Friday, March 29, 2024

गणतंत्र पर जनता का पहला हक, लिहाजा ट्रैक्टर परेड सुनिश्चित कराना केंद्र की संवैधानिक जिम्मेदारी!

सरकार के साथ किसान नेताओं की ग्यारहवीं दौर की बैठक भी बिना किसी परिणाम के खत्म हो गई। 22 जनवरी की बैठक में सरकार और किसान संगठनों के नेताओं के बीच बस बीस मिनट की ही बातचीत हुई। लगता है सरकार के पास कुछ नयी बात कहने के लिए नहीं थी और सरकार ने किसान नेताओं से कानून को होल्ड करने के प्रस्ताव पर पुनर्विचार करने की बात कही। पर किसान संगठन, एमएसपी पर खरीद की गारंटी क़ानून और कृषि क़ानूनों को रद्द करने की अपनी मांगों पर कायम रहे। इसके बाद कृषि मंत्री ने कहा, “कृषि क़ानूनों में कोई कमी नहीं है। आप लोग सरकार के प्रस्ताव पर पुनर्विचार करें।” इतना कहकर कृषि मंत्री विज्ञान भवन से चले गए। पुनः जब कृषि मंत्री, साढ़े तीन घंटे बाद वापस आए तो उन्होंने दोबारा कहा कि कृषि कानूनों में कोई कमी नहीं है, और इसके साथ ही आज की बैठक समाप्त हो गई।

सरकार बार-बार कह रही है कि वह इन कानूनों को डेढ़ साल के लिए होल्ड कर सकती है। पर यहां एक कानूनी सवाल उठता है कि क्या सरकार ऐसा कानूनन कर सकती है? जहां तक मेरी जानकारी है, संसद द्वारा पारित कानून पुनः संसद द्वारा ही रद्द किया जा सकता है या वापस लिया जा सकता है, या यदि उसकी संवैधनिकता को चुनौती दी गई है तो, सुप्रीम कोर्ट में उसे स्थगित कर के उसके संवैधनिकता के मुद्दे पर संविधान पीठ का गठन कर के, सुनवाई की जा सकती है, पर क्या सरकार यानी कार्यपालिका को ऐसा कोई अधिकार है कि वह संसद द्वारा पारित किसी कानून को होल्ड पर रख दे और होल्ड पर रखने की समय सीमा मनमानी तरह से तय की गई हो?

संविधान विशेषज्ञ इस बिंदु पर अपनी राय दे सकते हैं, लेकिन सरकार को इस प्रकार का अधिकार देना क्या संसद की सर्वोच्चता पर सवालिया निशान लगाना नहीं है? विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका इन तीनों के ही अलग-अलग कार्य हैं और इनकी अलग-अलग शक्तियां और अधिकार क्षेत्र हैं। पर इन तमाम चेक और बैलेंसेज के बावजूद, संसद की सर्वोच्चता निर्विवादित है। अब अगर यह कानून संसद ने पारित कर दिया है तो यह देश का कानून, लॉ ऑफ द लैंड बन गया है। अजीब स्थिति है। कानून कोई भी हो, उसे पर्याप्त सोच समझकर और विचार विमर्श के बाद बनाना चाहिए, पर यहां तो सरकार कह रही है कि कानून में कोई कमी नहीं है, यदि है तो उसे हम होल्ड कर देते हैं और फिर उस पर सोच-विचार करते हैं!

यदि इस कानून में कोई संवैधानिक पेंच है, तो इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है और वहां केवल इस कानून की संवैधनिकता पर ही विचार होगा, न कि कानून के असर पर। कानून के असर या मेरिट, डीमेरिट पर संसद में बहस हो चुकी है और संसद ने उसे पास कर दिया है। यदि सरकार को लगता है कि कानून के कुछ प्राविधान गलत बन गए हैं या उनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा तो सरकार या तो संसद में उन पर संशोधन ला सकती है या उसे रद्द कर के रिड्राफ्ट कर सकती है। पर जो भी होगा संसद से ही होगा।

कानून बनने के बाद उसकी नियमावली बनती है। उसी नियमावली के अंतर्गत उक्त कानूनों को लागू किया जाता है। फिर उसके प्रोसीजर बनते हैं. और भी कई निर्देश जारी होते हैं। आज सरकार यह तो कह रही है कि वह उन कानूनों को जिनके खिलाफ किसान आंदोलन कर रहे हैं वह डेढ़-दो साल के लिए होल्ड पर रख कर एक कमेटी बना कर विचार करने के लिए तैयार है। पर यही काम संसद में विधेयकों को स्टैंडिंग कमेटी के सामने भेज कर भी तो किया जा सकता था? पर जब दिमाग में अहंकार, जिद और जो कुछ है मैं ही हूं, भरा हो तो, ऐसी बात सूझती भी कहां है!

