क्रांति बनाम प्रतिक्रांति: इस्लामीकरण,ग़ैर-इस्लामीकरण या धर्मनिरपेक्षता की शब्दावली का राजनीतिक छल 

राजनीतिक विमर्श में भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि एक वैचारिक हथियार भी होती है। शब्दों की चयनात्मक व्याख्या के ज़रिए सत्ता, धर्म और समाज की दिशा तय की जाती है। यही बात तब स्पष्ट होती है, जब हम यह देखते हैं कि किसी देश की व्यवस्था इस्लामी हो जाए, तो उसे “इस्लामी क्रांति” कहा जाता है, लेकिन वही कोई देश जब किसी ग़ैर-इस्लामिक धार्मिक दिशा में बढ़ता है, तो उसे अक्सर “धार्मिक पुनरुत्थान” या “पुनरुत्थानवाद की वापसी” जैसे नकारात्मक रूप से प्रस्तुत किया जाता है। उसी तरह, कोई देश जब धर्मनिरपेक्षता की तरफ़ बढ़ता है, तो उसे पश्चिमीकरण कह दिया जाता है।

प्रश्न यह है कि जब ‘क्रांति’ शब्द प्रगति, स्वतंत्रता और सामाजिक बदलाव का संकेत देता है, तो फिर  बाक़ी धर्मों के देश की व्यवस्था में प्रवेश को पुनरुत्थान या प्रतिगमन क्यों कहा जाता है? कोई देश धर्मनिरपेक्ष हो जाता है, तो उसे पश्चिमीकरण क्यों बता दिया जाता है? क्या यह केवल भाषा की चाल है, या इसके पीछे एक गहरा वैचारिक षड्यंत्र है?

क्रांति: धर्म आधारित हो, तो भी सकारात्मक?

“क्रांति” शब्द ऐतिहासिक रूप से एक सकारात्मक प्रतीक रहा है। फ्रांस की क्रांति, अमेरिकी स्वतंत्रता क्रांति, रूसी और चीनी क्रांतियां, इन सभी को समाज को आगे ले जाने वाली घटनाओं के रूप में देखा गया। जब ईरान में 1979 की “इस्लामी क्रांति” हुई, तो उसे भी उसी सकारात्मक क्रांतिकारी भाषा में कुछ इस तरह प्रस्तुत किया गया, जैसे कोई अधर्म का अंत और न्याय का नया युग शुरू हो गया हो।

ईरान की इस्लामी क्रांति को धर्म के माध्यम से स्वतंत्रता और न्याय की स्थापना के रूप में देखा गया। यह क्रांति धार्मिक नेतृत्व को क्रांतिकारी नायक के रूप में प्रस्तुत करती है और धर्म को एक आधुनिक राजनीतिक औज़ार बना देती है। इस प्रकार “इस्लामी क्रांति” शब्द:

* धर्म को एक आधुनिक और उन्नत विकल्प बनाता है,

* धर्मनिरपेक्ष आलोचना को पिछड़ा और अधार्मिक दर्शाता है,

* और क्रांति की भाषा को केवल धार्मिक बदलावों के लिए आरक्षित कर देता है।

पुनरुत्थान: धर्मनिरपेक्षता का नकारात्मक चित्रण

इसके उलट, जब किसी देश में धार्मिक कानूनों को हटाकर  धर्मनिरपेक्ष संविधान या शासन प्रणाली लागू की जाती है, तो उसे “पश्चिमीकरण की वापसी” जैसी भाषा में प्रस्तुत किया जाता है। उसी तरह जब किसी देश में व्यवस्था का किसी और धर्म में रूपांतरण होता है, तो उसे धार्मिक पुनरुत्थान की संज्ञा दी जाती है।

उदाहरण के लिए:

* जब तुर्की में “मुस्तफा कमाल अतातुर्क” ने धार्मिक शासन को हटाकर धर्मनिरपेक्ष राज्य की नींव रखी, तो उसे कई इस्लामी विचारकों ने “इस्लाम विरोधी पुनरुत्थान” कहा।

* जब मिस्र, ट्यूनीशिया या पाकिस्तान जैसे देशों में धर्मनिरपेक्ष आंदोलन उठते हैं, तो उन्हें एक “पश्चिमी षड्यंत्र” और “इस्लामी पहचान के विरुद्ध हमला” बता दिया जाता है।

“पुनरुत्थान” का अर्थ होता है किसी पुरानी, मृत व्यवस्था का पुनर्जीवन, यानी कुछ ऐसा, जो अब अप्रासंगिक हो चुका है। इस शब्द को धर्मनिरपेक्ष प्रयासों से जोड़कर यह भावना सामने रखी जाती है कि ये प्रयास न तो अपने हैं, न नैतिक और न ही प्रगतिशील।

यह शब्द भ्रम क्यों और किसके लिए?

