Friday, April 19, 2024

बेटे और पति ने मुझे जीना सिखाया: आरके की पत्नी कंदुला शिरिषा

(माओइस्ट पार्टी केन्द्रीय कमेटी सदस्य आरके (अक्कीराजू हरगोपाल) की पत्नी कंदुला शिरिषा कहती हैं कि ‘‘मेरे पति और बेटे की मौत एक महान आंदोलन में हुई, उन्होंने अपनी जान दी है, इसलिए मुझे किसी दया या सहानुभूति की जरूरत नहीं है”। आरके और अपने बेटे से जुड़े संस्मरणों को उन्होंने साझा किया है। पेश है पूरा संस्मरण-संपादक)

मैं जानती थी कि आरके का स्वास्थ्य ठीक नहीं है, लेकिन ये नहीं सोचा था कि इतना गंभीर मामला होगा। मुश्किल समय में उनके साथ न हो पाने का दर्द मुझे कचोट रहा है। मैंने आरके से बहुत कुछ सीखा है। उनके लिए क्रांतिकारी आंदोलन का हित ही सबसे ऊपर और महत्वपूर्ण था। वे चाहते थे मेरा अधिक से अधिक राजनैतिक विकास हो, लेकिन जिम्मेदारियों के चलते मुझे समय नहीं दे सके। शुरू में मैं रामकृष्ण को थोड़ा परेशान करती थी-‘‘अपनी याद के लिए मेरे लिए एक साड़ी खरीद दो।’’ लेकिन वे कहते-‘‘ कॉमरेड जो तुम्हें पसंद हो, वो खरीदो।’’उस वक्त हमारे बीच छोटी-छोटी लड़ाइयां होती थीं। मैं कहती-‘‘ बाबू के जन्मदिन पर तुम्हें रहना होगा’’ वे कहते-‘‘मुझे जाना पड़ेगा।’’मैं कहती-‘‘मुझे कुछ समय दो’’वह हमेशा कुछ लिखने-पढ़ने बैठ जाते और फिर कहते-‘‘ अरे सॉरी कॉमरेड एक काम में लग गया और भूल गया।’’

उनके अनुशासन और प्रतिबद्धता ने मुझे हमेशा चकित किया। अपने प्यार की निशानी के रूप में मैं उन्हें शॉल, स्वेटर, शर्ट भेजती थी, जो वो उन्हें दे दिया करते थे, जिन्हें उसकी जरूरत होती थी। पता लगने पर मैंने पूछा-‘‘मेरे भाग्य कॉमरेड।’’ वे हंसे और बोले-‘‘तुम्हारी यादें मेरे दिल में हैं, उन चीजों में नहीं कॉमरेड।‘‘ ऐसे कई मौकों पर मैंने व्यक्तिगत हितों को प्राथमिकता देते हुए निपटी, लेकिन उन्होंने जिस तरीके से मेरे साथ व्यवहार किया उसने मुझे क्रांतिकारी जिम्मेदारी की याद दिला दी। ये सब मेरे पास सुरक्षित मीठी यादे हैं। बहुत से लोग सोचते हैं क्रांतिकारी लोग जटिल होते हैं, लेकिन वास्तव में उनके जैसे कोमल और स्नेहिल स्वभाव के लोग सामान्य आम समाज में शायद ही कभी दिखते हों। आरके का व्यक्तित्व इसका प्रमाण है, उनका दिल बहुत बड़ा है, जो मेरी आलोचना को भी स्वीकार कर सकता है।

आंदोलन में मेरा जीवन

आलकूरापाडु प्रकाशम जिले का गांव है। हमारे माता-पिता खेतिहर मजदूर थे। हम पांच बहनें हैं। मैं उन सबमें सबसे छोटी थी। हमें स्कूल में पिछली बेंच पर बैठने को बाध्य करना और किसानों के गांव में आने पर मेरे माता-पिता का खड़े हो जाना, ये सब मुझे बहुत परेशान करता था। उस समय मेरे जीजाजी कल्याण राव के माध्यम से घर पर आ रही साहित्यिक पत्रिकायें ‘सृजना’और ‘क्रांति’पढ़ती थी। मैं कह सकती हूं कि उन पत्रिकाओं ने मेरी सोच का विस्तार किया। मेरे जीजाजी के माध्यम से मेरा परिचय जन नाट्य मण्डली के लोगों से हुआ। मैं उनके साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने लगी। जैसा परिवारों में पितृसत्तात्मक उत्पीड़न और समाज में जातिगत भेदभाव होता है, वैसा मुझे क्रांतिकारी आंदोलन और पार्टी में नहीं दिखा। इसके अलावा मैंने देखा कि वहां सभी स्नेहपूर्वक व्यवहार करते हैं। मैंने महसूस किया कि शोषण और उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए वर्ग संघर्ष ही अंतिम समाधान है। मैंने भी आंदोलन में शामिल होने का फैसला ले लिया। ‘मैं एक पार्टी कार्यकर्ता से शादी करना चाहती हूं’यह बात मैंने जन नाट्य मण्डली के अगुवा लोगों से बोल दिया।

