Friday, April 26, 2024

जस्टिस अकील कुरैशी के बहाने सरकार की पसंदगी नापसंदगी का सवाल फिर उठा

मोदी सरकार की आँखों की किरकिरी रहे राजस्थान हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस अकील कुरैशी ने अवकाश ग्रहण कर लिया लेकिन जाते-जाते उनका दर्द छलक ही गया। जस्टिस अकील कुरैशी ने शनिवार को अपने विदाई भाषण में एडीएम जबलपुर मामले में अपनी असहमति के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाए गए जस्टिस एचआर खन्ना का ज़िक्र किया। जस्टिस अकील कुरैशी ने कहा कि भारत के 48 मुख्य न्यायाधीशों में से जब हम साहस की बात करते हैं तो हम उस व्यक्ति को याद करते हैं, जिसे सीजेआई नहीं बनाया गया। जस्टिस कुरैशी ने एडीएम जबलपुर मामले में अपनी असहमति के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाए गए जस्टिस एचआर खन्ना को साहस का एक ज्वलंत उदाहरण बताया।

दरअसल, जून 1975 में इमरजेंसी लगने के बाद इंदिरा गांधी सरकार ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया। देश भर में सरकार की खिलाफत करने वाले लोगों की धर-पकड़ शुरू हो गई। विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया जाने लगा, और इसी दौरान कुछ नेताओं ने अलग-अलग राज्यों के हाई कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण यानी हैबियस कॉर्पस याचिकाएं दायर कर दीं, जिसमें पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गज नेता भी शामिल थे। हाईकोर्ट ने कहा कि इमरजेंसी के बावजूद नागरिकों को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने का अधिकार रहेगा और केंद्र सरकार इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई।

सुप्रीम कोर्ट ने सभी मामलों को एक साथ सुनने का निर्णय लिया और इस मामले को “एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल” के नाम से जाना गया। मामले की सुनवाई करने वाली पांच जजों की पीठ में चीफ जस्टिस ए एन रे, जस्टिस एच आर खन्ना, जस्टिस एमएच बेग, जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़ और जस्टिस पी एन भगवती शामिल थे। इन पांच जजों की पीठ में से चार जजों ने बहुमत से ये फैसला सुनाया कि इमरजेंसी जैसी स्थिति में सरकार किसी भी नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन कर सकती है। यानि फैसला सरकार के पक्ष में हुआ। पांच में से जिस एकमात्र जज ने अपने साथियों के फैसले से असहमति जताई थी वह थे जस्टिस एचआर खन्ना। बाद में सरकार ने एक तरीके से उनसे बदला लेते हुए उनकी जगह वरिष्ठता क्रम में नीचे जस्टिस एमएच बेग को  चीफ जस्टिस  नियुक्त किया। 28 जनवरी, 1977 को जस्टिस  खन्ना ने भी इस्तीफा दे दिया।

केशवानंद भारती मामले में जस्टिस  एच. आर. खन्ना सात न्यायाधीशों में अंतिम न्यायाधीश थे, जिन्होंने कहा कि संसद को मौलिक अधिकारों के कुछ हिस्सों को घटाने अथवा संशोधन करने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए संविधान के किसी प्रावधान को संशोधित करने का अधिकार है, लेकिन वह संविधान के मूल ढांचे अथवा प्रारूप को नष्ट नहीं कर सकती और संविधान के तीसरे भाग अथवा मौलिक अधिकारों को समाप्त नहीं कर सकती।

दरअसल तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में स्वतंत्र न्यायाधीशों को प्रताड़ित किया गया, दंड दिया गया और ब्लैकमेल भी किया गया, जबकि बात मानने वाले न्यायाधीशों को प्रोन्नतियां दी गईं और पद्म पुरस्कार, आयोगों में नियुक्ति तथा राज्यसभा के लिए नामांकन जैसे पुरस्कार दिए गए और आज मोदी सरकार में भी यह सब चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा कई ब़ार दोहराने के बाद जाकर जस्टिस अकिल अकील कुरैशी को त्रिपुरा हाईकोर्ट जैसे छोटे हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस बनाया गया और बाद  में कॉलेजियम की सिफारिश पर उन्हें राजस्थान हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस बनाया गया ।