सरकार को चाहिए कि इन कानूनों को होल्ड कर के नए कानूनी विवाद पैदा करने के बजाय,
● एक अध्यादेश ला कर इन क़ानूनों को रद्द करे।
● कानूनों को रद्द करने का संसद से अनुमोदन कराए।
● कृषि विशेषज्ञों और किसान संगठनों की एक कमेटी बना कर कृषि सुधार का कोई दस्तावेज लाए।
● उस पर बहस हो और फिर कानून बने तथा नियमानुसार संसद, स्टैंडिंग कमेटी और मतदान की प्रक्रिया से पार होकर विधिवत कानून बने।

होल्ड करने का निर्णय, बेतुका, नियमों के प्रतिकूल, और एक गलत परंपरा की शुरुआत करना होगा। कल कोई भी सरकार इस परंपरा की आड़ में किसी भी कानून को अपनी मनमर्जी से असीमित समय तक के लिए होल्ड रख सकने की परंपरा का दुरुपयोग कर सकती है और यह संसद की सर्वोच्चता की अवहेलना ही होगी। 2019 में किए गए भाजपा के कृषि सुधार संबंधित वादों का अगर आकलन किया जाए तो नए कृषि कानून उन वादों के बिल्कुल उल्टे बनाए गए हैं। वादा किसी और सुधार का है और इन कानूनों द्वारा सुधार किसी और का किया जा रहा है। दरअसल वादा तो जनता से वोट लेने का एक छल भरा तमाशा होता है और, जो किया जाता है वह जनता के लिए नहीं बल्कि कॉरपोरेट और कुछ चहेते पूंजीपतियों के लिए किया जाता है।

अब कुछ वादों और उनके क्रियान्वयन पर नज़र डालते हैं-

● 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा।
सच यह है कि अधिकांश राज्यों में कृषि लागत ही नहीं निकल रही है। जिन राज्यों में लागत मिल भी रही है, वहां उसका एक बड़ा कारण एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद है। नियमित एमएसपी, किसानों की आय का एक निश्चित आश्वासन है। आज किसान यही मांग कर रहे हैं कि उन्हें अपनी फसल का, कम से कम न्यूनतम समर्थन मूल्य तो मिले।

जब सरकार एमएसपी पर ही किसान की फसल, जितनी भी वह खरीदती है, खरीद सकती है तो, यही बाध्यता वह निजी क्षेत्र या कॉरपोरेट पर, क्यों नहीं एक कानून बना कर लाद सकती कि वे भी एमएसपी पर ही फसल खरीदें, जिससे किसानों को कम से कम न्यूनतम मूल्य तो मिले? इसमें जो पैसा व्यय होगा, वह खरीदने वाले का ही तो होगा। कॉरपोरेट हो, स्थानीय व्यापारी हो या कोई भी पैन कार्ड होल्डर हो, जो भी फसल खरीदे, सरकार द्वारा न्यूनतम दर पर तो कम से कम खरीदे ही।

आखिर, कॉरपोरेट या कोई भी निजी संस्था या व्यक्ति, अपनी निजी मंडी द्वारा किसान की फसल खरीदना चाहता है तो जिस भाव पर सरकार, बगल में ही स्थित सरकारी मंडी में किसान से फसल खरीद रही है तो, निजी मंडी वाले वही न्यूनतम दर उसी फसल का क्यों नहीं दे सकते हैं? सरकारी मंडी में तो 6% टैक्स भी लगता है। पर निजी मंडी को तो टैक्स की छूट तक नए कानून में दे दी गई है। यह सीधे-सीधे सरकारी मंडी को, जिओ को लाभ पहुंचाने के लिए बीएसएनएल को जानबूझकर बर्बाद करने के तरीके की रणनीति है और सरकार इसमें कॉरपोरेट के साथ शरीके जुर्म है।

10 हजार से अधिक किसान उत्पादन संगठनों के गठन में सरकार सहायता करेगी।
2019 के बाद सरकार यही बता दे कि उसने कितने किसान उत्पादन संगठन के गठन किए हैं? इन संगठनों का उद्देश्य क्या है? इससे किसानों की आर्थिक स्थिति में क्या लाभ पहुंचा है?

