Saturday, April 20, 2024

कांग्रेस की उहापोह: माथे पर हो भस्म या फिर रहे नमाजी टोपी

कांग्रेस पार्टी वालों, ज्यादा देर न करोजल्दी फैसला करो। करो देश के कोने अतरे में पद यात्रा और लोगों को समझाओ कि आप ही हैं यहां की संस्कृति के असली रख वाले। लोकतंत्र के प्रहरी और धर्मांध देशवासियों के चक्षु खोलने वाले। आप से विनती है कि आप इस काम में देर न करें।
अगले लोक सभा चुनाव अब बहुत दूर नहीं। देखते-देखते समय बीतेगा और इस दौरान राजनीति की दुनिया में बहुत कुछ बदल जाएगा, इसमें संदेह है। बीच-बीच में कुछ उप-चुनाव, तेलंगाना, गुजरात एवं हिमाचल प्रदेश के विधान सभा चुनाव भी होंगे। भारतीय विपक्ष के सामने सबसे बड़ी चुनौती है हिंदुत्व के आक्रामक भाजपा ब्रांड के विरुद्ध भिड़ने की और साथ ही एक संतुलित, मध्यम मार्गी, सर्वसमावेशी रास्ता अपनाने की। वैचारिक रूप से एक संतुलित फॉर्मूला बनाने की। वह कामचलाऊ भी हो सकता है, क्योंकि इस तरह के फॉर्मूलों का उपयोग चुनावों के दौरान ही किया जाता है। बाद में सभी एक रंग में रंग जाते हैं। जनता ऐसा ही सोचती है। और उसका सोचना हमेशा गलत नहीं रहता।  

कांग्रेस के समक्ष यह चुनौती ज्यादा बड़ी है। पिछले करीब तीन दशकों से भाजपा एक दृढ़ लक्ष्य के साथ राजनीतिक मंच पर अपने आप को मजबूत बनाती चली जा रही है। बाकी विपक्ष और कांग्रेस भाजपा की नीतियों के खिलाफ स्वयं को व्यक्त करते रहे हैं। उनके हिसाब से भाजपा का अस्तित्व आक्रामक हिंदुत्व पर आधारित है, उग्र है। पर हकीकत यही है कि कई लोगों को इस ब्रांड में ज्यादा दोष नज़र नहीं आ रहा, और भारतीय राजनीति की इस फिसलन भरी पिच पर विपक्ष और कांग्रेस लिए बैटिंग करना फिलहाल मुश्किल साबित हो रहा है। हाल के कई चुनावों में यह बात खुल कर सामने आई है।

ऐसा नहीं लगता है कि कांग्रेस पार्टी 1980 के दशक के मध्य से ही अपनी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को लेकर भ्रमित रही है? शाहबानो वाले मामले में उसने मुस्लिम समुदाय को खुश करने की कोशिश की और अयोध्या में राम जन्म भूमि पर शिलान्यास की अनुमति देकर हिन्दुओं को खुश करने की कोशिश की। ये फैसले उसे काफ़ी महंगे पड़े, वैचारिक और ज़मीनी दोनों स्तरों पर। एक तरफ कांग्रेस चुनावी जमीन खोती जा रही है, दूसरी तरफ उसके कुछ नेता किसी मध्यम मार्ग की वकालत करने और हिंदुत्व के खिलाफ लड़ाई की कोई विशेष, संतुलित संरचना बुनने की कोशिश में लगे हैं।  ऐसी संरचना जिसमें अल्पसंख्यक, मुस्लिम और हिन्दू सभी प्रसन्न रहें। यह दुविधा बड़ी पुरानी है। बड़ी उलझी हुई भी है।

2004 में प्रधानमंत्री के रूप में अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में मनमोहन सिंह ने कहा था, “मैं सभी प्रकार के कट्टरवाद का विरोध करता हूं—चाहे वह वामपंथ का कट्टरवाद हो या दक्षिणपंथ का कट्टरवाद।” उनकी तटस्थता उस समय तो समझ में आती थी जब पार्टी में कई लोग भाजपा के हमले का मुकाबला करने के लिए मध्यम मार्गी रणनीतियां बनाने में लगे हुए थे। लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने बाद में वाम दलों के साथ-साथ अपनी ही पार्टी के उन लोगों को भी नाराज कर दिया था जो चाहते थे कि वह अपने हिंदुत्व विरोधी ब्रांड को ज्यादा आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाए।

