Saturday, April 20, 2024

प्रोमोशन में आरक्षण पर पिछले फैसलों में फेरबदल को सुप्रीम कोर्ट राजी नहीं

उच्चतम न्यायालय ने अपने पहले के फैसलों में जो आरक्षण के पैमाने तय किए थे, उसमें छेड़छाड़ करने से मना कर दिया है। इसके साथ ही उच्चतम न्यायालय ने एससी एसटी के प्रमोशन में रिजर्वेशन के लिए कोई मानदंड तय करने से इनकार कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि सरकारी नौकरी में एससी एसटी के प्रमोशन में रिजर्वेशन के लिए राज्य की ड्यूटी है कि वह एससी एसटी के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व का डाटा एकत्र करे। परिमाणात्मक यानी मात्रात्मक आंकड़े एकत्र करने के लिए राज्य बाध्य हैं। एससी और एसटी के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के संबंध में मात्रात्मक डाटा पूरी सर्विस या ग्रुप से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है, बल्कि अपर्याप्त प्रतिनिधित्व उन पदों के कैडर या ग्रेड के संदर्भ में देखा जाना चाहिए जिन पदों के लिए प्रमोशन मांगा गया है। ऐसे में मात्रात्मक डाटा कैडर के मद्देनजर एकत्र किया जाएगा, जिनमें प्रमोशन की दरकार है। उच्चतम न्यायालय ने ये भी कहा कि सरकार को समय-समय पर इस बात की समीक्षा जरूर करनी चाहिए कि नौकरियों में अनुसूचित जाति और जनजातियों को सही प्रतिनिधित्व मिला है या नहीं ।

इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और वरिष्ठ वकील अमरेन्द्र नाथ सिंह कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट से साफ है कि जो अपर्याप्त प्रतिनिधित्व का मामला है यह देखना राज्य का काम है। उसके लिए डाटा तैयार करना भी राज्य का काम है। ऐसे में राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप ग्रेड बेसिस पर अपर्याप्त प्रतिनिधित्व का डाटा तैयार करना होगा और उसके बाद एससी एसटी को प्रमोशन में रिजर्वेशन देना होगा। राज्य को प्रमोशन में रिजर्वेशन देने के लिए कैडर के मद्देनजर अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को जस्टिफाई करना होगा। ग्रुप और सर्विस के बेसिस पर डाटा एकत्र करने से पता नहीं चलेगा कि कैडर कितना अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है। रोस्टर कैडर के हिसाब से बनता है।

जस्टिस एल नागेश्वर राव, जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस बीआर गवई की पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही थी। केंद्र और राज्यों ने उच्चतम न्यायालय से प्रोमोशन में आरक्षण के मानदंडों के बारे में भ्रम को दूर करने का आग्रह करते हुए कहा था कि अस्पष्टता के कारण कई नियुक्तियां रुकी हुई हैं। पीठ ने शुक्रवार को सुनाये अपने फैसले में कहा कि प्रमोशन में आरक्षण को लेकर जो पहले के फैसलों में पैमाने तय किए थे, उन्हें हल्का नहीं किया जाएगा। पीठ ने जरनैल सिंह बनाम लक्षमी नारायण गुप्ता मामले में 2018 में 5 जजों की बेंच द्वारा दिए गए संदर्भ के बाद मामले की सुनवाई के बाद 26 अक्टूबर 2021 को फैसला सुरक्षित रख लिया था।

पीठ ने फैसले में कहा कि प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता को निर्धारित करने के लिए न्यायालय कोई मानदंड निर्धारित नहीं कर सकता। राज्य प्रतिनिधित्व की पर्याप्तता के संबंध में मात्रात्मक डेटा एकत्र करने के लिए बाध्य है। आरक्षण के लिए मात्रात्मक डेटा के संग्रह के लिए कैडर एक इकाई के तौर पर होना चाहिए। संग्रह पूरे वर्ग/वर्ग/समूह के संबंध में नहीं हो सकता, लेकिन यह उस पद के ग्रेड/श्रेणी से संबंधित होना चाहिए जिससे प्रोमोशन मांगा गया है। कैडर मात्रात्मक डेटा एकत्र करने की इकाई होना चाहिए। यदि डेटा का संग्रह पूरी सेवा के लिए किया जाएगा तो ये अर्थहीन होगा। 2006 के नागराज फैसले का संभावित प्रभाव होगा। बीके पवित्रा (द्वितीय) में समूहों के आधार पर आंकड़ों के संग्रह को मंज़ूरी देने का निष्कर्ष, न कि कैडर के आधार पर, जरनैल सिंह में फैसले के विपरीत है।

