भारतीय समाज के अपराधीकरण की प्रक्रिया लगभग पूरी हो गई है। शुक्रवार की हैदराबाद की घटना और उसके बाद देश में हुए जश्न ने इस बात को साबित कर दिया है। कम से कम मोदी और संघ को इस बात की सफलता का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उसने महज छह सालों में देश को एक तालिबानी समाज में तब्दील कर दिया।
अभी ज्यादा साल नहीं हुए हैं जब आईएसआईएस द्वारा किसी शख्स की क्रूर हत्या के वीडियो आते थे तो हर कोई देखकर विचलित हो जाया करता था। इसके लिए उन्हें लानतें भेजी जाती थीं। साथ ही इस बात के लिए अचरज भी जाहिर किया जाता था कि आखिर इतनी क्रूरता वे लाते कहां से हैं।
शुक्रवार को देश की किसी एक बड़ी शख्सियत ने जब यह कहा कि इन चारों को लाल किले पर लटका कर तड़पा-तड़पा कर मारा जाना चाहिए था। तब लग गया कि भारतीय समाज भी अब अरबी न्याय के लिए तैयार हो गया है, जिसमें आंख के बदले आंख और हाथ के बदले हाथ तथा मौत के बदले मौत की सजा मिलती है। वह भी खुलेआम चौराहे पर। वह भी बगैर किसी लोकतांत्रिक न्यायिक और कानूनी प्रक्रिया को पूरा किए। 70 सालों के लोकतंत्र का अगर यही हासिल है तो समझा जा सकता है कि भारतीय समाज का भविष्य कितना अंधकारमय है।
यह कोई कह ही सकता है कि ये अपराधी थे, लिहाजा उनकी सजा तत्काल होनी जरूरी थी। और पुलिस ने जनता की उसी भावना को पूरा किया है। तब देश में हुई उन लिंचिंगों का क्या जवाब है, जिसमें 100 से ज्यादा बेगुनाह बेवजह मार दिए गए। दरअसल समाज के अपराधीकरण की वह शुरुआत थी, जिसमें चेतना के सबसे निचले पायदान पर रहने वालों को शामिल किया गया था।
अब उसी काम को संस्थाओं के जरिए कराया जा रहा है। यह हैदराबाद पुलिस की लिंचिंग थी। और कल जब कानून बनाने वाले देश की सबसे बड़ी पंचायत में खुद अपने ही बनाए कानून की धज्जियां उड़ाये जाने का जश्न मना रहे थे। एक काला कोट धारी महिला खुलेआम उसका समर्थन कर रही थी। और देश के सर्वोच्च सत्ता प्रतिष्ठानों पर बैठे तमाम स्वनामधन्य लोग मौन थे। उससे यह किसी के लिए समझना मुश्किल नहीं है कि संस्थाएं किस तरह से अपना वजूद खोती जा रही हैं।
दरअसल संघ की पूरी योजना इन संस्थाओं को पंगु कर देने की है। जैस-जैसे ये संस्थाएं जनता से मुंह मोड़ रही हैं, लोगों की उम्मीदें भी उनसे खत्म होती जा रही हैं। लिहाजा वह दिन दूर नहीं जब ये संस्थाएं सफेद हाथी बन जाएं और कोई उनकी तरफ रुख करना भी पसंद न करे।
अनायास नहीं सभी सार्वजनिक संस्थाओं का तेजी से निजीकरण किया जा रहा है और कल्याणकारी योजनाएं इतिहास का विषय बनती जा रही हैं। किसी को भी राज्य और सरकार से अपेक्षा को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है।
हैदराबाद के मामले में भी पुलिस ने अगर सही समय पर काम किया होता तो शायद आज महिला डॉक्टर जिंदा होतीं और इस तरह के किसी एनकाउंटर की उसे जरूरत भी नहीं पड़ती, लेकिन एनकाउंटर करने वाले कमिश्नर साहब शायद अपनी पुरानी गलती से भी सबक नहीं सीख पाए जब 2008 में वारांगल के उस एसिड कांड में उन्होंने तीन युवकों का एनकाउंटर किया था।
