उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में दलित परिवारों की बारातों पर हिंसक हमले हुए हैं। ज़्यादातर मामलों में, ऊंची जाति के लोगों ने दलितों के बारात निकालने, दूल्हे के घोड़ी पर चढ़ने या डीजे पर संगीत बजाने, या कभी-कभी तो उनके मूंछ रखने पर भी आपत्ति जताते हुए ये हमले किये हैं। ज्यादातर छोटे शहरों और गांवों में दलित परिवारों के शादी समारोहों पर उच्च जातियों के हमले हुए हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 2022 में राज्य में अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचार के 15,368 और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अत्याचार के पांच मामले दर्ज किए गए। समारोहों के दौरान दलितों के खिलाफ अत्याचारों का कोई अलग डेटा नहीं उपलब्ध है।
मथुरा जिले के भूरेका गांव की घटना
उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले का एक गांव है, भूरेका। यहाँ हरे-भरे खेतों के बीच बिखरे हुए मिट्टी के घर हैं, जो दलितों के हैं। ये लोग मुख्यतः खेती करते हैं। नोएडा को आगरा से जोड़ने वाली हाई-स्पीड यमुना एक्सप्रेसवे के ठीक पास स्थित होने के बावजूद इस गाँव के लोगों की ज़िंदगी काफी धीमी है।
भूरेका की 50 वर्षीया मुन्नी देवी की चार बेटियाँ हैं। कुछ साल पहले उनके पति का निधन हो गया है। इस साल मई में उनकी एक बेटी 20 वर्षीया कल्पना की शादी अलीगढ़ के 21 वर्षीय आकाश से हुई है। कल्पना ने आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की है; आकाश बढ़ई का काम करता है। परिवार को लगा कि उनकी बेटी शहर में बेहतर जीवन जी सकेगी। गांव में कई युवतियां इसी उम्मीद में शादी करती हैं। बहुत सी युवतियां उच्च शिक्षा तक पहुंच नहीं पाती हैं। शहर में शादी करने वाली महिलाओं को गरीबी और दमन दोनों से बाहर निकलने का रास्ता माना जाता है।
लेकिन पड़ोसी गांव के जाट समुदाय के लोगों को एक दलित द्वारा बारात लेकर आना बर्दाश्त नहीं हुआ। 22 मई को जाट समुदाय के एक समूह ने शादी के जुलूस में बाधा डाली। वे डीजे बजाने और आकाश के रथ पर सवार होने से नाराज़ थे। उन्होंने बारातियों पर हिंसक हमला बोल दिया और दूल्हे आकाश को उसके रथ से घसीट कर उतार दिया। कल्पना के चचेरे भाई, 25 वर्षीय अनिल कुमार, शादी के दिन के वीडियो दिखाते हैं।
वे बताते हैं कि कैसे “उन्होंने जातिवादी गालियाँ दीं और हमारे बारातियों पर हमला किया। यह शर्मनाक था। हम सभी शादी को लेकर बहुत उत्साहित थे। आकाश का परिवार अलीगढ़ से आया था। जब पुरुषों ने हमारे बारातियों को धमकाना शुरू किया, तो हमने पुलिस को बुलाया।” पुलिस के विवाह हॉल में पहुंचने के बाद जोड़े ने आधी रात को अपने सात फेरे पूरे किए।
“लेकिन अगले दिन सुबह 8 बजे वही समूह और 20-25 अन्य लोगों ने हथियार लेकर घर पर फिर से धावा बोल दिया। उन्होंने बारातियों के कपड़े फाड़ दिए, उन्हें मारा और टेंट तथा आस-पास की हर चीज को नुकसान पहुंचाया। उन्होंने जातिवादी गालियां दीं और महिलाओं और बच्चों का अपमान किया।”
“हम वहां बैठकर अपने मेहमानों का अपमान होते नहीं देख सकते थे, इसलिए हमने जवाबी कार्रवाई की और हममें से कई लोग, जिनमें बुजुर्ग भी शामिल थे, चोटिल हो गए।” अनिल उस घटना की एक वीडियो दिखाते हुए कहते हैं कि “हमारे दागदार पजामे देखिए, ये बिल्कुल नए थे और अब, यही हमारी एकमात्र याद है।” परिवार के अन्य सदस्य अपने घाव दिखाते हैं। मुन्नी देवी ने याद के तौर पर खून से सने हुए पाजामे को स्टेनलेस स्टील के ट्रंक में रखा हुआ है।