हमारा पहला परिचय

एक दिन ओंगोल में जीजाजी के घर पर कॉमरेड सूर्यम के साथ आरके भी आये थे। तब उनके गुप्त जीवन का नाम श्रीनिवास था। मैं उसी घर में रहती थी और 12वीं में पढ़ रही थी। जब मैं पानी का घड़ा भर कर ला रही थी, तो उन्होंन देखा और सोचा-‘‘ यह लड़की तो बहुत ताकतवर है।’’वही हमारा पहला परिचय था। अगले साल सूर्यम ने मुझसे कहा-‘‘आरके से शादी करना ठीक रहेगा। इस पर सोचो।’’पहले तो माता-पिता को मेरा किसी पार्टी के व्यक्ति से शादी करने का विचार पसंद नहीं आया, लेकिन मैंने सहमति व्यक्त कर दिया। तो हमारी शादी 11 अक्टूबर 1988 को त्रोवागुंटा में कल्याण राव के घर पर 20 लोगों की मौजूदगी में हुई। हम तीन साल तक एक घर में साथ रहे। मुन्ना के जन्म के 6 महीने बाद ही वे क्रांतिकारी आंदोलन में पूरी तरह से शामिल हो गये। उन्होनें बच्चे को किसी के पास छोड़कर मुझे भी पूरी तरह आंदोलन में शामिल होने के लिए कहा। मैंने कहा-‘‘ मैं बच्चे को नहीं छोड़ सकती।’’ उन्होंने कहा-‘‘जैसी आपकी इच्छा।’’ मैं बच्चे को लेकर मां के घर आ गयी। वहां रहकर मैं सिलाई कारीगर का काम करती रही, और बच्चे की परवरिश की। हलांकि मैं उनसे कभी-कभार मिलने जाती थी। एक बार मुझे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, कुछ समय जेल में रही। उसके बाद मैं उनसे कभी नहीं मिल सकी।

मुन्ना की मां होने का गर्व

एक दिन टीवी पर रामकृष्ण का साक्षात्कार देखते हुए मुन्ना ने पूछा-‘‘वही मेरे पिता हैं न?’’

‘‘तुम्हें किसने बताया?’’

‘‘मुझे पता है मां।’’

यह बात जब मैंने आरके को बताया तो उन्होंने पूछा-‘‘ उसकी पढ़ाई तो काफी हो गयी, क्या वह क्रांतिकारी आंदोलन में टिक पायेगा?’’

मैंने गुस्से से कहा-‘‘ मुन्ना वहां नहीं रह पायेगा..आप तो कर ही रहे हो, उसे भी ले जाना चाहते हो?’’

उन्होंने कहा-‘‘यह क्या बात हुई कॉमरेड! हम दूसरों से यही बात तो कहते हैं न?’’

मैंने कहा-‘‘मुन्ना खुद ही निर्णय लेगा।’’

पिता और पुत्र दोनों का स्वभाव एक जैसा ही था। दोनों को समाज बहुत प्यारा था। ‘एक दिन के लिए भी मेरे बगैर न रहने वाला मुन्ना मेरी जानकारी के बगैर क्रांति में चला गया’..यह सुन कर मैं चौंक गयी कि वह कितना बड़ा हो गया है। एक अवसर पर आरके ने कहा था-‘‘मुझे मुन्ना से बहुत कुछ सीखना है।’’ मुझे ऐसे बेटे की मां होने पर गर्व है, जिसका बेटा समाज से इतना प्यार किया और इतनी कम उम्र में ही अपने विचार के लिए अपना जीवन त्याग दिया।