देश में सबसे वरिष्ठ मुख्य न्यायाधीश होने के बावजूद, जस्टिस कुरैशी को सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश नियुक्त नहीं करने के विषय में विधि क्षेत्रों में बहुत चर्चाएं हो रही हैं। आम तौर पर माना जाता रहा है  कि गुजरात हाईकोर्ट के न्यायाधीश के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान सत्तारूढ़ दल के खिलाफ जस्टिस अकील द्वारा कुछ आदेशों के पारित होने के कारण मोदी  सरकार उनके पक्ष में नहीं थी ।

दरअसल गुजरात हाईकोर्ट के जज के तौर पर 2010 में जस्टिस कुरैशी ने अमित शाह को सोहराबुद्दीन केस में सीबीआई रिमांड पर भेज दिया था। जस्टिस कुरैशी ने लोकायुक्त नियुक्ति मामले में भी गुजरात सरकार के खिलाफ फैसला सुनाया था। राज्य सरकार ने 2002 के गुजरात दंगों के दौरान हुए नरोदा पाटिया हत्याकांड में गुजरात की पूर्व मंत्री माया कोडनानी की आपराधिक अपील पर सुनवाई से जस्टिस कुरैशी को अलग करने की भी मांग की थी।

जस्टिस कुरैशी 2018 में गुजरात हाईकोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश बनने वाले थे, तब जस्टिस कुरैशी को बॉम्बे हाईकोर्ट में एक जूनियर न्यायाधीश के रूप में स्थानांतरित कर दिया गया था। गुजरात हाईकोर्ट एडवोकेट्स एसोसिएशन ने इस तबादले का विरोध किया और उनके समर्थन में एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया।

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने मई 2019 में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में उनकी पदोन्नति की सिफारिश की थी। हालांकि, केंद्र ने सिफारिश स्वीकार नहीं की। हालांकि उसी प्रस्ताव में अन्य तीन प्रस्तावों को मंजूरी दी गई थी। गुजरात हाईकोर्ट एडवोकेट्स एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक रिट याचिका दायर कर केंद्र को जस्टिस कुरैशी की फाइल पर अपने फैसले में देरी करने को चुनौती दी। केंद्र की आपत्तियों के बाद सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने प्रस्ताव को संशोधित किया और जस्टिस कुरैशी का नाम प्रस्तावित किया।

जस्टिस कुरैशी ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई द्वारा हाल ही में प्रकाशित अपनी आत्मकथा में दिए गए कुछ बयानों का जिक्र किया है। जस्टिस कुरैशी ने कहा कि हाल ही में भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने अपनी आत्मकथा लिखी है। मैंने इसे नहीं पढ़ा है, लेकिन मीडिया रिपोर्टों के अनुसार उन्होंने कुछ खुलासे किए हैं। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से त्रिपुरा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रूप में मेरी नियुक्ति की सिफारिश बदलने के संबंध में यह कहा गया है कि न्यायिक राय के आधार पर सरकार की मेरे बारे में कुछ नकारात्मक धारणाएं थीं। संवैधानिक न्यायालय का प्राथमिक कर्तव्य नागरिकों के मौलिक और मानवाधिकारों की रक्षा करना है, उसके न्यायाधीश के रूप में, मैं इसे स्वतंत्रता का प्रमाण पत्र मानता हूं। जस्टिस कुरैशी ने कहा कि मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि न्यायपालिका की क्या धारणा थी जिसके बारे में मुझे आधिकारिक तौर पर जानकारी नहीं दी गई।