पुलिस की निगरानी में विदाई
विदाई के समय कल्पना का परिवार पुलिस स्टेशन में अपना बयान दर्ज कराने के लिए इंतजार कर रहा था। मुन्नी देवी कहती हैं, “कम से कम मैं अपनी बेटी को शांति से विदा तो कर सकती थी, लेकिन मुझे इसकी भी अनुमति नहीं थी।”
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धाराओं के तहत दंगा, घर में जबरन घुसने और आपराधिक धमकी देने के आरोप में नौहझील पुलिस स्टेशन में 20-25 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है।
सर्किल ऑफिसर (मांट) गुंजन सिंह का कहना है कि इस घटना के सिलसिले में गांव के छह लोगों को गिरफ़्तार किया गया है। गुंजन सिंह का बयान है कि, “बारात रोके जाने का आरोप झूठा है। हमारी जांच में यह बात सामने नहीं आई है। यह विवाद सिर्फ़ इसलिए हुआ क्योंकि डीजे ने रात में तेज़ आवाज़ में संगीत बजाया था।” उन्होंने आगे कहा कि सिर्फ़ तीन लोगों ने आवाज़ कम करने के लिए कहा था।
हालांकि ग्राम प्रधान आमतौर पर स्थानीय मामलों पर सबसे पहले प्रतिक्रिया देते हैं, लेकिन गांव वालों का कहना है कि यह इस बात पर बहुत निर्भर करता है कि वे किस समुदाय से हैं और किस समुदाय को नुकसान उठाना पड़ रहा है। भूरेका प्रधान भुवनेश शर्मा, ब्राह्मण समुदाय से आते हैं, और गांव वालों के मुताबिक उन्होंने कोई सहायता नहीं की। शर्मा कहते हैं कि उन्होंने सहायता किया। उन्होंने कहा, “मैंने परिवार से भी मुलाकात की”, हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि उन्होंने क्या बातचीत की।
भूरेका गांव के ही 60 वर्षीय राम खिलाड़ी बताते हैं कि उनकी बेटी का हरियाणा के पलवल में रिश्ता तय हुआ था, लेकिन इस घटना की खबर अखबारों में छपी थी, जिसको पढ़ कर लड़के वालों ने इस गांव में बारात पर हमले का हवाला देकर रिश्ता तोड़ लिया।
एटा जिले के ढकपुरा गांव की घटना
हलांकि, हर महीने राज्य में दलितों की बारात पर हमले की घटनाएं होती रहती हैं। 21 जून को एटा जिले के ढकपुरा गांव में 19 वर्षीय आरती कुमारी और 21 वर्षीय विकास सिंह की शादी हो रही थी। जब उनकी बारात राजपूत बहुल बस्ती में पहुंची, तो उन्हें धमकियाँ दी जाने लगीं और उनके ऊपर पथराव शुरू कर दिया गया। आखिरकार शादी पुलिस सुरक्षा में संपन्न हुई।
अमरोहा जिले के रेहदरा गांव की घटना
अमरोहा जिले के रेहदरा गांव में 36 वर्षीय ओम प्रकाश रामपाल पेशे से दर्जी हैं। उनकी दो बेटियों की अभी-अभी शादी हुई है। वे कहते हैं कि परिवार ने 2 लाख का कर्ज लिया और 4 लाख जुटाने के लिए ज़मीन बेची।
रामपाल और उनकी पत्नी अनिता, दोनों तनाव में हैं। उनकी बेटियों, 22 वर्षीय सोनम और 19 वर्षीय सोनिका ने अपनी शादी की खुशी में बाजार से लाल लहंगा-चोली खरीदा, साथ ही मेकअप, चूड़ियाँ और अन्य सामान भी खरीदा। सोनम ने 24 वर्षीय सतीश कुमार से शादी की, जो एक निजी कंपनी में काम करता है; सोनिका ने 20 वर्षीय अमित कुमार से शादी की, जो एक दुकान का मालिक है।
2 जून को सोनम और सोनिका की बारात गांव में आई। शाम करीब 5.30 बजे यादव समुदाय के 15-20 लोग कथित तौर पर बारात में घुस आए और लोगों को नाचने से रोक दिया। तेज आवाज में संगीत बज रहा था और यादवों ने बारातियों से सड़क खाली करने के लिए कहा। जब उन्होंने मना कर दिया, तो यादवों ने जातिवादी गालियां दीं और लोगों पर लाठी, डंडे, चाकू और धारदार हथियारों से हमला करना शुरू कर दिया।
