Saturday, April 27, 2024

भारतीय गणतंत्र : कुछ खुले-अनखुले पन्ने

भारत को ब्रिटिश हुक्मरानी के आधिपत्य से 15 अगस्त 1947 को राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्ति के 894 दिन बाद 26 जनवरी 1950 को गणराज्य घोषित किया गया। तब राजधानी नई दिल्ली में कनाट प्लेस के पार्श्व में तत्कालीन इर्विन स्‍टेडियम में भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ। राजेन्‍द्र प्रसाद ने 21 तोपों की सलामी के बीच देश के प्रथम राष्‍ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण करने के बाद राष्‍ट्रीय ध्‍वज फहराकर संप्रभुता सम्पन्न भारत गणतंत्र के प्रादुर्भाव की घो‍षणा की। इसके पहले 31 दिसंबर 1929 की मध्‍य रात्रि में भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर सत्र में भारत को स्वतंत्र बनाने का संकल्प लिया गया था। सत्र में उपस्थित सभी प्रतिनिधियों ने ब्रिटिश हुकूमत से पूर्णरूपेण स्‍वतंत्र भार‍त के स्वप्न को साकार करने के लिए 26 जनवरी 1930 को ‘स्‍वतंत्रता दिवस’ के रूप में मनाने की शपथ ली थी।

भारतीय संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई। इसमें भारतीय नेताओं और ब्रिटिश शासकों के ‘ कैबिनेट मिशन ‘ के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। भारत को संविधान प्रदान करने के विषय में विमर्श शुरू हुआ। कई संस्तुतियां सामने आयीं। अनेक संशोधन के पश्चात भारतीय संविधान को अंतिम रूप दिया गया जो 3 वर्ष बाद यानी 26 नवंबर 1949 को आधिकारिक रूप से अपनाया गया। भारत 15 अगस्‍त 1947 को स्‍वतंत्र राष्‍ट्र बन चुका था। पर इस स्‍वतंत्रता की सच्‍ची भावना 26 जनवरी 1950 को ही अभिव्यक्त की जा सकी। यह अभिव्यक्ति भारत के एक गणतंत्र के रूप में अपने संविधान को प्रभावी कर प्रकट की गयी। संविधान में अब तक एक सौ से अधिक संशोधन किये जा चुके हैं। पर उसका मूल गणतांत्रिक चरित्र बरकरार है, जिसे पलटना असंभव नहीं तो आसान भी नहीं है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही नहीं उनकी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का मूल संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उनके समर्थक जानते हैं कि भारत को आनन फानन में विधिक रूप से हिन्दू राष्ट्र उद्घोषित नहीं किया जा सकता है। मोदी जी को 2019 के लोक सभा चुनाव से भारत की केन्द्रीय सत्ता में 2024 तक बने रहने का मौका मिल गया। मोदी जी को भारत के समाजवादी धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र को ‘हिन्दू-राष्ट्र’ घोषित करने में मौजूदा संविधान बाधक है। संविधान में कहीं भी हिन्दू राष्ट्र का जिक्र नहीं है। ब्रिटिश शासकों से भारत को 15 अगस्त 1947 को मिली स्वतन्त्रता के उपरान्त संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर 1949 को पारित और 26 जनवरी 1950 से पूर्ण बल से लागू संविधान की प्रस्तावना और कालांतर में उसके विधि-सम्मत संशोधन में स्पष्ट उल्लेखित है कि ‘इंडिया दैट इज भारत’, सर्वप्रभुता संपन्न, समाजवादी, धर्म -निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य है।

