Saturday, April 20, 2024

महाराष्ट्र सरकार को सुप्रीम झटका, स्थानीय चुनावों में ओबीसी आरक्षण पर रोक

उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार की ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण की अधिसूचना रद्द कर दी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बिना जरूरी आंकड़े जुटाए आरक्षण दिया गया। इन सीटों को भी सामान्य सीट मानते हुए चुनाव करवाया जाए। उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को राज्य सरकार और महाराष्ट्र के राज्य चुनाव आयोग को महाराष्ट्र स्थानीय निकाय चुनावों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित 27% सीटों को सामान्य सीटों के रूप में अधिसूचित करने और चुनाव प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का निर्देश दिया। वहीं कोर्ट ने कहा कि राज्य चुनाव आयोग तुरंत एक अधिसूचना जारी करे कि ओबीसी आरक्षण सीटों को सामान्य सीट माना जाएगा।

महाराष्ट्र की उद्धव सरकार को बड़ा झटका देते हुए उच्चतम न्यायालय  ने स्थानीय चुनाव में ओबीसी आरक्षण की याचिका को खारिज कर दिया है। जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस सीटी रविकुमार की पीठ ने कहा है कि स्थानीय चुनाव में ओबीसी आरक्षण नहीं मिलेगा। ओबीसी के लिए आरक्षित सीटें सामान्य सीटों में तब्दील कर दी गई हैं। पीठ ने महाराष्ट्र सरकार की ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण की अधिसूचना रद्द करते हुए कहा है कि बिना जरूरी आंकड़े जुटाए आरक्षण दिया गया। इन सीटों को भी सामान्य सीट मानते हुए चुनाव करवाया जाए। पीठ ने कहा कि राज्य चुनाव आयोग तुरंत एक अधिसूचना जारी करे कि ओबीसी आरक्षण सीटों को सामान्य सीट माना जाएगा। पीठ ने यह भी निर्देश दिया कि दोनों श्रेणियों (73% सामान्य सीटों और 27% सीटों को सामान्य सीटों के रूप में फिर से अधिसूचित) के परिणाम एक ही दिन घोषित किए जाने चाहिए।

पीठ ने मंगलवार को कहा था कि वह बुधवार को इस मामले से निपटेगी, क्योंकि राज्य में चुनाव रुके हुए हैं। महाराष्ट्र की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी) ने पीठ को बताया था कि उन्होंने ओबीसी के लिए आरक्षित 27 प्रतिशत सीटों पर चुनाव पर रोक संबंधी शीर्ष अदालत द्वारा पारित आदेश से संबंधित एक आवेदन दायर किया है। याचिकाकर्ताओं में से एक की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने पीठ से कहा कि सभी सीटों पर चुनाव पर रोक लगाई जा सकती है, क्योंकि केवल ओबीसी के लिए आरक्षित सीटों पर रोक रहने से समुदाय को पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है।

पीठ ने अपने 6 दिसंबर के आदेश में किसी तरह की तब्दीली से इनकार करते हुए कहा कि राज्य चुनाव आयोग अपनी पिछली अधिसूचना में बदलाव करते हुए हफ्ते भर में नई अधिसूचना जारी करे। उस अधिसूचना में पिछड़े वर्गों के लिए 27 फीसदी आरक्षण के प्रावधान को रद्द करते हुए बाकी बची 73 फीसदी सीटें सामान्य श्रेणी के लिए रखे जाने की नई अधिसूचना एक हफ्ते में जारी करने का आदेश राज्य चुनाव आयोग को दिया है। 6 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र स्थानीय निकाय चुनाव में OBC उम्मीदवारों के लिए 27% आरक्षित सीटों पर रोक लगा दी थी।

पीठ ने दो याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह आदेश पारित किया था। इन याचिकाओं में से एक में कहा गया कि एक अध्यादेश के माध्यम से शामिल, संशोधित प्रावधान समूचे महाराष्ट्र में संबंधित स्थानीय निकायों में पिछड़े वर्ग के नागरिकों के लिये समान रूप से 27 प्रतिशत आरक्षण की इजाजत देते हैं। पीठ ने तब कहा था कि इसके फलस्वरूप, राज्य चुनाव आयोग को केवल संबंधित स्थानीय निकायों में ओबीसी वर्ग के लिए आरक्षित सीटों के संबंध में पहले से अधिसूचित चुनाव कार्यक्रम के साथ आगे बढ़ने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।

