Tuesday, April 23, 2024

हाथरस के निर्भया कांड को बाबरी मस्जिद के चश्मे से भी देखिए

एक मशहूर ग़ज़ल का मतला है कि बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी, लोग बेवजह उदासी का सबब पूछेंगे…’। बेशक़, यहाँ बातें तो दूर तलक जाने वाली ही हैं, अलबत्ता उदासियाँ बेवजह नहीं हैं, क्योंकि आज मुफ़ीद वक़्त है कि बाबरी मस्जिद के ताज़ा फ़ैसले की तुलना हाथरस के निर्भया कांड से की जाए। पहली बात तो ये कि हाथरसी निर्भया की मौत उस बाबरी फ़ैसले के चन्द घंटे पहले हुई जो नहीं तय कर सका कि बाबरी मस्जिद को ढहाने की साज़िश किसने रची या मस्जिद को ढहाने वाले कौन हैं?

दूर तलक जाने वाली अगली बात है कि भारतीय न्यायपालिका में ‘न्यायिक चमत्कारों’ का भी शानदार इतिहास रहा है। मुम्बई में पाँच मज़दूरों ने सलमान ख़ान की कार से उस वक़्त पटरी उचककर उन्हें रौंद डालने की ग़ुहार लगायी थी, जब कार में भले ही कई लोग सवार हों, लेकिन कोई उसे चला नहीं रहा हो। ‘No One Killed Jessica’, अन्धा क़ानून, अदालत जैसी तमाम फ़िल्में यूँ ही नहीं बनतीं। फ़िल्मी पुलिस या अदालतों की करामात भले ही बनावटी हो, लेकिन असली पुलिस और न्यायपालिका के चमत्कार तो जगज़ाहिर हैं। लाखों बेकसूर अब भी हमारी जेलों की शान बढ़ाने के लिए वहाँ तपस्या कर रहे हैं तो पुलिस और जेल के चंगुल से बाहर आकर लाखों ग़ुनहगार बारम्बार जरायम की दुनिया की बादशाहत करते हैं।

यही बातें जब दूर तलक जाती हैं तो 17 साल की न्यायिक कार्यवाही के बाद 2009 में आये जस्टिस मनमोहन सिंह लिब्रहान आयोग के उन नतीज़ों की यादें भी ताज़ा कर देती हैं जिसमें आयोग ने साफ़ कहा था कि ‘लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती समेत संघ और बीजेपी के तमाम वरिष्ठ नेताओं तथा कल्याण सिंह सरकार और इसके प्रमुख अफ़सरों की मिलीभगत से बाबरी मस्जिद को ढहाया गया। इन सभी ने प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से मस्जिद को ढहाये जाने का समर्थन किया था।’

बात आगे बढ़ती है तो फिर ये बात भी निकलती ही है कि सीबीआई कोर्ट ने सभी आरोपियों को बाइज़्ज़त बरी करके क्या ये साबित नहीं किया कि या तो लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट ग़लत और भ्रष्ट थी या फिर सीबीआई ‘पिंजरे में बन्द तोते’ से भी कहीं ज़्यादा नालायक और निक्कमी जाँच एजेंसी बन चुकी है? सवाल जस्टिस लिब्रहान की योग्यता और न्यायिक आयोग पर बर्बाद हुए धन-श्रम पर भी क्यों नहीं उठेंगे? आख़िर, 17 साल में जनता की कमाई के 8 करोड़ रुपये इस आयोग पर ख़र्च हुए थे। आयोग की सारी क़वायद क्या पानी में नहीं चली गयी? आयोग को ऐसे दोषियों का पता लगाने से हासिल क्या हुआ जिन्हें सज़ा देने लायक सबूत ही नहीं जुटे?