यह छुपी बात नहीं है कि भारतीय जनसंघ और उसकी उत्तरवर्ती भाजपा जिस आरएसएस को अपनी ‘मातृ संस्था’ कहती है उसे यह संविधान कभी रास नहीं आया। आरएसएस का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कभी भी योगदान नहीं रहा। उसने संविधान निर्माण के समय उसके मूल स्वरुप का विरोध किया था। उसके स्वयंसेवकों ने स्वतंत्र भारत का मौजूदा संविधान बनने पर उसकी प्रतियां जलाईं थी। आरएसएस को प्रस्तावना में शामिल सेक्युलर (धर्मनिरपेक्ष / पंथनिरपेक्ष) पदबंध नहीं सुहाता है। उसके अनुसार धर्मनिरपेक्ष शब्द से ही भारत के धर्मविहीन होने की बू आती है। यह जनसंख्या के आधार पर हिन्दू धर्म-प्रधान देश है। आरएसएस के राजनीतिक अंग भाजपा का कहना है आज़ादी के बाद से सत्ता में रहे अन्य दलों ने वोट की राजनीति कर अल्पसंख्यक लोगों का तुष्टीकरण कर हिन्दू हितों की उपेक्षा की है। इसका उदाहरण हिंदुत्वपंथियों द्वारा 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में ध्वस्त कर दी गई बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर के निर्माण में विधमान राजनीतिक- सांविधिक अवरोध हैं।

विश्व के एकमेव हिन्दू राष्ट्र रहे पड़ोसी नेपाल में जबर्दस्त जन-आंदोलन के बाद राजशाही की समाप्ति के उपरान्त अपनाये नए संविधान में इस हिमालायवर्ती देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित किये जाने के प्रति आरएसएस और मोदी सरकार की खिन्नता छुपाये छुप नहीं सकी। मोदी सरकार ने इस कारण कुछ वर्ष पहले नेपाल की कई माह तक अघोषित आर्थिक नाकाबंदी कर दी।

भाजपा किसी देश को इस्लामी घोषित करने से चिढ़ती है और कहती है उसे “मज़हबी राष्ट्र” का सिद्धांत मंजूर नहीं है। फिर भी भाजपा समेत आरएसएस के सभी संगठन भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने के पक्षधर रहे हैं। मोदी जी का न्यू इंडिया, आरएसएस के सपनों के हिन्दू -राष्ट्र का ही एक भ्रामक सर्वनाम है जिसकी सारी परतें खुलने में थोड़ा समय लगेगा।

2025 में आरएसएस की स्थापना की शताब्दी जयन्ती है। संकेत हैं वह चाहता है तब तक भारत, विधिवत हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाए। गौरतलब है कि जब नाजी हिटलर के घोर फासीवादी राज का दुनिया में प्रतिरोध शुरू हुआ तब आरएसएस के द्धितीय सरसंघसंचालक, सदाशिवराव माधवराव गोलवलकर (‘ गुरु जी ‘) ने अंग्रेजी में ‘ वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड ‘ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी थी। इसमें साफ लिखा है भारत के हिंदुओं को हिटलर से सबक सीखनी चाहिए। आरएसएस ने अपने गुरु गोलवलकर की इस पुस्तक से कभी पल्ला नही झाड़ा। पर उसने इस पुस्तक का प्रचार करने से पीछे हटना रणनीतिक कारणों से बेहतर समझा।

इतिहासकार शम्शुल इस्लाम ने उक्त पुस्तक की मूल प्रति ढूंढ कर उसके स्कैन किये पन्नों को ज्यों का त्यों समावेश कर ‘ गुरु जी ‘ की बातों की पोल खोलने वाली नई पुस्तक लिख डाली जो अमेजॉन से कोई भी खरीद सकता है।

