूंदकर ही निर्लिप्त ज्ञानियों की श्रेणी में आया जा सकता है, न ऐसा राज-पाट जिसे लुटाकर वे दानवीर कर्ण के अवतार कहलाते, इसके अलावा साम्राज्यवादी और देशी शोषकों, महाजनों, पंडितों, पुरोहितों के प्रति घृणा भी कुछ ऐसी तीखी थी कि इन तत्वों पर समान कृपा भाव रखना तो दूर की बात समाज के ऐसे नासूरों का बिना पूरी तरह से सफाया किये वे किसी प्रकार के कल्याण की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, अहिंसक दयालुता का जहाँ तक सवाल है, चींटी की बात तो बहूत दूर वे उन लोगों में से थे जिन्होंने कहा था – समाज के इन दरिंदों से लड़ने के लिये अस्त्र उठाने पड़ेंगे। महापुरुषोचित ऐसे कोई गुण न होने पर भी प्रेमचन्द को महान कहा जाय यह सवाल शायद कई लोगों को परेशान कर रहा है। और अपनी इसी परेशानी का आसान समाधान ढूंढ़ने के लिये ये महोदय महापुरुष की बजाय उन्हें निकृष्ट प्राणियों के अलावा इन महोदयों के लिये मनुष्य की शायद ही और कोई श्रेणी हो जिसका अध्ययन किया जा सके।

जहाँ तक साधारण इंसान की जिंदगी का सवाल है, ऐसे लोग या तो इन्हें अपने विचार का विषय ही नहीं समझते और यदि कभी भूले-भटके इनकी विचार-परिधि में ऐसा कोई इंसान जगह पा लेता है तो साधारण जनता के प्रति इनका बद्धमूल अपमान-बोध जागृत हो जाता है और क्षुद्रता तथा निज-स्वार्थों की पोटली बताकर अपनी सारी घृणा इस पर उगल देते हैं। जब कि प्रेमचन्द ने इनके विपरीत “गरीब किसान, मजदूर, अछूत और दरिद्र में ही सबसे ज्यादा मनुष्यता, सच्चाई और सेवाभाव पाया है।”

ऐसे ही एक महोदय हैं, श्रीमान मदनगोपाल। आंतरिक आपातकाल के वक्त कम्युनिष्टों पर हमला बोलने के लिये शासक दल को उकसाने के घृणित प्रयास में बदनाम ‘कादम्बिनी’ पत्रिका में प्रेमचन्द को उन्होंने ऐसी ही तराजू से तोला है, अर्थात् जिंदगी के संघर्ष में लगे आम इंसान की हर हरकत को क्षुद्र बताकर उसके प्रति नाक-भौं सिकोड़ी है। इनके अनुसार प्रेमचन्द के दो रूप थे। वे अपने विचारों में जितने आदर्शवादी थे, यथार्थ जीवन में नहीं। अपने कथन की पुष्टि के लिये वे प्रेमचन्द के उन कुछ पत्रों का, जिनमें प्रेमचन्द संपादकों-प्रकाशकों आदि से अपने लेखन की कीमत की मांग किया करते थे, उल्लेख करते हुए कहते हैं – “प्रेमचन्द किसी कुशल व्यवसायी की तरह बड़ी सफाई से अपने लेखों की कीमत मांगते थे।”

प्रेमचन्द यदि अंग्रेज शासकों को खुश करके या किसी राजे-महाराजे की गुलामी को स्वीकार करके मोटर बंगले का सुख भोगते हुए संपादकों-प्रकाशकों को अपनी रचनाएँ मुफ्त में छापने देते तभी मदन गोपाल उन्हें कुशल व्यवसायी नहीं बल्कि दरियादिल और विशाल हृदय पुरुष कहते जो आना पाई का रोज-रोज हिसाब नहीं करता। अफसोस यह है कि प्रेमचन्द का संसार एक गरीब का घर-संसार था। कलम को उन्होंने अपना फावड़ा समझा था और उसी की आमदनी पर वे मुनहसिर थे। किसी राजघराने की टुक्कड़खोरी पर कदापि नहीं। हिम्मत हो तो मदनगोपाल एंड कम्पनी खुद को इस आईने में देंखे। प्रेमचन्द समझ में आयें या न आयें लेकिन उन्हें अपनी सूरत जरूर समझ में आ जायेगी।

खुद प्रेमचन्द ने अपनी जिंदगी के बारे में लिखा है – “मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं गड्ढे तो हैं पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खण्डहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं उन्हें तो यहाँ निराशा ही होगी।”

प्रेमचन्द की मृत्यु के करीब 44 वर्षों बाद यदि मदनगोपाल उनके दोहरेपन या उनकी व्यवसाय-कुशलता के रहस्योद्घाटन कर रहे हैं तो इसलिये और भी आश्चर्य नहीं होता है क्योंकि स्वयं प्रेमचन्द के जीवनकाल में ही मदनगोपाल की जमात के लोगों ने उनके खिलाफ ‘घृणा का प्रचारक’ ‘कलम घसीटू मुन्शी’ और क्या-क्या नहीं कहा था। लेकिन प्रेमचंद के विचारों के निरन्तर विकास का जो सिलसिला मिलता है वह अनायास ही मार्क्स के अतिप्रिय दांते की कविता की इस पंक्ति की याद दिला देती है कि –

अपनी राह चलते जाओ, लोगों को कुछ भी कहने दो।

प्रेमचन्द भी इकबाल के इस शेर के कायल थे –

“चूँ मौज साजे वजूदम जे सैल बेपरवास्त,

गुमां मबर की दरीं बहू, साहिले जोयम।

(तरंग की भाँति मेरे जीवन की तरी लहरों की तरफ से बेपरवाह है, यह न समझो कि मैं इस समुद्र में किनारा ढूँढ़ रहा हूँ)

अंत में मुन्शी प्रेमचन्द के जीवन और व्यक्तित्व के बारे में फिर से एक बार शेक्सपियर के शब्दों में यह कहना चाहूँगी –

इंसान थे, हर चीज में इंसान,

होगा न कोई दूसरा उनके कभी समान।

(‘हैमलेट’ से)
(सरला माहेश्वरी मशहूर कवयित्री हैं और सांसद रह चुकी हैं।)

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