ई नाम ग्राम और प्रधानमंत्री आशा योजना के जरिये एमएसपी प्राप्त करने के लिए बाजार पैदा करने के पर्याप्त अवसर पैदा किए जाएंगे।
जब निजी मंडियों या कॉरपोरेट को एमएसपी पर खरीद करने की कानूनी बाध्यता के प्राविधान पर सरकार राजी ही नहीं हो रही है और सरकारी खरीद का दायरा बढ़ाने की कोई योजना ही सरकार के पास नहीं है तो वह एमएसपी प्राप्त करने के लिए बाजार कहां से पैदा करेगी? सरकार तो ऐसा बाजार पैदा इन कानूनों के माध्यम से करने जा रही है कि जहां न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी कोई चीज ही नहीं होगी। बाजार तो बन रहे हैं, पर एमएसपी की बात ही सरकार नहीं करती है। 

सभी सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करने की दिशा में काम होगा।
सभी सिंचाई परियोजनाएं बंद हैं। कोई प्रगति नहीं है। कोई सरकारी आंकड़ा हो तो बताएं।

हर गांव को हर मौसम लायक सड़क से जोड़ने की योजना।
इस पर भी क्या प्रगति है, सरकार बताए।

भूमि का सिंचित रकबा बढ़ाया जाएगा।
इसके आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं कि 2019 के बाद सिंचित भूमि कितनी बढ़ी है।

किसान सम्मान निधि दी जाएगी।
यह कार्यक्रम चल रहा है। प्रतिदिन के 16 रुपये और चार महीने में 2,000 रुपये सरकार इस योजना में दे रही है।

60 वर्ष की उम्र से अधिक किसानों को सामाजिक सुरक्षा और पेंशन की व्यवस्था।
यह योजना भी अभी धरातल पर नहीं आई है। पेंशन निधि के लिए किसानों को ही धन की किश्तें जमा करनी है। जो कभी पूरी होती हैं तो कभी नहीं होती हैं।

भूमि का डिजिटलिकरण किया जाएगा।
यह काम अब इन तीन कानूनों के लागू होने के बाद निजी क्षेत्र द्वारा किया जाएगा। इसका डेटा निजी क्षेत्र के पास ही रहेगा। अब लेखपाल, खसरा, खतौनी और भू प्रबंधन से जुड़े महकमे और व्यवस्था का क्या होगा, फिलहाल पता नहीं है।

यह तथ्य बताते हैं कि भाजपा अपने संकल्प पत्र में किए गए वादों से यूटर्न ले चुकी है और जो भी वादे सरकार ने किसानों को, उनकी आय दोगुनी करने, एमएसपी के लिए नए अवसर खोलने, सिंचित भूमि का रकबा बढ़ाने, वरिष्ठ नागरिकों, जो किसान हैं, को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने और पेंशन देने, भूमि व्यवस्था में पारदर्शिता के लिए भू अभिलेखों का डिजिटलिकरण करने के घोषणापत्र में किए गए हैं, से ठीक उल्टे सरकार ने कदम उठाए हैं, और अब सरकार कह रही है कि यह कानून किसान हित में हैं!

दरअसल सरकार, 26 जनवरी के किसान गणतंत्र दिवस समारोह पर प्रस्तावित किसान रैली से दुविधा में है, लेकिन सरकार और  दिल्ली पुलिस को किसानों द्वारा आयोजित गणतंत्र दिवस समारोह, जो वे धूमधाम से ट्रैक्टर रैली के रूप में मनाना चाहते हैं कि, न केवल अनुमति दे देनी चाहिए, बल्कि यह आयोजन शांतिपूर्ण तरह से संपन्न हो, इसकी व्यवस्था भी करनी चाहिए। गणतंत्र दिवस मनाने के लिए, जुलूस और झांकी निकालने के लिए, लोगों को उत्साह से इस राष्ट्रीय पर्व में भाग लेने के लिए कैसे रोका जा सकता है?