‘ वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड ‘ पुस्तक पहली बार 1939 में छपी थी। पुस्तक से और आरएसएस की गतिविधियों पर गौर करने से साफ है कि उसके लिए ‘हिन्दू’ का मतलब ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था और ‘राष्ट्र’ का मतलब ‘ मनुवादी फासीवाद ‘है। साफ है वह सांस्कृतिक संगठन नहीं है। उसके उद्देश्य राजनीतिक हैं। समाज सेवा और एकात्म मानववाद के उसके घोषित लक्ष्य महज जुमले हैं। आरएसएस ने खुद भी अपने राजनीतिक उदेश्य काफी हद तक सबके सामने रख दिए हैं। यह उद्देश्य है हिंदुस्तान को ‘ हिन्दू राष्ट्र ‘ बनाना। पर, ‘ हिन्दू’ और ‘राष्ट्र’ का उसका वह मतलब नहीं है जो आम लोग समझते हैं। आरएसएस की स्थापना 1925 में केबी हेडगेवार ( ‘डॉक्टर जी’) ने की थी। उसे वैचारिक एवं संगठनिक आधार ‘गुरु जी’ ने प्रदान किया। आरएसएस की स्थापना महाराष्ट्र में ब्राह्मणवाद के खिलाफ सशक्त आंदोलनों की प्रतिक्रिया में सवर्ण जातियों द्वारा हिन्दू के नाम पर अपना प्रभुत्व बहाल करने के लिए की गई थी। ये आंदोलन 1870 के दशक में ज्योतिबा फुले के नेतृत्व में ‘ पिछड़ी ‘ जातियों ने और 1920 के दशक में बाबासाहब डा। भीमराव अम्बेडकर की अगुवाई में दलितों ने छेड़े थे। ये महज संयोग नही कि आरएसएस के अब तक के सभी प्रमुख, महाराष्ट्र के चित्तपावन ब्राह्मण रहे हैं। बाद में 1994 में एक गैर-ब्राह्मण, लेकिन सवर्ण ही (ठाकु/क्षत्रिय), राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैया आरएसएस के चौथे प्रमुख बने जो उत्तर प्रदेश के थे।

आरएसएस के वैचारिक आधारों पर और बात करने से पहले उसके सांगठनिक तंत्र को समझ लेना अच्छा रहेगा। आरएसएस के ‘ अखिल भारतीय सह- बौद्धिक प्रमुख कौशल किशोर के निर्देश पर 1992 में ” लक्ष्य एक कार्य अनेक ‘ नाम की एक पुस्तक छपी। इसके अनुसार, आरएसएस के नियंत्रण में अखिल भारतीय स्तर के 25 और प्रांतीय स्तर के 35 संगठन हैं। इनमें भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और विद्या भारती प्रमुख हैं। इसी पुस्तक के अनुसार तब देश भर के 25 हज़ार स्थानों पर आरएसएस की नियमित शाखाएं लगती थीं। पुस्तक वर्ष 1992 की है।बाद के इतने बरसों में उनकी संख्या में कई गुना बढ़ोत्तरी ही हुई होगी। बहरहाल, उक्त पुस्तक के अनुसार इन शाखाओं की एक महत्वपूर्ण भूमिका ‘ राष्ट्र का हिंदूकरण और हिंदुओं के सैन्यकरण ‘ की कार्यनीति को आगे बढ़ाना है। जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट है आरएसएस के जितने भी संगठन, समितियां और मंच हों, सबका एक अंतिम लक्ष्य है और वह ‘ हिन्दू -राष्ट्र ‘ है। लेकिन हिन्दू राष्ट्र में क्या होगा और क्या नहीं होंगे ? यह तय कैसे होगा , कब तय होगा ? कौन तय करेगा ? ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जिनके उत्तर एक झटके में नहीं दिए जा सकते हैं।

नया संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए मौजूदा संविधान की समीक्षा कर उसे बदलने के लिए आवश्यक विधिक उपायों की संस्तुति करने के वास्ते एक कमेटी बनाने की चर्चा है।आरएसएस के पूर्व प्रचारक एवं सिद्धांतकार और भाजपा के पदाधिकारी रहे, केएन गोविंदाचार्य इस काम में लगे बताये जाते हैं। उन्होंने यह स्वीकार भी किया है। उनका कहना है कि मौजूदा संविधान में ” भारतीयता ” नहीं है और इसलिए उसकी जगह नया संविधान बने। गौरतलब है कि भारत के संविधान की समीक्षा के लिए पहले भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान एक कमेटी बनी थी। पर उसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकला।