पुलिस का कहना है कि भीड़ को तितर-बितर करने और व्यवस्था बहाल करने के लिए उन्हें हल्का बल प्रयोग करना पड़ा। बढ़ते तनाव को देखते हुए गांव में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस बल तैनात किया गया है। सोनम की शादी पुलिस की मौजूदगी में हुई। परिवार को विदाई के लिए पर्याप्त समय नहीं मिला। अनिता कहती हैं, “बारातियों ने खाना खाने से इनकार कर दिया; वे शर्मिंदा थे। हम भी शर्मिंदा थे।”
सर्किल ऑफिसर (गजरौला) श्वेताभ भास्कर का कहना है, “चूंकि पीड़ितों को गंभीर चोटें नहीं आईं थीं, इसलिए तीनों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया और जमानत राशि जमा कराने के बाद छोड़ दिया गया।”
35 साल बाद एक फैसला
21-22 जून 1990 को आगरा के पनवाड़ी गांव में दलित दूल्हे के घोड़ी चढ़ने को लेकर हिंसा भड़क उठी थी। जाट समुदाय के लोगों ने बारात पर हमला किया था। एक दलित व्यक्ति की मौत हो गई और कई लोग घायल हो गए, जिसके बाद दंगे भड़क गए, घरों में आग लगा दी गई और कई दलित गांव छोड़कर भाग गए।
इस साल मई में एक विशेष अदालत ने 32 लोगों को पांच साल की जेल की सज़ा सुनाई है। 72 लोगों को आरोपी बनाया गया था, जबकि 22 की मुकदमे के दौरान मौत हो चुकी है।
अकोला में, जहाँ मुख्य रूप से जाटव समुदाय रहता है, लोग इस घटना को “पनवाड़ी कांड” के रूप में याद करते हैं। उस घटना के बारे में दलित समुदाय के एक चश्मदीद बताते हैं, “उसके बाद मेरे कई पड़ोसी भागकर पड़ोसी जिलों में जा बसे। लोग यहाँ रहने से डरते थे।… उसके बाद से दलित और जाट इलाकों में शांति है, लेकिन उनके बीच बहुत कम बातचीत होती है, शादियाँ ज़्यादातर उनके अपने इलाकों तक ही सीमित रहती हैं। हमें उनके मंदिरों में जाने की अनुमति नहीं है, इसलिए हमने अपना खुद का मंदिर बनाया है।”
प्रतिरोध का एक रूप
आगरा से 20 किलोमीटर दूर अकोला में ब्रास बैंड की दुकान चलाने वाले पुष्पेंद्र चाहर बताते हैं कि दलित समुदाय के लोगों के लिए बारात के आयोजन में हमेशा हमले का डर बना रहता है। जब दूल्हा घोड़े या रथ पर चढ़ता है, तो यह छोटे इलाकों में चर्चा का विषय बन जाता है।
वे कहते हैं, “हम ऐसे किसी भी रास्ते से बचने की कोशिश करते हैं जो परेशानी का कारण बन सकता है। ऐसे शुभ दिन पर कौन बहस करना चाहेगा?” लोग दलितों की शादी को पहचान सकते हैं क्योंकि इसमें अक्सर राम, कृष्ण, हनुमान या शिव जैसे हिंदू देवताओं की तस्वीरें नहीं होती हैं। वे कहते हैं, “डॉ. बी आर अंबेडकर या गौतम बुद्ध की तस्वीर एक पक्का संकेत है।”
20 साल से ज़्यादा समय से ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे दलित अधिकार कार्यकर्ता सुशील गौतम का मानना है कि भले ही समय बदल रहा हो, लेकिन “समस्याएँ अभी भी बनी हुई हैं।”
वे बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में दलित समुदाय में विवाह की पारंपरिक प्रणाली कैसे विकसित हुई है। “सोशल मीडिया और शिक्षा तक पहुँच के साथ, दलित समुदाय के लोगों ने समझ लिया है कि ‘प्रतिरोध’ शब्द का क्या मतलब है। यह अपने लिए एक सुरक्षित जगह बनाने और अधिकारों तक पहुँचने के बारे में है, चाहे वह शादी हो, शिक्षा हो या मूंछ रखने जैसी छोटी सी बात हो।”
गौतम कहते हैं कि शादी समारोहों के दौरान भी डॉ. बीआर अंबेडकर, रविदास और ज्योतिबा फुले जैसे दलित प्रतीकों की तस्वीरें मुख्य आकर्षण होती हैं। “कई मामलों में, जब कोई दलित पीले या हरे जैसे चमकीले रंग पहनता है, तो उस पर जातिवादी गालियाँ दी जाती हैं।” वे कहते हैं कि जाति व्यवस्था ने सदियों से तथाकथित निचली जातियों को अनदेखा और अनसुना करने के लिए इस व्यवहार का समर्थन किया है।
वे कहते हैं, “अब दलित समुदाय के लोग सजते-संवरते हैं और महिलाएँ दुल्हन की तरह लाल रंग पहनती हैं। कोई भी इसे हमसे नहीं छीन सकता।”