पीठ की अध्यक्षता कर रहे जस्टिस नागेश्वर राव ने फैसले के महत्वपूर्ण अंश सुनाते हुए कहा कि तर्कों के आधार पर, हमने प्रस्तुतीकरण को 6 बिंदुओं में विभाजित किया है। एक मानदंड है। जरनैल सिंह और नागराज निर्णय के आलोक में हमने कहा है कि हम कोई मानदंड निर्धारित नहीं कर सकते। मात्रात्मक डेटा एकत्र करने के लिए इकाई के संबंध में हमने कहा है कि राज्य मात्रात्मक डेटा एकत्र करने के लिए बाध्य है। संग्रह पूरे वर्ग/वर्ग/समूह के संबंध में नहीं हो सकता, लेकिन यह उस पद के ग्रेड/श्रेणी से संबंधित होना चाहिए जिस पर पदोन्नति मांगी गई है। मात्रात्मक डेटा कैडर संग्रह की इकाई होना चाहिए। यह अर्थहीन होगा यदि डेटा का संग्रह संपूर्ण सेवा के संबंध में है।

हमने माना है कि नागराज का संभावित प्रभाव होगा और उसके बाद बी के पवित्रा II, हमने माना है कि बी के पवित्रा II, समूहों के आधार पर डेटा के संग्रह को मंजूरी देना, ना कि कैडर के आधार पर, नागराज और जरनैल सिंह में निर्धारित कानून के विपरीत है। आनुपातिक प्रतिनिधित्व और पर्याप्तता के परीक्षण के लिए – जैसा कि जरनैल सिंह ने उस पहलू में जाने से इनकार कर दिया है, हम इसमें नहीं गए हैं, हमने प्रासंगिक कारकों को ध्यान में रखते हुए पद की पदोन्नति में एससी/एसटी के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता का आकलन करने के लिए इसे राज्य पर छोड़ दिया है।

समीक्षा की समयावधि – हमने कहा कि प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता का निर्धारण करने और पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य से डेटा के संबंध में समीक्षा की जानी है। और समीक्षा की अवधि उचित होनी चाहिए और समीक्षा की अवधि निर्धारित करने के लिए सरकार पर छोड़ दी जानी चाहिए।

जस्टिस राव ने कहा कि हमने व्यक्तिगत मामलों के गुण-दोष पर कोई राय व्यक्त नहीं की है। हमने पक्षों को सुनने के बाद तैयार किए गए सामान्य मुद्दों का ही जवाब दिया है। हम मामले को 24 फरवरी को सूचीबद्ध कर रहे हैं। हमारे पास पहले से ही अटॉर्नी जनरल द्वारा दिए गए समूह हैं। कुछ समूहों के मामले 24 फरवरी को आएंगे। हम पहले केंद्र सरकार के मामलों को सूचीबद्ध करेंगे, हम उस दिन गृह सचिव के खिलाफ अवमानना याचिका पर भी सुनवाई करेंगे।

पीठ ने भारत के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल बलबीर सिंह और कई अन्य वरिष्ठ वकीलों को राज्यों और सरकारी कर्मचारियों की ओर से बहस की सुनवाई की थी। प्रतिनिधित्व की पर्याप्तता कैसे निर्धारित की जानी चाहिए, क्या यह विभिन्न जातियों की जनसंख्या प्रतिशत के अनुपात में निर्धारित किया जाना चाहिए, क्या ए और बी श्रेणियों में उच्च पदों पर आरक्षण होना चाहिए, क्या आरक्षित श्रेणी का कोई व्यक्ति प्रवेश स्तर में योग्यता के आधार पर नियुक्त किया गया है, पदोन्नति आदि में आरक्षण का हकदार होगा या नहीं, इन मुद्दों को सुनवाई के दौरान उठाया गया था।