हाथों में हाथ डालकर

शायद 25 साल पहले, अखबारों में हर रोज एनकाउंटर की खबरें आती देख मुझे डर लगता रहता था कि कहीं उन्हें कुछ न हो जाय। मैंने यह बात आरके से मिलने पर कहा और फूट-फूट कर रो पड़ी। उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और कहा-‘‘60 साल का होने तक मुझे कुछ नहीं हो सकता, उसके आगे मैं कुछ नहीं कह सकता। उन्होंने मुझे हिम्मत दिलाने का प्रयास किया-‘‘आप निराश क्यों होती हैं, डर क्रांतिकारियों की विशेषता नहीं।’’

शादी की खीर

हमारी शादी के ठीक 10 साल बाद मैं 11 अक्टूबर को उनके साथ थी। उनकी कोई गोपनीय बैठक हो रही थी। हमारी सालगिरह के बारे में जानने के बाद कुछ महिला साथियों ने सेमिया का खीर बनाकर सबको खिलाया। पता चलने पर आरके फुसफुसाये-‘‘यह तो बुर्जुआ संस्कृति है साथियों।’’एक साथी ने कहा ‘‘क्रांतिकारी इंसान नहीं है क्या? क्या उसे इतनी छोटी सी खुशी भी नहीं मिलनी चाहिए?’’

आरके ने जिस तरह मेरे साथ व्यवहार किया, उसके लिए सबने आरके की प्रशंसा की। वे इतना संयमी थे, उतना ही मृदुभाषी और उससे भी ज्यादा प्रेममूर्ति। ऐसे महान व्यक्ति की जीवनसाथी बनकर खुशी हुई।

सपना नहीं….जिंदगी मूल्यवान है

आरके चार्ली चैप्लिन की फिल्मों को बहुत पसंद करते थे। गानों में अक्सर तेलुगू और हिंदी फिल्मों के पुराने गाने सुनते थे। उनमें से फिल्म ‘वेलुगु नीडालु में श्री श्री द्वारा लिखा गया गीत ‘काला कनिदी विवलुयानदि बगतुकु…कन्नीटी धरतालो बलिचेयाकु ( सपना नहीं जिन्दगी अनमोल है… आंसुओं की धाराओं में बलिदान न करें) सबसे अधिक सुनते थे। शादी के शुरुआती दिनों में हमने कुछ फिल्में साथ देखी हैं। शायद मुन्ना जब 5 साल का था, हम तीनों ने थियेटर में ‘बाम्बे’फिल्म देखी थी। आरके को खाने-पीने की ज्यादा परवाह नहीं रहती थी। कुछ भी खा लेते थे। उसमें भी बहुत कम मात्रा में खाते थे। उन्हें दाल, आम की चटनी और घी मिला चावल पसंद था।

अंत तक साथ रहने की इच्छा

आरके के साथ क्रांति में अंत तक न जा पाने की साध रह गयी। एक बार मैंने पूछा था-‘‘ क्या हम आखिरी दिनों में साथ रह पायेंगे?’’

उन्होंने कहा था-‘‘चलो देखते हैं, तब क्या स्थिति होगी।’’जीवन के अंतिम पड़ाव में ही सही उनके साथ रहना चाहती थी मैं। इच्छा थी कि हम दोनों साथ रहते हुए मुन्ना की यादों को बांटेंगे, लेकिन वैसा नहीं हो सका। उन दोनों ने मुझे वास्तविकता को स्वीकारने की बात सिखाई।

अभी आलाकूरापाडु में मेरी एक छोटी सी दुकान है। उसी से मेरी रोजी-रोटी चलती है। कुछ लोग मुझे बेटे को खो देने के लिए सहानुभूति दिखाते हैं। ऐसे लोगों से बस इतना ही कहना चाहती हूं एक महान आंदोलन में मेरे पति और बच्चे ने जान दी है, उनका यह जीवन का बलिदान है, इसलिए मुझे आपकी दया और सहानुभूति नहीं चाहिए।

(माओइस्ट पार्टी केन्द्रीय कमेटी सदस्य अक्कीराजू हरगोपाल उर्फ आरके की पत्नी कंदुला शिरीषा का यह लेख एक तेलुगू समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ था, जिसका हिन्दी अनुवाद चेराकूरि राज कुमार की पत्नी एडवोकेट पद्मा ने किया है।)

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