झूठ की खेती करना कोई मोदी और उनके मंत्रियों से सीखे। स्वयंसेवकों के दिमाग में बचपन में बोयी गयी यह फसल अब पूरे देश में लहलहा रही है। दरअसल जब आप किसी व्यक्ति का विरोध कर रहे होते हैं तो शरीर नहीं बल्कि उसके विचार के साथ भिन्नता या असहमति उसका प्रमुख कारण होता है। गांधी से संघ का विरोध उनकी दुबली पतली काया से नहीं था। बल्कि वह विचार था जिससे संघ सहमत नहीं था। और अगर कोई इस भ्रम में है या फिर उसे अभी भी इस गफलत में रखा गया है कि गोडसे ने गांधी की हत्या इसलिए की क्योंकि उनके चलते देश का बंटवारा हुआ था (वैसे यह बात तथ्यात्मक तौर पर गलत है, गांधी वह आखिरी शख्स थे जिन्होंने बंटवारे को सहमति दी थी या कहिए उनसे जबरन सहमति ले ली गयी थी। या फिर कहा जाए कि उनकी सहमति और असहमति का कोई मतलब नहीं रह गया था)।
तो इस बात को उसे अपनी जेहन से निकाल देना चाहिए। क्योंकि अगर ऐसा होता तो आखिरी मर्मांतक हमले से पहले गांधी की पांच बार हत्या की कोशिश नहीं की जाती। जो 1937 से शुरू हो गयी थी। दिलचस्प बात यह है कि इन कई हमलों में गोडसे खुद शामिल था। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस दक्षिणपंथी हिंदू जमात का मूल विरोध दरअसल गांधी की विचारधारा से था। जिसमें वह सत्य, अहिंसा और भाईचारे को देश और मानवता के आगे बढ़ने का बुनियादी उसूल मानते थे।
इन तीनों मोर्चों पर संघ गांधी के बिल्कुल विपरीत खड़ा था। संघ ने सत्य की जगह झूठ और अफवाह का दामन चुना। अहिंसा के स्थान पर उसने हिंसा को तरजीह दी। यह अनायास नहीं है कि शस्त्र पूजा उसके जीवन का प्रमुख संस्कार बन गया। भाईचारे के स्थान पर मुस्लिम घृणा को उसने अपना प्रमुख मंत्र माना। और अब जबकि देश में पहली बार संघ प्रशिक्षित स्वयंसेवकों की सरकार बनी है। और उसकी अगुआई संघ के दफ्तर में पला, बढ़ा और जवान हुआ एक स्वयंसेवक कर रहा है। तब संघ का चरित्र ही सरकार की बुनियादी सोच, समझ, दृष्टि, संस्कार और दिशा बन गया है। लिहाजा सरकार ने भी तय कर लिया है कि वह कोई छोटा-मोटा झूठ नहीं बोलेगी। बड़ा झूठ बोलेगी। वैसे भी छोटे झूठ को पकड़ना लोगों के लिए आसान होता है।
बड़े झूठ का न तो कोई ओर मिलता है और न ही छोर। लिहाजा उसे पकड़ पाना बहुत मुश्किल होता है। ऊपर से अगर बड़ा झूठ कोई बड़ा व्यक्ति बोल रहा हो तो यह काम और भी मुश्किल हो जाता है। यह काम अगर सरकार या फिर उसका कोई नुमाइंदा करे तो किसी के लिए उसको खारिज करना कठिन है। वैसे भी पिछले 70 सालों में नागरिकों के मानस में यह बात रही है कि सरकार झूठ नहीं बोलती है।
क्योंकि ऐसा करने पर उसके पकड़े जाने की आशंका रहती है। और चूंकि गोपनीय चीजों को छोड़कर सरकार का कोई भी मामला सार्वजनिक स्क्रूटनी के लिए उपलब्ध होता है लिहाजा उसके लिए यह काम कर पाना बेहद मुश्किल होता है। नागरिकों के जेहन में भी सरकार की वही पुरानी छवि बरकरार है या कहा जाए यह उनके अवचेतन का हिस्सा बन गया है लिहाजा नई सरकार के नये रवैये को लेकर बड़े पैमाने पर अभी भी भ्रम की स्थिति बनी हुई है।