अटॉर्नी जनरल ने राय दी थी कि याचिकाओं के मौजूदा बैच में न्यायालय के विचार के लिए जो मुद्दे उठे थे, वे है पर्याप्त प्रतिनिधित्व के लिए मात्रात्मक डेटा पर पहुंचने के लिए अपनाए जाने वाले मानदंड, क्या कैडर को एक इकाई के रूप में लिया जाना चाहिए,  प्रशासन की ‘दक्षता’ के मानदंड का निर्धारण और  क्या न्यायालय द्वारा जारी किए गए विभिन्न निर्देश भावी या पूर्वव्यापी रूप से संचालित होंगे। पीठ ने फैसला सुरक्षित रखते हुए साफ कर दिया था कि वह जरनैल सिंह में 5 जजों की बेंच द्वारा तय किए गए मसलों को दोबारा नहीं खोलेगी।

वरिष्ठ अधिवक्ता अमरेन्द्र नाथ सिंह का कहना है कि पदोन्नति में आरक्षण के विषय में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 में सार्वजनिक पदों पर अवसर की समानता से संबंधित प्रावधान किये गए हैं। अनुच्छेद 16(1) के अनुसार राज्य के अधीन किसी भी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समानता होगी। अनुच्छेद 16(2) के अनुसार, राज्य के अधीन किसी भी पद के संबंध में धर्म,  मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इसमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उससे विभेद किया जाएगा। हालाँकि संविधान के अनुच्छेद 16(4) और 16(4A) में सार्वजनिक पदों के संबंध में सकारात्मक भेदभाव या सकारात्मक कार्यवाही का आधार प्रदान किया गया है।

संविधान के अनुच्छेद 16(4) के अनुसार, राज्य सरकारें अपने नागरिकों के उन सभी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण हेतु प्रावधान कर सकती हैं, जिनका राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। अनुच्छेद 16(4A) के अनुसार, राज्य सरकारें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पक्ष में पदोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिये कोई भी प्रावधान कर सकती हैं यदि राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ट अधिवक्ता रामानंद पाण्डे का कहना है कि वर्ष 2006 में एम नागराज बनाम भारत संघ में उच्चतम न्यायालय  की संविधान पीठ ने पप्रोन्नति में आरक्षण प्रदान करने वाले 85 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था। नागराज में उच्चतम न्यायालय  ने प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता पर डेटा का संग्रह, प्रशासन पर दक्षता पर समग्र प्रभाव और क्रीमी लेयर को हटाने जैसी शर्तें रखी थीं। प्रोमोशन में आरक्षण पर विचार करते समय 2018 में, जरनैल सिंह में 5-न्यायाधीशों की पीठ  ने एम नागराज बनाम भारत संघ के मामले में 2006 के फैसले को उस हद तक गलत मानते हुए संदर्भ का जवाब दिया, जिसमें कहा गया था कि पदोन्नति में आरक्षण देते समय अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के पिछड़ेपन को दर्शाने वाला मात्रात्मक डेटा आवश्यक है। इस स्पष्टीकरण के साथ, 5-न्यायाधीशों की पीठ ने नागराज के फैसले को 7-न्यायाधीशों की पीठ को सौंपने की याचिका को ठुकरा दिया था।

उच्चतम न्यायालय केंद्र सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा 144 याचिकाओं (जरनैल सिंह बनाम लच्छमी नारायण गुप्ता और अन्य व संबंधित मामले, एसएलपी (सी) नंबर 30621/2011) का वर्तमान समूह दायर किया गया था जिसमें सुप्रीम कोर्ट से पदोन्नति में आरक्षण से संबंधित मुद्दों पर तत्काल सुनवाई करने का आग्रह किया गया था क्योंकि पदोन्नति में आरक्षण लागू करने के मानदंडों में अस्पष्टता के कारण कई नियुक्तियां रोक दी गई हैं। केस: जरनैल सिंह बनाम लच्छमी नारायण गुप्ता और अन्य व संबंधित मामले, एसएलपी (सी) नंबर 30621/2011