ये बात ही है जो हज़म नहीं होती कि क्या देश के साक्ष्य क़ानून (The Indian Evidence Act, 1872) की बारीकियाँ जस्टिस लिब्रहान या सीबीआई कोर्ट के जज सुरेन्द्र कुमार यादव या फिर सीबीआई के जाँच अधिकारियों को नहीं मालूम होगी! और, यदि तीनों ही साक्ष्य क़ानून के ज्ञाता रहे हैं तो फिर इनकी समझ या आकलन में इतना फ़र्क़ कैसे हो सकता है कि एक जिसे पूरब बताये उसे ही दूसरा पश्चिम कहने लगे! आयोग के 17 साल और कचहरी के 28 साल के लम्बे वक़्त को देखते हुए ये बात भी सही नहीं हो सकती कि तीनों में से कोई भी हड़बड़ी में रहा होगा, जिससे जाने-अनज़ाने में लापरवाही या नादानी हो गयी।

ज़ाहिर है, उपरोक्त बातों का निचोड़ तो फिर यही हुआ कि 463 साल से खड़ी, कभी उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी मस्जिद कहलाने वाली इमारत 6 दिसम्बर, 1992 को ‘एक्ट ऑफ़ गाड’ के तहत ढह गयी। इस ऐतिहासिक चमत्कार के दौरान खींची गयी तमाम तस्वीरों में जो लोग उसे ढहाते हुए नज़र आये वो दरअसल, ख़ुदा के फ़रिश्ते थे! अलबत्ता, इन फ़रिश्तों ने ख़ुदा के नेक काम को अंज़ाम देने के लिए कारसेवकों का स्वाँग रच रखा था। वैसे, शायद ये भी इकलौता मौक़ा ही रहा हो, जब इंसान ने फ़रिश्तों को ख़ुदा के हुक़्म की तामील करते हुए साक्षात देखा था और फ़रिश्तों ने, इत्तेफ़ाकन पहली बार अपने पराक्रम की तस्वीरें खिंचवाई थीं!

ख़ैर जो हुआ सो हुआ। अब जिसको जो सोचना है सोचे, सोचता रहे। इतिहास लिखे, सियासत करे। जो जी में आये करे। आख़िर, आज़ादी का यही तो मतलब है! इसमें तो कोई शक़ नहीं कि भारत, आज़ाद है। पूरा आज़ाद है। भरपूर आज़ाद है। इसी बात से दूर तलक जाने वाली अगली बात ये निकलती है कि यही आज़ादी हाथरस जाने की ज़िद करने वालों के नसीब में नहीं हो सकती। बूलगढ़ी गाँव वाली निर्भया के माँ-बाप और परिजनों के लिए भी आज़ादी के कोई मायने नहीं हो सकते। उनकी ज़िन्दा बेटी के साथ यदि आज़ाद ठाकुरों के आज़ाद-ख़्याल वारिसों  ने दरिन्दगी की तो मौत के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस ने भी उसकी लाश से जो सलूक किया वो भी किसी आज़ाद-ख़्याल बलात्कार से कम नहीं था। 

उत्तर प्रदेश पुलिस की आज़ाद-ख़्याली ने तो जॉर्ज फ्लॉयड वाले अमेरिका को भी शर्मसार कर दिया। अपनी कलाबाज़ी दिखाती कारों के ज़रिये फ़र्ज़ी मुठभेड़ों से जंगलराज का सफ़ाया करके रामराज्य को स्थापित कर चुकी इस महान पुलिस ने ‘ऊपरी आदेश’ के मुताबिक ज़बरन लाश को जलाकर राजकीय सम्मान के साथ अन्त्येष्टि करने का ऐसा फ़ॉर्मूला ईज़ाद किया है, वो आज़ाद भारत को विश्व गुरु के आसन पर स्थापित करने के लिए पर्याप्त है। इसीलिए पुलिस ने डंके की चोट पर बूलगढ़ी गाँव वाली निर्भया की लाश को उसी के गाँव में लाकर और जलाकर दिखा दिया।