दस साल बाद 2014 में जब कांग्रेस ने बुरी तरह पराजित होकर सत्ता खो दी, तब पार्टी के वरिष्ठ नेता ए.के.एंटनी ने धर्मनिरपेक्षता के प्रति पार्टी की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाते हुए कहा था, “लोगों ने पार्टी की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा में विश्वास खो दिया है। उन्हें लगता है कि कांग्रेस कुछ समुदायों, खासकर अल्पसंख्यकों के लिए लड़ती है। एंटनी ने जोर देकर कहा कि वह केवल केरल का जिक्र कर रहे थे, लेकिन अधिकांश कांग्रेसियों ने इसका अर्थ यह निकाला कि वह देश की बात कर रहे थे”।

इधर पिछले करीब दस सालों से जब भाजपा खूब फलने-फूलने लगी है, तो कई कांग्रेसियों ने अपनी निष्ठा को भाजपा के पक्ष में ट्रान्सफर भी कर दिया है। पिछले कुछ वर्षों में मुसलमानों और दलितों की लिंचिंग, गौरक्षा और ‘लव जिहाद’ अभियानों के साथ ही असहिष्णुता की बढ़ती घटनाओं के बीच हताश-सी, असहाय कांग्रेस को भाजपा/राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ कमज़ोर हमले करते हुए या बस हल्का विरोध जताते हुए देखा गया है। उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के दौरान प्रियंका गांधी का ‘जय माता दी’ का नारा लगाना, माथे पर भस्म लगाना—यह सब उनकी पार्टी की भ्रमित, उलझी हुई स्थिति को अधिक, उनके आत्म विश्वास को कम दर्शा रहा था। माथे पर भस्म और नमाजी टोपी के बीच कांग्रेस और बाकी विपक्ष किसे चुने, यह राजनीतिक फैसला ही नहीं हो पाया है।  

जब प्रणब मुखर्जी देश के राष्ट्रपति थे तब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर स्थित मुख्यालय पर एक बयान दिया था, जिसे लेकर कांग्रेसी बड़े उद्वेलित हुए थे। उन्हें नागपुर के आरएसएस के मुख्यालय में आमंत्रित किया गया था। अव्वल तो कुछ कांग्रेसियों ने उनसे कहा कि वे निमंत्रण स्वीकार ही न करें। पर प्रणब मुखर्जी गए भी और अपने भाषण में उन्होंने के बी हेडगेवार को “भारत माता का एक महान सपूत” भी बताया। इस बयान के बाद कांग्रेस पार्टी में भ्रम की स्थिति और अधिक गझिन हो गई। पार्टी ने दो वर्ष के लंबे अंतराल के बाद इफ्तार पार्टी का आयोजन करके अल्पसंख्यकों को और अधिक उहापोह में डाल दिया कि आखिरकार पार्टी का रुख उनके प्रति है क्या।

इस बीच आरएसएस मुख्यालय पर दिए गए प्रणब मुखर्जी के बयान से उद्वेलित कांग्रेस नेताओं ने अपने आक्रोश को आवाज देने का काम पूर्व केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी पर छोड़ दिया। तिवारी ने प्रणब मुखर्जी को संबोधित करते हुए कहा: “आप तो 1975 में और फिर 1992 में उस सरकार का हिस्सा थे जिसने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया था। क्या आप सोचते हैं कि आपको स्पष्ट करना चाहिए कि कैसे आरएसएस पहले बुरी थी और अब सदाचारी हो गई है?”

यह भी याद रहे कि राहुल गांधी ने, आरएसएस-भाजपा गठबंधन के खिलाफ अपनी लड़ाई को लगातार  एक “वैचारिक संघर्ष” के रूप में प्रक्षेपित किया है।1925 में आरएसएस के गठन के बाद से पार्टी की आधिकारिक लाइन के अनुरूप, अलग-अलग कांग्रेस सरकारों द्वारा संगठन पर तीन बार प्रतिबंध लगाया गया। 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद, आपातकाल के दौरान और 1992 में बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद। राहुल बार-बार यह स्पष्ट करने से नहीं चूकते कि कांग्रेस और भाजपा के बीच एक गहरी खाईं है जिसे भरा नहीं जा सकता, क्योंकि दोनों की विचाधाराएँ बिल्कुल विपरीत हैं।

पर गौरतलब है कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सिख विरोधी दंगे, 1985 के शाह बानो कांड, 1986 में बाबरी मस्जिद के ताले खोलने, 1989 में अयोध्या में राम मंदिर के लिए शिलान्यास की अनुमति और 1992 में बाबरी मस्जिद को विनाश से बचाने में विफलता—ये सब कुछ कांग्रेस और बाकी विपक्ष की आँखों के सामने हुआ। इसके बाद भी पिछड़े वर्गों को समायोजित करने और हिंदुत्ववादी ताकतों का मुकाबला करने के लिए कोई भी सुविचारित रणनीति तैयार करने में पार्टी अक्षम रही है, और इसी वजह से चुनावों में वह लगातार पीछे सरकते हुए दिखाई दे रही है। हकीकत यह है कि कांग्रेस देश भर में आरएसएस और उसके कई संगठनों द्वारा बनाई जा रही पैठ को प्रारंभिक दौर में देखने में ही विफल रही है। खासकर 1998 और 2004 के बीच जब वाजपेयी सरकार सत्ता में थी। उदाहरण के लिए, 2003 में जब वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार थी, उस समय प्रणब मुखर्जी और शिवराज पाटिल ने एक संसदीय समिति के सदस्यों के रूप में संसद के सेंट्रल हॉल में वीर सावरकर का चित्र लगाने के फैसले पर आपत्ति नहीं की।