दरअसल भारत की सदियों पुरानी जाति व्यवस्था और छुआछूत जैसी कुप्रथाएँ देश में आरक्षण व्यवस्था की उत्पत्ति का प्रमुख कारण हैं। सरल शब्दों में आरक्षण का अभिप्राय सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों और विधायिकाओं में किसी एक वर्ग विशेष की पहुँच को आसान बनाने से है।इन वर्गों को उनकी जातिगत पहचान के कारण ऐतिहासिक रूप से कई अन्यायों का सामना करना पड़ा है।

वर्ष 1882 में विलियम हंटर और ज्योतिराव फुले ने मूल रूप से जाति आधारित आरक्षण प्रणाली की कल्पना की थी।आरक्षण की मौजूदा प्रणाली को सही मायने में वर्ष 1933 में पेश किया गया था जब तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमसे मैकडोनाल्ड ने सांप्रदायिक अधिनिर्णय दिया। विदित है कि इस अधिनिर्नयन के तहत मुसलमानों, सिखों, भारतीय ईसाइयों, एंग्लो-इंडियन, यूरोपीय और दलितों के लिये अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों का प्रावधान किया गया।आज़ादी के पश्चात् शुरुआती दौर में मात्र एससी और एसटी  समुदाय से संबंधित लोगों के लिये ही आरक्षण की व्यवस्था की गई थी, किंतु वर्ष 1991 में मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को भी आरक्षण की सीमा में शामिल कर लिया गया।

नवंबर, 1992 को इंदिरा साहनी मामले में ओबीसी  आरक्षण पर फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने पदोन्नति में एससी  और एसटी समुदाय को दिये जा रहे आरक्षण पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए इसे पाँच वर्ष के लिये ही लागू रखने का आदेश दिया था।इंदिरा साहनी मामले में निर्णय के बाद से ही यह मामला विवादों में है।वर्ष 1995 में संसद ने 77वाँ संविधान संशोधन पारित कर पदोन्नति में आरक्षण को जारी रखा था इस संशोधन में यह प्रावधान किया गया कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को यह अधिकार है कि वह पदोन्नति में भी आरक्षण दे सकती हैं।

इसके बाद यह मामला फिर उच्चतम  न्यायालय में चला गया।तब न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि इस संदर्भ में आरक्षण तो दिया जा सकता है, लेकिन वरिष्ठता नहीं मिलेगी। इसके पश्चात् 85वाँ संविधान संशोधन पारित किया गया और इसके माध्यम से परिणामी ज्येष्ठता की व्यवस्था की गई।लेकिन  पदोन्नति में एससी और एसटी  की तत्कालीन स्थिति नागराज और अन्य बनाम भारत सरकार वाद पर सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 2006 के निर्णय के पश्चात् पुनः बदल गई।

नागराज और अन्य बनाम भारत सरकार वाद में संसद द्वारा किये गए 77वें व 85वें संविधान संशोधनों को सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों द्वारा चुनौती दी गई। न्यायालय ने अपने निर्णय में इन संवैधानिक संशोधनों को तो सही ठहराया, किंतु पदोन्नति में आरक्षण के लिये तीन मापदंड निर्धारित कर दिये, जिनमें एससी और एसटी समुदाय को सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ा होना चाहिये ।सार्वजनिक पदों पर एससी और एसटी समुदाय का पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होना। इस प्रकार की आरक्षण नीति का प्रशासन की समग्र दक्षता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

तत्पश्चात् वर्ष 2018 में जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता वाद में उच्चतम  न्यायालय ने फैसला देते हुए कहा कि पदोन्नति में आरक्षण के लिये राज्यों को एससी और एसटी के पिछड़ेपन से संबंधित मात्रात्मक डेटा एकत्र करने की आवश्यकता नहीं है।

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