इस भाषा की राजनीति के पीछे स्पष्ट उद्देश्य हैं:

प्रचार और वैधता का हथियार 

धार्मिक आंदोलनों द्वारा “क्रांति” शब्द अपनाना उन्हें आधुनिक, लोकप्रिय और न्यायकारी दिखाने में सहायक होता है। इससे वे युवा, शिक्षित और क्रांतिकारी वर्ग को भी आकर्षित कर पाते हैं।

धर्मनिरपेक्षता को ‘पश्चिमी’ और ‘विदेशी’ सिद्ध करना 

धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को अक्सर औपनिवेशिक विरासत या आधुनिक नास्तिकता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिससे वह जनमानस में संदेहास्पद हो जाती है।

भय और भावनाओं का शोषण 

“क्रांति” शब्द प्रेरणा देता है, जबकि “पुनरुत्थान” भय जगाता है। यह भाषा आम जनता की भावनाओं को भड़काकर विचारधारा विशेष को स्वीकार या अस्वीकार करवाने का कार्य करती है।

क्या यह विरोधाभास तार्किक है?

 बिल्कुल भी नहीं है। कोई भी गहन राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन, चाहे वह धर्म आधारित हो या धर्मनिरपेक्ष, क्रांति कहलाने का अधिकार रखता है, यदि वह व्यवस्था में मौलिक बदलाव ला रहा हो।

फ्रांसीसी क्रांति चर्च की सत्ता के विरुद्ध थी, फिर भी वह क्रांति थी। ईरान की क्रांति धार्मिक सत्ता की स्थापना थी, फिर भी उसे क्रांति कहा गया।

तो जब कोई देश धर्म से हटकर लोकतांत्रिक, समानतावादी प्रणाली अपनाता है, तो उसे पश्चमीकरण कहकर नीचा दिखाना तार्किक नहीं, केवल राजनीतिक चालाकी है।

निष्पक्ष दृष्टिकोण की आवश्यकता

राजनीतिक और सामाजिक बदलावों का मूल्यांकन केवल इस आधार पर नहीं किया जाना चाहिए कि वे धार्मिक हैं या नहीं, बल्कि इसका निर्धारण इस आधार पर होना चाहिए कि:

क्या वे सभी नागरिकों को समान अधिकार देते हैं ?

क्या वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हैं ?

क्या वे महिलाओं, अल्पसंख्यकों और विरोधियों को स्थान देते हैं ?

यदि कोई इस्लामी क्रांति अभिव्यक्ति, बहुलता और समानता को कुचलती है, तो वह क्रांति नहीं, धार्मिक तानाशाही है। लेकिन यदि कोई धर्मनिरपेक्ष सुधार इन्हीं मूल्यों की रक्षा करता है, तो वह  क्रांति  है।

क्रांति किसी एक धर्म की बपौती नहीं

हमें इस भ्रम से बाहर निकलना होगा कि क्रांति का अधिकार केवल एक धर्म या धर्मों के पास है और धर्मनिरपेक्षता केवल मृत विचारों की पुनरावृत्ति है।

क्रांति वही है, जो व्यवस्था में मौलिक सुधार लाए, इंसाफ और बराबरी दे, चाहे वह इस्लामी हो या ग़ैर-इस्लामी या धर्मनिरपेक्ष।

भाषा का यह छलावा केवल भ्रम पैदा करता है। हमें किसी भी तरह के बदलावों को उनके नारे से नहीं, बल्कि उनके प्रभाव से परखना होगा। तभी हम सच को पहचान सकेंगे, और सच में ही तो असली क्रांति छिपी होती है।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

More From Author

नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर हमले के बवजूद विपक्ष किस हदबंदी का शिकार है?

Leave a Reply