26 जनवरी को इस आंदोलन और धरना के दो माह पूरे हो जाएंगे। इन दो महीनों में, आंदोलनकारियों को, कभी खालिस्तानी कहा गया तो कभी टुकड़े-टुकड़े गैंग, कभी पिज्जा-बर्गर खाने वाले फर्जी किसान तो कभी विपक्ष द्वारा भड़काए हुए लोग। पर सरकार ने कभी भी ऐसे दुष्प्रचार पर रोक लगाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया, यहां तक कि अपने दल के कुछ जिम्मेदार नेताओं को भी ऐसी बातें कहने से नहीं रोका। बस एक समझदार बयान रक्षामंत्री जी का आया, जिसमें उन्होंने खालिस्तानी कहे जाने की निंदा की है।

सरकार किसान बातचीत के घटनाक्रम का कभी अध्ययन कीजिए तो, उसका एक उद्देश्य यह भी है कि यह आंदोलन बिखरे, थके और टूट जाए, इसीलिए दो महीने से यह बातचीत हो रही है। थकाने की भी रणनीति होती है यह। पर जब चुनौती अपनी अस्मिता और संस्कृति तथा जब, सब कुछ दांव पर लगा हो तो समूह बिखरता नहीं है, वह और एकजुट हो जाता है। उनकी मुट्ठियां और बंध जाती हैं और संकल्प दृढ़तर होता जाता है।

इन दो महीनों में एक भी ऐसी घटना किसानों द्वारा नहीं की गई, जो हिंसक होने का संकेत देती हो। हरियाणा पुलिस के वाटर कैनन के प्रयोग, सड़क खोदने, पुल पर लाठी चलाने जैसे अनप्रोफेशनल तरीके से भीड़ नियंत्रण के तरीके अपनाने के बाद भी किसानों ने कोई हिंसक प्रतिरोध नहीं किया। वे आगे बढ़ते रहे और जहां तक जा सकते थे गए और फिर वहीं बैठ गए। उन्होंने सबको बिना भेदभाव के लंगर छकाया, व्यवस्थित बने रहे और अपनी बात कहते रहे। दुनिया भर में इस धरना-प्रदर्शन के अहिंसक भाव की सराहना हो रही है। सरकार ने भी किसानों के धैर्य की सराहना की है।

सरकार ने जब-जब, जहां-जहां बुलाया, किसान संगठनों के नेता वहां गए। बातचीत में शामिल हुए। अपनी बात रखी। बस अपने संकल्प पर वे डटे रहे। जहां इस तरह का अहिंसक और गंभीर नेतृत्व हो, वहां उन्हें गणतंत्र दिवस के समारोह से वंचित करना सरकार और दिल्ली पुलिस का बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय नहीं कहा जा सकता है। जन को ही जनतंत्र के महापर्व से शिरकत न करने देना अनुचित और निंदनीय होगा।

26 जनवरी की यह ट्रैक्टर रैली, किसान संगठनों द्वारा चलाए जा रहे धरना-प्रदर्शन के धैर्य की एक परीक्षा भी होगी। हिंसा किसी भी कीमत पर नहीं होनी चाहिए और आंदोलनकारियों को चाहिए कि वे पुलिस से किसी भी प्रकार का कन्फ्रण्टेशन न होने दें। आज तक इसी अहिंसा ने सरकार को बेबस बना रखा है। हिंसक आंदोलन, कितनी बड़ी संगठित हिंसा के साथ क्यों न हो, से निपटना आसान होता है पर अहिंसक आंदोलन और धरने को हटाना बहुत मुश्किल होता है। यह बेबसी अब दिखने भी लगी है।

30 जनवरी को महात्मा गांधी की हत्या हुई थी। ऐसी जघन्य हत्या का भी औचित्य सिद्ध करने वाली मानसिकता के लोग भी आज सरकार में हैं। वे गांधी के इस जनपक्ष को न तो जानते हैं और न ही जानना चाहते हैं। गांधी ने उन्हें अपने जीवनकाल में भी असहज किए रखा और अब भी वे गांधी से चिढ़ते हैं, नफरत करते हैं, किटकिटा कर रह जाते हैं, पर वे कुछ कर नहीं पाते हैं। एक अहिंसक, शांतिपूर्ण और सामाजिक सद्भाव से ओतप्रोत 26 जनवरी का यह किसान गणतंत्र दिवस समारोह संपन्न हो, इससे बेहतर श्रद्धांजलि, महात्मा गांधी को आगामी 30 जनवरी को नहीं दी जा सकती है।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं। वह कानपुर में रहते हैं।)

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