Friday, March 29, 2024

लद्दाख:आखिर वांगचुक क्यों -40 डिग्री तापमान में 5 दिन का करेंगे उपवास? 

13 मिनट, 49 सेकंड के इस वीडियो को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संबोधित करते हुए देश के सामने लद्दाख की व्यथा और उसके नागरिकों के साथ किये गये वादाखिलाफी के खिलाफ देश को अवगत कराते हुए सोनम वांगचुक अपने उस दृढ़ प्रतिज्ञा को दोहराते हैं, जो उनके लिए जानलेवा साबित हो सकती है। अपने वीडियो के अंत में वह लगभग अलविदा वाले अंदाज में कहते हैं कि इस इलाके में 26 जनवरी से अगले 5 दिन बिताने वाले हैं, जहां पर बर्फ से ढकी वादियों में अकेले रात गुजारेंगे। यहां का तापमान 0 नहीं बल्कि -40 डिग्री तक रहता है। जाहिर सी बात है 18000 फीट की ऊंचाई पर कुछ पल बिताना भी कठिन होता है, वहां पर बिना किसी आश्रय के किसी व्यक्ति के भारी बर्फबारी के बीच रह पाना कितना दुष्कर होने जा रहा है। 

यहां के हालात ऐसे हैं कि सुबह होते ही राजमार्ग को वाहन के लिए उपयुक्त बनाने के लिए सीमा सड़क संगठन को लारी बुलाकर रोजाना जमी बर्फ को हटाना पड़ता है और एक नई परत डालनी पड़ती है जिससे कि वाहन स्लिप न हों। 

आखिर सोनम वांगचुक और लद्दाख के लोग इस बार इतने भावुक और गुस्से में क्यों हैं? जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा सरकार ने मई 2019 में भारी बहुमत से सरकार बनाने के बाद धारा 370 को समाप्त करने के जरिये कश्मीर, जम्मू और लेह लद्दाख क्षेत्रों को विभक्त कर केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दे दिया था। लेह लद्दाख जिसके क्षेत्र में कारगिल भी आता है, की भौगोलिक स्थिति कश्मीर और जम्मू से काफी भिन्न है। वहां के लोगों जिसमें बौद्ध और मुस्लिम आबादी है, को भी लगातार इस बात का अहसास था कि कश्मीर राज्य में रहते हुए उनकी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के लिहाज से सुविधाजनक स्थितियां मुहैया नहीं हो पा रही हैं। 95% अनुसूचित जनजाति वाले इस क्षेत्र को संविधान की छठी अनुसूची में डाले जाने की मांग यहां के लोगों की कई दशकों से रही है। भाजपा ने 2019 के अपने चुनावी अभियान में इसे प्रमुख मांग के तौर पर रखा था। 

लेकिन धारा 370 हटने के बाद और केंद्र शासित क्षेत्र बनने के बाद अब इस क्षेत्र के लोगों को महसूस हो रहा है कि न सिर्फ उन्हें उनके मूल अधिकारों से वंचित कर दिया गया है, बल्कि जम्मू-कश्मीर को विभक्त कर जो अधिकार और सुविधायें उन्हें पहले मिल रही थीं, उनसे भी कहीं न कहीं उन्हें वंचित कर दिया गया है। 

इतना ही नहीं बल्कि इस विशिष्ट क्षेत्र में जहाँ प्रति व्यक्ति एक दिन में 5 लीटर पानी में अपनी गुजर बसर कर लेता है, को केंद्र सरकार और कॉर्पोरेट पर्यटन और खनन के लिए एक ऐसी उर्वर क्षेत्र के रूप में देख रहा है, जो सबसे पहले यहाँ के जीवनदायनी स्रोतों को अपना निशाना बना रही है और यहाँ के स्थानीय लोगों, मवेशियों को कहीं न कहीं बेदखल होने के लिए मजबूर कर रही है। अंधाधुंध खनन, अनियंत्रित पर्यटन और कार्बन उत्सर्जन यहाँ की नाजुक पारिस्थितिकी को एक ऐसे मुकाम पर पहुंचा रही है, जो बड़ी तेजी से ग्लेशियर के पिघलने, ग्लोबल वार्मिंग को तेजी से बढ़ाने और भारत सहित चीन के लगभग 200 करोड़ आबादी को भविष्य में प्रभावित करने में प्रमुख रूप से जिम्मेदार होने जा रही है। 

हम सभी इस बात से अच्छी तरह से परिचित हैं कि पिछले दिनों भारत-चीन सीमा संघर्ष में लद्दाख इलाके में चीन की घुसपैठ और गलवान में किस प्रकार चीन के सिपाहियों के साथ हाथापाई में 20 के करीब भारतीय जवानों को अपनी शहादत देनी पड़ी थी। इसके साथ ही चीन भारत के सीमाई भूभाग में कई किलोमीटर अंदर घुस आया है, और अब एक नई सीमा को दोनों देशों के सैनिकों के लिए निर्धारित कर दिया गया है। लद्दाख और कारगिल के लोगों के रोजगार में पशुपालन एक प्रमुख व्यवसाय रहा है। दुनिया भर में पश्मीना शाल विख्यात है, जिसे कश्मीर की पहचान के रूप में जाना जाता है। लेकिन यह ऊन कश्मीर के क्षेत्रों में लद्दाख से ही आता है। 

