Tuesday, April 16, 2024

726 बुद्धिजीवियों का खुला पत्र, कैब को बताया संविधान की मूल भावना के खिलाफ

एक बार फिर देश के 726 प्रगतिशील बुद्धिजीवियों (कलाकारों, शिक्षाविदों, नाटककारों) ने भारतीय सत्ता को एक पत्र लिख कर चेताया है कि उसके द्वारा नागरिकता संशोधन बिल (कैब) जो अब कानून बन चुका है, भारतीय संविधान की मूल भावना धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है। आपके इस कानून से संविधान की मूल भावना धर्मनिरपेक्षता का खात्मा संभव है।

उन्होंने अपने पत्र में सरकार को लिखा है कि हम सरकार से संविधान से खिलवाड़ नहीं करने की मांग करते हैं। देश में समानता के संवैधानिक संकल्प का सम्मान किया जाना चाहिए। इसीलिए हम सरकार से इस बिल को वापस लेने की मांग करते हैं। इन 726 प्रगतिशील बुद्विजीवियों में योगेंद्र यादव, इतिहासकार रोमिला थापर, आनंद पटवर्धन, हर्ष मन्दर, अरुण रॉय, तीसता सीतलवाड़, बेजवाडा विल्सन, दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एपी शाह और देश के पहले मुख्य सूचना आयुक्त जस्टिस वजाहत हबीबुल्ला ने भी इस पर दस्तखत किए हैं। 

समाजिक ढांचे में दो पक्ष होते हैं, जो समाज को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते हैं। प्रगतिशील राजनीतिक पार्टी और प्रगतिशील बुद्विजीवी।

देश के अंदर प्रगतिशील पार्टियों की बात करें तो बसपा जो डॉ. भीम राव अंबेडकर की विचारधारा की वारिस होने का दंभ भरती है। डॉ. अम्बेडकर, जिन्होंने भारत का संविधान लिखने में अहम भूमिका निभाई। उनके प्रयासों से देश का संविधान धर्मनिरेपक्ष बना, लेकिन बसपा ने कैब पर राज्य सभा में वोटिंग के समय वाक आउट करके पिछले दरवाजे से इस कानून को बनाने में सत्ता का साथ दिया। इससे पहले भी कई अवसरों पर मायावती फासीवादी विचारधारा का समर्थन कर चुकी हैं। सत्ता द्वारा धारा 370 का अलोकतांत्रिक तरीके से खात्मे का भी बसपा समर्थन कर चुकी है। बसपा के कार्यों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो कितनी डॉ. अम्बेडकर की वारिस हैं। 

समाजवादी मुलायम लाल टोपी वाले का समाजवाद भी फासीवादी सत्ता के आगे बहुत बार नतमस्तक हो चुका है। पिछले दिनों संसद में भारत के हिटलर की तारीफ और उनकी सत्ता में वापसी की दुआएं वो सार्वजनिक तौर पर मांगते देखे गए हैं। 

सीपीएम और उसके साझेदार सत्ता की जन विरोधी फैसलों पर जरूर आवाज उठाते रहे हैं, लेकिन संशोधनवाद के कारण इनका दायरा भी सीमित होता जा रहा है। इनका कैडर वैचारिक दरिद्रता के कारण जाने-अनजाने बहुत से मौकों पर फासीवादी सत्ता के पक्ष में खड़ा दिखता है। लोकसभा चुनाव में इनका बहुमत कैडर बंगाल भाजपा के समर्थन में मजबूती से खड़ा था, वहीं केरल में शबरीमाला मंदिर मसले पर धर्म के तराजू के नीचे दबकर अपने विचारों का कत्ल वहां की पार्टी कर चुकी है। फासीवाद के खिलाफ कोई मजबूत जन आन्दोलन खड़ा करने में कमजोर ही साबित हुए हैं। 

कांग्रेस और उसके साझेदार फासीवादी सत्ता के खिलाफ कोई मजबूत लड़ाई का मंच तैयार करेंगे ये सोचना ही मूर्खता है। उसके अवसरवादी रवये, भ्रष्टाचार, वैचारिकता से किनारा करने के कारण भारत की बहुमत जनता उनसे किनारा कर चुकी है। इनके खत्म होते जन आधार के कारण ही जनता फासीवादी विचारधारा के चंगुल में फंस कर सत्ता की और उनके संविधान विरोधी फैसलों की समर्थक बनती जा रही है। 