उस समय भी पीड़िता ने खुद को परेशान करने वाले युवक के खिलाफ शिकायत की थी, लेकिन पुलिस ने कोई कदम नहीं उठाया था। लिहाजा अगर संस्थाएं अपना काम नहीं करेंगी और पानी जब सिर के ऊपर चढ़ जाएगा तो इस तरह की किसी बड़ी घटना को अंजाम देने के जरिये आप चीजों को दुरुस्त नहीं कर सकते हैं। यह कुछ उसी तरह की बात है जैसे पीएम मोदी संसद के सामने मत्था टेकने के बाद उसको क्षति पहुंचाने का कोई मौका नहीं छोड़ते। या फिर संविधान के सामने शीश नवाने के बाद उसकी हर तरीके से धज्जियां उड़ाते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि सजा दिलाने और बचाने के इस खेल में एक खास जातीय और वर्गीय नजरिया शामिल है। उच्च वर्गों और वर्णों के न केवल हित सुरक्षित हैं। बल्कि उन्हें इसमें हर तरीके का विशेषाधिकार हासिल है। पिछले दिनों बिहार के भीतर जब एक शख्स के खिलाफ दर्जनों बच्चियों के साथ यौन शोषण का आरोप सामने आया तब वहां किसी ने तत्काल न्याय की मांग नहीं की। देवरिया में भी इसी तरह की घटना घटी तब भी कोई नहीं जागा।
चिन्मयानंद से लेकर चिंतामणि तक में भी किसी का खून नहीं खौला। और चिन्मयानंद को गिरफ्तार करते समय तो पुलिस खुद ही अपराधबोध से ग्रस्त थी। और आलम यह है कि चिन्मयानंद अस्पताल में हैं और पीड़िता जेल में। हालांकि दो दिन पहले अभी उसको जमानत मिल गई है।
महिला डॉक्टर मामले के बाद अभी तक की सबसे हृदय विदारक घटना उसी उन्नाव में दोहराई गई, जिसमें सत्ता पक्ष के एक विधायक ने अपनी ताकत का इस्तेमाल करते हुए हैवानियत की सारी सीमाएं पार कर दी थीं। जब एक 23 साल की लड़की को पांच दरिंदों ने मिट्टी का तेल छिड़कर आग के हवाले कर दिया। लड़की एक किमी तक सहायता के लिए दौड़ती रही।
90 फीसदी जल चुकी इस बच्ची की मौत हो गई। उसके बाद भी उसके बलात्कार और इस नृशंस हत्या के दोषियों के एनकाउंटर की कोई आवाज नहीं उठ रही है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सभी आरोपी समाज के सबसे वर्चस्वशाली सवर्ण तबके से आते हैं।
दरअसल संघ के नेतृत्व में नया पूरा मॉडल ही इस रूप में विकसित किया जा रहा है जिसमें पुरानी वर्ण व्यवस्था के साथ ही नये उभरे उच्चवर्गीय तबकों के हितों को सुरक्षित किया जा सके। हालांकि अपने आखिरी नतीजे में इसमें किसका हित कितना सुरक्षित रहेगा कह पाना मुश्किल है, लेकिन एक बात तय है कि हम हिंदू अरब बनने के रास्ते पर बहुत तेजी से अग्रसर हैं।
चूंकि मध्य-पूर्व में लोकतंत्र की जड़ें इतनी गहरी नहीं थीं लिहाजा तालिबानियों को उसे अपने कब्जे में लेना बहुत आसान था। 70 सालों से लोकतंत्र के ऑक्सीजन में जी रहे भारत को हिंदू तालिबानी गैस चैंबर में बदलने के लिए संघ को नाको चने चबाने पड़ेंगे।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)