जिस बात पर चर्चा लगभग नहीं होती है, वह यह है कि स्वतंत्र भारत में 26 जनवरी 1950 से पूर्ण बल से लागू संविधान, उसकी रचियता संविधान सभा के गठन के पहले से, और ब्रिटिश सांविधिक राजतंत्र के करीब दो सौ वर्ष के औपनिवेशिक शासन में ही नहीं, उसके पूर्ववर्ती मुग़ल बादशाहों के शासन और उनके भी पूर्व के सम्राटों, राजाओं -महाराजों आदि के भी राज में सभी नागरिकों के कुछेक विधिक अधिकार थे। नागरिकों ने इनमें से जिसका सर्वाधिक आनंद लिया उसे मोटे तौर पर प्राकृतिक अधिकार कहा जा सकता है। इन अधिकारों का स्वामित्व किसी के पास नहीं है, फिर भी वे भौगोलिक सीमाओं, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक , धार्मिक , जातीयता , नस्ल , त्वचा के रंग , भाषा – बोली , शारीरिक कद – काठी, आयु , लैंगिक फर्क और अन्य किसी भी विभाज्यकारी मानदंडों के पार पूरे ब्रम्हांड और उसकी सभी आकाशगंगाओं न सही पृथ्वी ग्रह के सभी जैव, प्राणियों, वनस्पतिओं और अजैव पदार्थों के लिए प्राकृतिक रूप से कमोबेश उपलब्ध है। यह दीगर बात है कि पृथ्वी ग्रह के पास प्राकृतिक प्रकाश का अपना कोई स्रोत नहीं है। पृथ्वी के बाशिंदों को प्राकृतिक प्रकाश अपने सौर मंडल से प्राप्त होता है। भारत जैसे भौगोलिक सीमाओं के भीतर सौर ऊर्जा -प्रकाश जितनी प्रचुरता से सहज, सरल, निःशुल्क उपलब्ध है वह उतनी प्रचुरता से सभी भौगोलिक सीमाओं के भीतर उपलब्ध नहीं है।

इसलिए उन भौगोलिक सीमाओं के भीतर के बाशिंदों को धूप के सेवन के लिए कुछ धन खर्च कर समुद्र तट पर जाना -रहना पड़ता है। लेकिन कोई भी राष्ट्र -राज्य, सौर ऊर्जा को हथिया नहीं सकता है ना ही उसको उस तरह से बेचने या नीलाम कर सकता है जिस तरह से भारत समेत कई देशों की सरकारों ने अप्रचुर परिमाण में उपलब्ध ध्वनि तरंग दैर्घ्य (स्पेक्ट्रम) टेलिकॉम कंपनियों को बेचे या नीलाम किये हैं। भारत का मौजूदा संविधान , नागरिकों के इन प्राकृतिक अधिकारों के प्रति स्वाभाविक रूप से सुस्पष्ट नहीं है। लेकिन भारत के उच्चतम न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने भी 2 जी , 3 जी के कथित घोटालों से सम्बंधित मामलों में ऐसे निर्णय अथवा दिशानिर्देश दिए हैं जो नागरिकों के प्राकृतिक अधिकारों के संरक्षण की आवश्यकता पर जोर देते हैं। जाहिर है कि मानव सभ्यता की प्रौद्योगिक प्रगति के फलस्वरूप , धूप , हवा और पानी जैसे इन प्राकृतिक अधिकारों के समुचित संरक्षण के लिए संविधान में समुचित संशोधन की आवश्यकता है। इन प्राकृतिक अधिकारों के अलावा नागरिकों के मानवाधिकार है जिनका स्रोत संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसंबर 1948 को पारित ‘ सार्वभौमिक मानवाधिकार ‘ है जिस पर हस्ताक्षर करने वाले देशों में भारत भी शामिल है। ये मानवाधिकार, सारे अधिकारों की जननी है।