प्रगतिशील बुद्विजीवी जो समाज को आगे बढ़ाने में और सत्ता को जन विरोधी फैसलों के खिलाफ चेताने और रोकने में अहम भूमिका निभाते हैं। देश के अंदर फासीवादी सत्ता के खिलाफ ईमानदारी से सत्ता के जनविरोधी फैसलों को रोकने और एक आधार बनाने का काम बुद्धजीवियों और वामपंथियों ने दिया है।

2014 से पहले और 2014 में सत्ता में आने के बाद जिस तरह से फासीवादी संघठनों ने विरोध की आवाज दबाने के लिए दाभोलकर, प्रो. कलबुर्गी, कामरेड पंसारे, रोहित वेमुला, पत्रकार गौरी लंकेश, पहलू खान, जुनैद की हत्याएं कीं। नजीब को गायब किया गया। आंदोलनकारियों पर हमले किए गए। सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाला गया। ट्रोल किया गया। इन सब मुद्दों पर देश के प्रगतिशील कलाकारों, शिक्षाविदों, रंगकर्मियों, नाटककारों, पत्रकारों, लेखकों ने मजबूती से सत्ता और उसके संघठनों का विरोध किया। धरने-प्रदर्शन, पत्र लिखना, आवार्ड वापसी, सेमिनार के माध्यम से जनता को राह दिखाने और एकजुट करने में बुद्धजीवियों ने अहम भूमिका निभाई। 

नागरिकता संशोधन बिल उन लाखों क्रांतिकारियों की शहादत के खिलाफ है, जिन्होंने अपनी शहादत एक ऐसे आजाद मुल्क के लिए दी जो धर्मनिरपेक्ष समाजवादी होगा। देश की आजादी का आंदोलन जो हिन्दू-मुस्लिम एकता के साथ लड़ा गया, जिनका साझा दुश्मन साम्राज्यवादी अंग्रेज सत्ता थी। आजादी के आंदोलन में राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक की शहादत ऐसे ही मुल्क की नींव के अंदर पत्थर का काम कर रही है। गदर पार्टी के योद्धा, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद, सुभाष चन्द्र बोस, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, डॉ. भीम राव अम्बेडकर, शेख अब्दुल्ला और लाखों क्रांतिकारियों का एक ही सपना था, एक ऐसे आजाद मुल्क की स्थापना, जिसमें धर्म-जाति-इलाका के नाम पर भेदभाव न हो। 

इसके विपरीत संघ और हिन्दू महासभा जो हिंदुत्त्ववादी राजनीति का झंडा उठाकर और मोहम्मद अली जिन्ना मुस्लिम लीग बनाकर देश के आजादी आंदोलन के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दे रहे थे। जो देश को धर्म के नाम पर बंटवारे के पक्षधर थे। नाथू राम गोड़से द्वारा महात्मा गांधी की हत्या इसी धार्मिक मुल्क बनाने के लिए की गई आंतकवादी कार्यवाही थी। देश आजाद होते ही सत्ता की बागडोर देश के गद्दारों के हाथों में जाने के बजाए क्रांतिकारी खेमे की तरफ आई। इसी खेमे के अथक प्रयासों से देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष बना।

हमारे संविधान की प्रस्तावना कहती है कि, हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित कराने वाली, बन्धुता बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्पित होकर अपनी संविधानसभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

वर्तमान में बना नागरिकता कानून (कैब) संविधान की मूल भावना के साथ-साथ भारत की साझी संस्कृति, भारत का क्रांतिकारी आंदोलन, सूफी और निर्गुण काव्यधारा के सन्त आंदोलन के खिलाफ है। इसलिए भारत की आवाम को आने वाली नस्लों को एक सभ्य, मानवीय और समाजवादी मुल्क बनाने के लिए इस कानून का मजबूती से विरोध करना चाहिए। अगर हम आज नहीं विरोध करेंगे तो वो दिन दूर नहीं जब हमारे मुल्क का भी वैसा ही हाल हो जाएगा जैसा हिटलर की तानाशाही सत्ता जो लोकतांत्रिक तरीके से जनता के बहुमत से सत्ता में आई थी, जिसका परिणाम जर्मनी का विनाश और हर घर मे मौत हुआ था।

उदय चे

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और हिसार में रहते हैं।)

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