हस्तक्षेप करने वालों में से एक की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने आग्रह किया कि ओबीसी कोटा रोका नहीं जाए। उन्होंने कहा कि 2017 के चुनाव के आंकड़ों के आधार पर चुनाव की अनुमति दी जा सकती है। दवे ने जोर देकर कहा कि राज्य या केंद्र सरकारों की निष्क्रियता के कारण पिछड़े वर्गों को पीड़ित होने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। दवे ने अनुरोध किया, “मैं हाथ जोड़कर अनुरोध कर रहा हूं कि आयोग को अधिनियम के अनुच्छेद 142 के तहत अभ्यास करने का निर्देश दिया जाए। राज्यों में चुनाव होते रहे हैं। राज्य परमादेश से बंधे हैं। यह ओबीसी के लिए बहुत पूर्वाग्रह का कारण होगा क्योंकि राज्य और संघ की निष्क्रियता है”।

महाराष्ट्र राज्य की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने अदालत से पूरे चुनाव पर रोक लगाने का अनुरोध किया, और इस बीच राज्य आयोग को डेटा संग्रह की प्रक्रिया में तेजी लाने और तीन महीने के बाद मामले की समीक्षा करने का निर्देश मांगा। उन्होंने कहा कि कोविड समस्याओं के कारण आयोग के काम में देरी हुई। रोहतगी ने यह भी कहा कि कृष्ण मूर्ति में संविधान पीठ के फैसले ने देखा था कि स्थानीय निकायों में प्रतिनिधित्व के लिए “अंगूठे का नियम” जनसंख्या में अनुपात था।

हालांकि, पीठ ने इस तर्क को यह कहते हुए स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि गवली के फैसले में विशेष रूप से यह माना गया था कि पिछड़े वर्गों के लिए स्थानीय निकाय आरक्षण देने के लिए “ट्रिपल टेस्ट” की पूर्ति पूर्व-शर्तें हैं। ट्रिपल परीक्षण हैं , राज्य के भीतर स्थानीय निकायों के रूप में पिछड़ेपन की प्रकृति और निहितार्थ की कठोर अनुभवजन्य जांच करने के लिए एक आयोग की स्थापना,आयोग की सिफारिशों के आलोक में स्थानीय निकाय-वार प्रावधान किए जाने के लिए आवश्यक आरक्षण के अनुपात को निर्दिष्ट करना, ताकि अधिकता का भ्रम न हो,तथा  किसी भी मामले में ऐसा आरक्षण अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग के पक्ष में आरक्षित कुल सीटों के कुल 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा।

पूरे चुनाव को टालने की रोहतगी की याचिका का समर्थन करते हुए दवे ने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित आदेश का हवाला दिया जिसमें तमिलनाडु में स्थानीय चुनाव स्थगित कर दिया गया था। लेकिन पीठ ने कहा कि परिसीमन और जाति प्रतिनिधित्व दो अलग-अलग मुद्दे हैं, जिनकी तुलना नहीं की जा सकती।

एक हस्तक्षेपकर्ता संगठन की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता पी विल्सन ने कहा कि एक संवैधानिक गतिरोधउभरा है क्योंकि सरकारें जाति सर्वेक्षण नहीं कर रही हैं, जिसके परिणामस्वरूप स्थानीय निकायों में पिछड़े वर्गों को आरक्षण से वंचित कर दिया गया है।

महाराष्ट्र अध्यादेशों को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता विकास सिंह ने कहा कि आयोग की रिपोर्ट से पहले ओबीसी कोटा प्रदान करना घोड़े से आगे गाड़ी रखने जैसा है। उन्होंने कहा कि कई जगहों पर, ओबीसी आबादी बहुमत में है और वे बिना आरक्षण के भी व्यक्तियों को चुनने की स्थिति में हैं। इसलिए, इसे लागू करने से पहले उचित डेटा संग्रह करना आवश्यक है।

दलीलें खत्म होने के बाद, पीठ ने रोक के आदेश को रद्द करने के अनुरोध को ठुकराते हुए आदेश सुनाया। पीठ ने यह भी कहा कि इस तर्क का समर्थन करना संभव नहीं है कि ट्रिपल टेस्ट की आवश्यकता का अनुपालन किए बिना, राज्य के अधिकारियों को राज्य भर में ओबीसी के लिए सीटों को अधिसूचित करने की अनुमति दी जा सकती है।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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