लेकिन भारत का संविधान, नागरिकों के उन मूलभूत अधिकारों के प्रति अत्यंत स्पष्ट है जिनका राष्ट्र-राज्य और उसके नागरिकों के बीच जन्मदात्री और उसके शिशु के बीच नाभिनाल जैसा सम्बन्ध अथवा अनुबंध है। इस सम्बन्ध और अनुबंध में कार्यपालिका (सरकार) और न्यायपालिका तो क्या विधायिका भी संविधान से इतर की दखलंदाजी नहीं कर सकती है। ये मूलभूत अधिकार , भारत के संविधान के भाग 3 में आर्टिकल (धारा) 12 से आर्टिकल 35 तक में शामिल, परिभाषित और व्याख्यायित हैं। इंदिरा गांधी सरकार के शासनकाल में 25 जून 1975 को घोषित आंतरिक आपातकाल के दौरान उस सरकार द्वारा 1976 में पेश उस 42 वे संविधान संशोधन विधेयक को विधायिका ने पारित कर दिया था जिनके तहत कुछेक मूलभूत अधिकारों में कटौती कर दी गई, विधायिका द्वारा पारित अधिनियमों की संवैधानिकता वैधता की समीक्षा करने के उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की शक्ति पर अंकुश लगा दिए गए, प्रधानमंत्री कार्यालय को व्यापक अधिकार दे दिए गए, संसद को संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने के लिए प्राधिकृत कर यह प्रावधान कर दिया गया कि इसकी कोई न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है।

जब 21 मार्च 1977 को आंतरिक आपातकाल समाप्त घोषित कर दिया गया, तो उसी बरस कराये गए लोकसभा चुनाव के फलस्वरूप बनी मोरारजी देसाई सरकार ने भारत के संविधान को 42 वे संविधान संशोधन से पहले की स्थिति में लाने के जनता पार्टी के चुनावी घोषणा -पत्र में किये गए वादे के मुताबिक़ 43 वां और 44 वां संविधान संशोधन कर स्थिति बहुत हद तक दुरुस्त कर दी। बाद में, 31 जुलाई 1980 को उच्चतम न्यायालय ने रही-सही कसर पूरी कर 42 वे संविधान संशोधन के उन दो प्रावधानों को भी असंवैधानिक करार दे दिया जिसके अनुसार किसी भी संविधान संशोधन की किसी भी आधार पर न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण रोक लगा दी गई थी। 42 वे संविधान संशोधन की इस विलम्बित न्यायिक समीक्षा से निकला सन्देश स्पष्ट और जोरदार था कि अगर कार्यपालिका और विधायिका को नागरिकों के मूलभूत अधिकारों में कोई भी कटौती करनी है तो सिर्फ सविधान संशोधन अधिनियम बनाने से काम नहीं चलेगा बल्कि उन्हें नया संविधान बनाना पड़ेगा।

अब सवाल यह है कि भारत का नया संविधान कौन, कैसे बना सकता है। क्या यह मुमकिन है कि मोदी सरकार न्यू इंडिया का संविधान रचने हेतु मौजूदा संसद को नई संविधान सभा में परिणत कर दे, जिसमें सत्तारूढ़ मोर्चा को लोकसभा में करीब दो -तिहाई बहुमत प्राप्त है और राज्य सभा में दो -तिहाई  बहुमत अभी न होने के बावजूद वह उसके लिए सूक्ष्म प्रबंधन कर सकती है?  यह नहीं तो क्या वह नया संविधान बनाने के अपने किसी कदम को वित्त विधेयक के रूप में निरूपित कर उच्च सदन की सहमति की आवश्यकता को ही ठीक उसी तरह दरकिनार कर दे जैसा उसने हाल में कई विधेयकों को वित्त विधेयक होने का दावा कर किया है?

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के राजनीतिक अध्ययन केंद्र के पूर्व छात्र एवं रांची में बसे एक्टिविस्ट उपेंद्र प्रसाद सिंह के अनुसार इनमें से कोई भी उपाय असंवैधानिक होगा। उनका कहना है कि नया संविधान रचने के लिए भी मौजूदा संविधान में ही प्रावधानित जनमत संग्रह ही एकमात्र विकल्प है। लेकिन स्वतंत्र भारत में किसी भी मुद्दे को लेकर जनमत संग्रह के प्रावधान का उपयोग आज तक नहीं किया गया है। अब देखना यह है कि मोदी जी अपने स्वप्न के न्यू इंडिया के संविधान के लिए जनमत-संग्रह से आगे बढ़ते है या फिर कुछ और ही अकल्पनीय कदम उठाते है। इतना तो तय है कि अगर वह न्यू इंडिया के लिए नया संविधान रचते है तो उसमें ” भारतीयता ” और संवैधानिकता का निर्वाह आसान नहीं होगा।

(चंद्रप्रकाश झा स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं।)

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