कांग्रेस शर्मिन्दा थी और तत्कालीन लोकसभा उपाध्यक्ष पी.एम. सईद ने फरवरी 2003 में चित्र के अनावरण का बहिष्कार भी किया था। हालांकि, राज्यसभा की उपसभापति नजमा हेपतुल्ला ने इस कार्यक्रम में भाग लिया। 2010 में, कांग्रेस के पूर्व महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के विवादास्पद फैसले का स्वागत किया और कहा:“कांग्रेस ने माना है कि विवाद को या तो बातचीत से सुलझाया जाना चाहिए या अदालत के फैसले को स्वीकार किया जाना चाहिए। कोर्ट ने फैसला सुना दिया है। हम सभी को फैसले का स्वागत करना चाहिए। कुछ दिनों बाद कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) ने जोर देकर कहा कि अदालत के फैसले ने मस्जिद के विध्वंस की निंदा नहीं की, और कहा: “भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद शीर्षक मुकदमे के संबंध में न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान करती है। हालांकि, अब हमें सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले का इंतजार करना चाहिए जब और अपील दायर की जाएगी। ”

2017 के गुजरात विधान सभा चुनावों के दौरान, राहुल गांधी ने कई हिंदू मंदिरों का दौरा किया, यहां तक कि खुद को “शिव भक्त” के रूप में प्रस्तुत किया, और पार्टी के एक प्रवक्ता को उन्होंने खुद को “जनेऊधारी ब्राह्मण” के रूप में दर्शाने की अनुमति भी दी। इस संकेत से भ्रम और बढ़ा। दलितों, ओबीसी और मुसलमानों के लिए। आज, कांग्रेस का मानना है कि वह 2024 में सोच समझ कर तैयार किए गए गठबंधन के माध्यम से भाजपा को हरा सकती है। लेकिन क्या यह भारत के सौहार्द्रपूर्ण सामाजिक ताने-बाने को बनाए रखने के लिए पर्याप्त होगा?  

क्योंकि अगर पार्टी में इच्छाशक्ति, दृढ़ आत्मविश्वास या, भाजपा से लड़ने के लिए बौद्धिक, वैचारिक ऊर्जा का अभाव रहता है, तो भारत का उदार, सर्वसमावेशी लोकतंत्र खतरे में बना रहेगा। दुविधाग्रस्त और अस्पष्ट विपक्ष न सिर्फ अनुपयोगी है, बल्कि लोकतंत्र के लिए घातक भी है, तानाशाही के विकास के लिए ज़मीन को लगातार खाद-पानी देने का काम करता है। उम्मीद है कि कम से कम  कांग्रेस पार्टी यह तोहमत अपने सर नहीं लेगी, और अपने तौर तरीकों में सुधार लाएगी। उम्मीद है कि  बचा-खुचा विपक्ष भी ऐसा ही करेगा। जितनी जल्दी वे ऐसा कर पायें, देश उनका उतना ही कृतज्ञ होगा। 

(चैतन्य नागर लेखक और पत्रकार हैं। आप आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)   

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

आम चुनावों की शुरुआत हो चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट में मतगणना से सम्बंधित विधियों की सुनवाई जारी है, जबकि 'परिवारवाद' राजनीतिक चर्चाओं में छाया हुआ है। परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति, व्यवस्था और लोकतंत्र पर पितृसत्ता के प्रभाव, और देश में मदर्दवादी रुझानों की समीक्षा की गई है। लेखक का आह्वान है कि सभ्यता का सही मूल्यांकन करने के लिए संवेदनशीलता से समस्याओं को हल करना जरूरी है।

Related Articles

लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

आम चुनावों की शुरुआत हो चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट में मतगणना से सम्बंधित विधियों की सुनवाई जारी है, जबकि 'परिवारवाद' राजनीतिक चर्चाओं में छाया हुआ है। परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति, व्यवस्था और लोकतंत्र पर पितृसत्ता के प्रभाव, और देश में मदर्दवादी रुझानों की समीक्षा की गई है। लेखक का आह्वान है कि सभ्यता का सही मूल्यांकन करने के लिए संवेदनशीलता से समस्याओं को हल करना जरूरी है।