लखनऊ विश्वविद्यालय के दलित विद्वान प्रोफेसर रविकांत, जो 2006 से हिंदी पढ़ा रहे हैं, कहते हैं, “दलितों को जीवन को जूठन और उतरन वाले दृष्टिकोण से जीना पड़ता है।” वे बताते हैं कि कैसे सोशल मीडिया के प्रभाव के कारण काफी दलित परिवारों, खासकर जाटव परिवारों, में बौद्ध विवाह अब एक परंपरा बन गई है।
वे कहते हैं, “कोई भी ब्राह्मण पुजारी घर में प्रवेश नहीं करना चाहता है। इससे हमें यह समझने में मदद मिली कि हमारे समुदाय के लोग शादी का जश्न अलग तरीक़े से मना सकते हैं। अब शादी के कार्ड पर हिंदू देवताओं की नहीं बल्कि बहुजन हस्तियों की तस्वीर होती है। हमारे यहां संस्कृत के श्लोक नहीं पढ़े जाते हैं।” हम लोग शादी के उपहारों की जगह बहुजन हस्तियों या संविधान के ग्रंथ और चित्रों को रखना शुरू कर दिये हैं।
मदद के लिए आह्वान
प्रो. रविकांत कहते हैं कि ऐसी कई घटनाओं के बावजूद सरकार और विपक्ष की ओर से मदद और समर्थन की कमी है। “जब ऐसी घटनाएं होती हैं तो राष्ट्रीय आयोग (अल्पसंख्यकों, एससी, एसटी के लिए) शायद ही कभी कोई कदम उठाते हैं। वे मामले का संज्ञान तक नहीं लेते। यहां तक कि बहुजन समाज पार्टी के नेता भी शायद ही कभी प्रतिक्रिया देते हैं।
समाजवादी पार्टी के नेता एक्स पर पोस्ट करते हैं और आज़ाद समाज पार्टी के नेता तब पहुंचते हैं जब घटना राष्ट्रीय सुर्खियों में आती है। हमारे समुदाय का काम सोशल मीडिया पोस्ट से नहीं चलने वाला है।” हलांकि पारंपरिक रूप से इन तीनों ही पार्टियों ने दलितों के मुद्दे का समर्थन किया है।
रश्मि वर्मा ‘दलित डिग्निटी एंड जस्टिस सेंटर’ नामक गैर-लाभकारी संगठन की सदस्य हैं और एक वकील हैं जो राज्य में दलित समुदाय के खिलाफ हिंसा से संबंधित मामलों को लड़ती रही हैं। उनका कहना है कि उनके द्वारा निपटाए गए ज़्यादातर मामलों में लोगों को एससी/एसटी अधिनियम के प्रावधानों के बारे में जानकारी नहीं थी।
वह बताती हैं, कि “लोग शिक्षित नहीं हैं, इसलिए वे पुलिस पर निर्भर रहते हैं। जब वे स्थानीय पुलिस स्टेशन जाते हैं, तो पुलिस एफआईआर दर्ज करती है, लेकिन सख्त एससी/एसटी अधिनियम के तहत मामला दर्ज नहीं करती। मुआवज़ा एक महत्वपूर्ण बिंदु है जिसे आमतौर पर अनदेखा कर दिया जाता है।”
वे कहती हैं कि एफआईआर दर्ज करवाना एक काम है, साथ ही न्याय पाने का रास्ता भी लंबा है। उन्होंने आगे कहा, “जब अदालती मामले शुरू होते हैं, तो पीड़ितों को पता नहीं होता कि उनकी केस को सरकारी वकील निःशुल्क लड़ेंगे, और कभी-कभी वे निजी वकीलों के पास पहुँच जाते हैं, जो उनसे मोटी रकम ऐंठ लेते हैं। ज़्यादातर पीड़ित ग्रामीण समुदायों से आते हैं, जहाँ वे खेती और मज़दूरी के काम से बहुत कम पैसे कमाते हैं, इसलिए उन्हें पूरे दिन की मजदूरी छोड़कर कचहरी जाना पड़ता है।”
लेकिन इन हमलों से भयभीत या हताश होने की बजाय दलित भी शादियों को प्रतिरोध के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। वे तथाकथित ऊंची जातियों द्वारा उनके बारात निकालने या दूल्हे के घोड़ी पर चढ़ने या डीजे पर संगीत बजाने, या मूंछ रखने पर लगायी गयी पाबंदियों को धता बता रहे हैं। वे ब्राह्मणवादी कर्मकांडों और पुजारियों के जरिये करायी जाने वाली शादियों को छोड़ कर बुद्ध, फुले और अंबेडकर की तस्वीरों और संविधान की प्रतियों जैसे नये प्रतीकों पर आधारित शादियों के नये तौर-तरीक़े अपना कर अपना प्रतिरोध प्रदर्शित कर रहे हैं।
( ‘द हिंदू’ में समृद्धि तिवारी की रिपोर्ट। प्रस्तुति: शैलेश।)