उन्होंने कहा कि अदालतों के अस्तित्व का मूल कारण नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना है। किसी भी प्रत्यक्ष अपमान से कहीं अधिक, यह नागरिकों के लोकतांत्रिक मूल्यों और अधिकारों पर चोरी-छिपे अतिक्रमण है, जिस पर हमें चिंतित होना चाहिए।

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा हाईकोर्ट कॉलेजियम द्वारा प्रस्तावित नामों को स्वीकार करने से इंकार करने पर भी चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि उच्च न्यायालयों द्वारा अधिवक्ताओं की सिफारिश करना और सुप्रीम कोर्ट द्वारा भारी कटौती करना आश्चर्यजनक है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच धारणा में अंतर का कारण जो भी हो, इससे अच्छे अधिवक्ताओं को बेंच में शामिल होने के लिए राजी करना मुश्किल होगा।

उन्होंने कहा कि उन्हें अपने किसी भी फैसले पर कोई पछतावा नहीं है। उन्होंने कहा कि क्या मुझे कोई पछतावा है? कोई नहीं। मेरा हर निर्णय मेरी कानूनी समझ पर आधारित था। मैं गलत रहा हूं, कई मौकों पर गलत साबित हुआ लेकिन कभी भी मैंने अपने कानूनी विश्वास से अलग कोई निर्णय नहीं किया। मुझे इस बात का गर्व है कि मैंने इस आधार पर कोई निर्णय नहीं लिया कि मेरे लिए इसके क्या परिणाम होंगे। कुछ लोगों का मानना है कि मुझे अपनी तरक्की के लिए घुटने टेकने चाहिए थे। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप प्रगति को क्या मानते हैं। समर्थन, प्यार और स्नेह मुझे वकीलों और सहयोगियों से मिला है, जहां कहीं भी मैं किसी भी प्रत्यक्ष प्रगति से कहीं अधिक आगे आया हूं। मैं इसे किसी भी चीज़ के लिए नहीं बदलूंगा।

जस्टिस  कुरैशी को 7 मार्च 2004 को गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था। 14 नवंबर, 2018 से 15 नवंबर, 2019 तक, वे बॉम्बे हाईकोर्ट के न्यायाधीश थे। 16 नवंबर, 2019 को उन्होंने त्रिपुरा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ ली। उन्हें 12 अक्टूबर, 2021 को राजस्थान हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में स्थानांतरित कर दिया गया था।

प्रसंगवश यहाँ न्यायपालिका में प्रधानमन्त्री की इच्छा और परम्परा के निर्वहन में इंदिरा गांधी  के प्रधानमन्त्री बनने के पहले भी एक-आध अवसर पर टकराव नजर आये थे, पर परंपरा की जीत हुई थी।

नवंबर 1951 में  उच्चतम न्यायालय  में सिर्फ आठ जज हुआ करते थे। संसद का सेन्ट्रल हॉल में ही सुप्रीम कोर्ट में अस्थाई तौर पर चला करता था, जहां से 1956 में अपने वर्तमान बिल्डिंग में शिफ्ट हुआ। प्रधानमंत्री नेहरू नहीं चाहते थे कि वरिष्ठतम न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री चीफ जस्टिस बनें। तब उन्हें समझाया गया कि यदि शास्त्री की जगह किसी अन्य को नियुक्त किया गया तो उच्चतम न्यायालय  के 6 जज एक साथ इस्तीफा दे देंगे। नेहरू को झुकना पड़ा और पतंजलि शास्त्री ही चीफ जस्टिस बने।

भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति हरिलाल जे कनिया का 6 नवंबर, 1951 को जब दिल का दौरा पड़ने से अचानक असामयिक निधन हो गया, तो प्रधानमंत्री न्यायमूर्ति एम पतंजलि शास्त्री, मेहर चंद महाजन तथा बी. के. मुखर्जी की वरिष्ठता को नजरअंदाज कर न्यायमूर्ति एस. आर. दास को मुख्य न्यायाधीश बनाना चाहते थे। लेकिन जैसा कि न्यायमूर्ति सिन्हा कहते हैं, एक ‘अलिखित कानून’ ने ऐसा होने से रोक दिया। अंत में न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री ने दो महीने तक कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के रूप में काम करने के बाद पद की शपथ ली। यह इकलौता मौका था, जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय को कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मिले।

जस्टिस पतंजलि शास्त्री के सेवानिवृत्त होने के बाद पंडित नेहरू मेहर चंद महाजन को मुख्य न्यायाधीश के पद पर पहुंचने से रोकना चाहते थे, क्योंकि कश्मीर मसले पर दोनों की बिल्कुल नहीं बनती थी। महाजन सबसे कठिन समय में यानि 1946 और 1947 में कश्मीर के प्रधानमंत्री रह चुके थे। दोनों के बीच कटु पत्र व्यवहार हुआ था, और दोनों ने ही सरदार पटेल से शिकायत की थी कि दूसरा पक्ष उनकी सुनता नहीं है। महाजन ने कश्मीर मामले में बर्बादी की चेतावनी दे दी थी। सरदार पटेल दोनों के बीच मध्यस्थ का काम करते थे। कहा जाता है कि पंडित नेहरू तो महाजन के उच्चतम  न्यायालय में न्यायाधीश बनने से भी दुखी हुए थे।

3 जनवरी, 1954 को मुख्य न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री के सेवानिवृत्त होने के बाद नेहरू सरकार ने बंबई उच्च न्यायालय से एम. सी. चांगला को सीधे भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाने की इच्छा जताई। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने इस कदम का विरोध तो किया ही, कांग्रेस सरकार से यह तक कह डाला कि यदि आप महाजन के बजाय किसी अन्य को मुख्य न्यायाधीश बनाना चाहते हैं तो आप पूरे उच्चतम न्यायालय  को ही नया बनाने के बारे में सोच सकते हैं। न्यायमूर्ति एस. आर. दास को मुख्य न्यायाधीश बनने के लिए मनाया जा रहा था, लेकिन उन्होंने पंडित नेहरू से कह दिया कि शपथ लेने के बजाय वह इस्तीफा दे देंगे।

इसी तरह वर्ष  1973 में  जब उच्चतम न्यायालय  के तीन जजों की वरिष्ठता की अनदेखी कर ए. एन. रे को चीफ जस्टिस बनाया गया, तब नाराज तीनों जजों ने इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा देने वालो में जस्टिस के एस हेगडे़ भी शामिल थे। हेगड़े 1977 में लोकसभा अध्यक्ष बनाए गये। बाद में के एस हेगडे़ के सुपुत्र संतोष हेगडे़ भी सुप्रीम कोर्ट में जज बने।

25 अप्रैल1973 चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एसएम सीकरी रिटायर हो रहे थे और वरिष्ठता क्रम में जस्टिस जेएम शेलट दूसरे नंबर पर थे लेकिन वह सरकार को पसंद नहीं थे। सरकार जिन्हें पसंद करती थी उनका नाम जस्टिस ए एन रे था । यूं तो जस्टिस रे वरिष्ठता क्रम में चौथे नंबर पर थे, लेकिन कहा जाता है कि उनका झुकाव संसद को संविधान में बदलाव के असीमित अधिकार की तरफ था, जो सरकार के स्टैंड के हिसाब से बिलकुल मुफीद था और वह चीफ जस्टिस बने। बाद में जस्टिस रे के चीफ जस्टिस  रहते हुए न्यायपालिका के इतिहास में ‘लैंडमार्क जजमेंट’ के रूप में दर्ज ‘केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार’ के फैसले को रिव्यू करने का भी असफल प्रयास हुआ। इस प्रयास को ‘क्विड प्रो को’ के तौर पर देखा गया।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)  

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