यहां के गड़ेरिये लद्दाख से गर्मियों में भेड़ों को लेकर उन्हीं इलाकों में चराने के लिए निकलते थे, जहां आज चीनी सैनिक अपना स्थायी अड्डा बना चुके हैं। भारत की बहुसंख्यक आबादी और भारतीय प्रधानमंत्री के लिए भले ही वे पहाड़ किसी काम के न हों, लेकिन लद्दाख की स्थानीय चरवाहा आबादी के लिए वे लाइफ लाइन थे। वहीं दूसरी तरफ श्रीनगर में यदि इन बेशकीमती भेड़ों की ऊन की आपूर्ति नहीं होती है, तो वे पश्मीना शाल के निर्माण के काम को कैसे आगे बढ़ा सकते हैं। 

असल में कश्मीर, लद्दाख और जम्मू भले ही भौगोलिक, भाषाई और जातीय रूप से भिन्न हों, लेकिन ये आपस में आजीविका और व्यापार के लिए पूरी तरह से निर्भर हैं। यदि कश्मीर क्षेत्र को लद्दाख से ऊन चाहिए तो कारगिल और लद्दाख को कश्मीर से आवश्यक सब्जी और सूखे मेवे चाहिए, जम्मू का सारा कारोबार ही कश्मीर घाटी पर निर्भर है। यदि कश्मीर घाटी न हो तो जम्मू के बाजार की देश में कोई पूछ नहीं होगी। उसी तरह शेष भारत से कश्मीर को जोड़ने वाला लिंक जम्मू है, जो कश्मीर की जरूरतों को पूरा करने का एक प्रमुख माध्यम है।

आज भले ही इन्हें केंद्र शासित राज्यों के रूप में बांट दिया गया है, और जम्मू और लद्दाख क्षेत्र के लोगों को इसमें अपने लिए कोई हित नजर आया हो, लेकिन आज उनके सामने कई विषम परिस्थितियां मुंह बाए खड़ी हैं। कश्मीर की कीमत पर जम्मू फलफूल नहीं सकता। उल्टा उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। 

वापस लौटते हैं सोनम वांगचुक के इस भावुक कर देने वाले फैसले पर। भाजपा के मौजूदा सांसद भी आज इस बात को जानते हैं कि स्थानीय स्तर पर क्या हालात हैं, और लोग सरकार से किस प्रकार नाराज और उनका मोहभंग हो गया है। शायद इसीलिए रह-रहकर वे भी सुर में सुर मिलाकर वही बातें दोहराते हैं, जिसे आज सोनम वांगचुक ने 26 जनवरी के दिन बड़े फलक पर देश और दुनिया को बताने की कोशिश की है। 

उत्तराखंड में अभी हम जोशीमठ मानवीय आपदा से दो-चार हो रहे हैं। जोशीमठ दिल्ली से दूर है, लेकिन उसकी पहुंच दूर नहीं है। सोचिये यही बदलाव यदि लेह, लद्दाख और कारगिल जैसे क्षेत्रों में हो रहा हो तो उस तक भारतीय लोगों की पहुँच बना पाना कितना दुर्गम है? जिस क्षेत्र में बर्फ से ढके पहाड़ ही भौगोलिक इकाई बनाते हैं, जहां दूर-दूर तक मानवीय हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं होती। याद कीजिये कारगिल में भारत पाक युद्ध की, जिसमें कारगिल क्षेत्र में पाक सेना की घुसपैठ और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण ठिकानों पर अपनी सैन्य तैनाती को यदि समय पर इसी क्षेत्र के मुस्लिम चरवाहे ने न बताई होती तो भारत को कितना बड़ा नुकसान हो सकता था। 

आज यह विपदा कई रूपों में हमारे सामने है। दुश्मन देशों से जहां इस क्षेत्र को संरक्षित रखना है, उससे भी अधिक आज यहां के लोग देश के भीतर के धन पशुओं, कॉर्पोरेट के लालच और बेहुदे अंधाधुंध पर्यटन से डरे हुए हैं, जो सबसे पहले स्थानीय आबादी के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा बने हुए हैं, उसके बाद यहां की पारिस्थितिकी और अंततः अपने लिए ही भस्मासुर बन जाने वाले हैं। 

शायद समय आ गया है कि देश लद्दाख में सोनम वांगचुक,  जोशीमठ में अतुल सती जैसे सच्चे देशभक्तों, पर्यावरण प्रेमियों और जल-जंगल-जमीन की मौलिकता को संरक्षित रखने के लिए दशकों से संघर्षरत उनके जीवन से कुछ समझने की कोशिश करें, उनकी पीड़ा को समझें और आगे से अपनी मूर्खतापूर्ण कार्यवाही और योजनाओं से हिमालय के अस्तित्व को और अधिक क्षति पहुंचाने से दूर रखें।

(रवींद्र सिंह पटवाल टिप्पणीकार और लेखक हैं।) 

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Shailesh Pandey
Shailesh Pandey
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1 year ago

I hope, the government wakes to the damages it is causing to the environment. More importantly, in case of Ladakh, I am more worried about the loss of faith in political system. These are simple people who trusted the politicians.

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