गृहमंत्री अमित शाह ने अभी हाल में कहा है कि देश में आरटीआई आवेदनों की संख्या में आयी कमी बताती है कि सरकार अब पूरी तरह से पारदर्शी हो गयी है लिहाजा लोगों को अब सूचनाएं मांगने की जरूरत ही नहीं पड़ रही है। क्या यह बात सच है? एक बिल्कुल उल्टी बात को गलत तरीके से पेश किया जा रहा है। सच्चाई यह है कि आरटीआई के जरिये अब लोगों को सूचनाएं ही नहीं मिल रही हैं। और आरटीआई कानून में बदलाव किए जाने के बाद लोगों का उससे भरोसा भी उठता जा रहा है। उसका नतीजा यह हुआ है कि लोगों ने आरटीआई लगानी ही कम कर दी है। ऐसे में इस तरह के नतीजे आने स्वाभाविक हैं। लेकिन उसको भी अपने पक्ष में कैसे इस्तेमाल कर लेना है। यह कला संघ ने अपने स्वयंसेवकों को सिखा दी है।
पीएम महोदय कह रहे हैं कि कश्मीर में दो महीने में स्थिति सामान्य हो गयी। अब अगर मोदी जी को घाटी के चप्पे-चप्पे पर फौज की तैनाती और विरोध स्वरूप लोगों द्वारा बाजारों को बंद रखना सामान्य स्थित लगती है तो असामान्य क्या होता है यह उन्हें जरूर बताना चाहिए। क्योंकि अभी भी वहां मोबाइल बंद हैं। स्कूल में बच्चे नहीं आ रहे हैं।
सार्वजनिक यातायात बंद हैं। और बाजारें भी बंद हैं। सैलानियों के लिए घाटी को खोला गया है लेकिन वह नदारद हैं। तो सामान्य क्या है? इसे प्रधानमंत्री जी को जरूर देश को बताना चाहिए। लेकिन संघ प्रशिक्षित पीएम मोदी झूठ को सच बनाने के पुराने खिलाड़ी रहे हैं। इसलिए इस काम को वह बखूबी अंजाम दे रहे हैं।
बाबू रवि शंकर प्रसाद की शिक्षा-दीक्षा और संस्कार तक संघ प्रशिक्षित परिवार में हुआ है। लिहाजा उन्होंने मान लिया कि झूठ बोलने का उन्हें सनातनी अधिकार है। और फिर उन्होंने फिल्मों के पैसे कलेक्शन का ऐसा झूठ बोल दिया जो किसी के गले ही नहीं उतरा। आखिरकार उन्हें माफी मांगनी पड़ी। लेकिन उस माफी में भी उनका अहंकार सिर चढ़कर बोलता दिखा। जब उन्होंने कहा कि उनके बयान को मीडिया ने ट्विस्ट किया है। तथ्यात्मक तौर पर उन्होंने सही बात कही थी। यह काम कोई संघ से जुड़ा शख्स ही कर सकता है। जो माफी भी मांगे और फिर कहे कि वह अपनी जगह सही था।
यह अहंकार किसी एक मंत्री तक सीमित नहीं है। हर दूसरा मंत्री उसके नशे में डूबा हुआ है। कल ही जीएसटी के मामले में वित्तमंत्री से मुखातिब एक शख्स ने उसकी कुछ कमियां गिनानी शुरू कीं और उसके हल के लिए उपाय सुझाने चाहे तो निर्मला सीतारमन का अहंकार सिर चढ़कर बोलने लगा। उन्होंने उसको बिल्कुल फटकारने के अंदाज में चुप करा दिया और कहा कि जीएसटी अब कानून है लिहाजा उसे लोगों को स्वीकार कर लेना चाहिए। उसमें किसी तरह के किंतु-परंतु की अब कोई गुंजाइश नहीं है। अब अगर कोई मंत्री अपने महकमे द्वारा लागू की गयी नीति की कमियों को सुनने की जगह इस तरह से पेश आएगा तो उसे किस श्रेणी में रखा जाएगा।
रेल और उसकी संपत्तियों को सरकार धड़ाधड़ बेच रही है। इस बीच एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें रेल कर्मचारियों के बीच पीएम मोदी को बोलते दिखाया गया है। इसमें वह कर्मचारियों से कह रहे हैं कि किसी और से ज्यादा वह खुद रेलवे से जुड़े रहे हैं। उनके जीवन की शुरुआत प्लेटफार्म से हुई है। लिहाजा रेलवे के प्रति किसी से भी ज्यादा लगाव खुद उनमें है। और रेलवे के निजीकरकण की बातें अफवाह हैं। लेकिन नया सच यह है कि अब पूरे रेलवे को खुले बाजार में रख दिया गया है।
और उसको बेचने के अधिकार का मालिकाना हक रेलमंत्री और मंत्रालय की जगह नीति आयोग को दे दिया गया है। जिस पर न तो कई टेंडर होगा न ही कोई दूसरी सार्वजनिक पारदर्शिता। और इस तरह से रेलवे और उसकी पूरी संपत्ति को अपने चहेते उद्योगपतियों की जेब में डालने की पूरी व्यवस्था कर दी गयी है।
(लेखक महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)