पते की बात ये निकली कि जो मर गया सो मर गया लेकिन जो ज़िन्दा हैं उनके सुख-शान्ति और समृद्धि के लिए रात के अन्धेरे में, माँ-बाप को उसके कलेज़े के टुकड़े की सूरत आख़िरी बार भी नहीं दिखाकर लाश को ज़बरन जला देना ज़रूरी है। मामले की लीपा-पोती के लिए पुलिस के आला अफ़सर का मनगढ़न्त बयान देना आवश्यक है। ताकि शान्ति और सौहार्द बना रहे। ज़िले में निषेधाज्ञा (धारा 144) थोप दी गयी ताकि 6 दिसम्बर, 1992 की तरह फ़रिश्ते फिर से कहीं कोई चमत्कार ना कर जाएँ। इसी चमत्कार की आशंका को मिटाने के लिए ही तो पुलिस ने पीड़िता की लाश को जलाने का ऐसा सम्मानित तरीक़ा अपनाया जैसा वो ख़ुद अपने या अपने परिजनों के लिए भी नहीं अपनाते। 

दूर तलक जाने वाली अगली बात ये है कि रामराज्य के कर्ताधर्ता सीबीआई या मद्रास और आन्ध्र प्रदेश हाईकोर्ट के मुखिया रहे जस्टिस लिब्रहान या राजीव गाँधी या विश्वनाथ प्रताप सिंह या नरसिम्हा राव या तत्कालीन सुप्रीम कोर्ट की तरह नादान-नासमझ नहीं हैं कि हाथरस की आब-ओ-हवा बिगाड़ने के लिए किसी नेता को बूलगढ़ी गाँव जाने की इजाज़त दे दें। इन्हें अच्छी तरह मालूम है कि कैसे सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा जारी करके आज़ादी को ग़ुमराह होने से बचाया जाता है? रथयात्रा निकालकर कैसे संविधान में लिखित धर्मनिरपेक्षता को छद्म बताया जाता है? कैसे सांकेतिक कार सेवा और कांवड़ियों पर आकाश से पुष्प-वर्षा करके देश की धार्मिक और सांस्कृतिक आज़ादी को परिभाषित किया जाता है?

तमाम सियासी पार्टियाँ भले ही अपने तज़ुर्बों से कुछ नहीं सीखें लेकिन भगवा बिरादरी ऐसी नहीं है। इन्हें कोई झाँसा नहीं दे सकता, क्योंकि झाँसा-विज्ञान के ये जन्मजात विश्व-गुरु हैं। इस विधा में यदि बाक़ी पार्टियाँ डाल-डाल हैं तो ये पात-पात हैं। अजेय हैं। रावण की तरह इनकी नाभि में भी झाँसों का अमृत भरा हुआ है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाथरस वाली निर्भया के मामले में भले ही स्वतः संज्ञान लेने की हिम्मत दिखाकर सराहनीय काम किया हो, लेकिन ये कोशिश ब्लैक-होल जैसे अनन्त अन्धेरे में माचिस की एक तीली सुलगाने जैसी ही है। बात टेढ़ी होती दिखेगी तो सुप्रीम कोर्ट से वैसा ही बचाव पैदा कर लिया जाएगा जैसा राफ़ेल, राम मन्दिर और प्रवासी मज़दूरों के मामलों में हम देख चुके हैं। 

हाईकोर्ट यदि ‘लक्ष्मण रेखा’ लाँघेगा तो पछताएगा। उसे पता होना चाहिए कि मौजूदा दौर ‘आपदा को अवसर’ में बदलने वालों और ‘संकल्प से सिद्धि’ पाकर ‘आत्मनिर्भर’ बने लोगों का है। ये तेज़ी से कड़े फ़ैसले लेकर निर्णायक कार्रवाई करने में इतने सिद्धहस्त हैं कि इन्होंने सभी लोकतांत्रिक संस्थानों को निष्प्राण बना दिया है। हाईकोर्ट की एक बेंच को चींटी की तरह मसल दिया जाएगा। इसीलिए तमाम अदालती तज़ुर्बों का युगान्तरकारी सफ़र साफ़ बताता है कि दूर तलक जाने वाली ऐसी तमाम बातों से पनपी उदासियाँ तो कतई बेवजह नहीं हैं। बहरहाल, जगजीत सिंह की आवाज़ में क्या शायर कफ़ील आज़र अमरोहवी ने मौजूदा दौर के लिए ही लिखा है कि चाहे कुछ भी हो सवालात ना करना उनसे, मेरे बारे में कोई बात न करना उनसे

(मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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