Friday, April 19, 2024

क्या यूपी में कांग्रेस जीत पाएगी महिलाओं का दिल?

2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जातिगत राजनीति के बजाय महिलागत राजनीति करना ये कांग्रेस की रणनीति से ज्यादा मजबूरी है। पिछले चार दशक से प्रदेश के मुख्य चार जातिगत समीकरण, मुस्लिम, पिछड़ा, उच्च जाति तथा ओबीसी तबके में कांग्रेस अपना स्थान ढूंढने में नाकाम रही है। कांग्रेस की मुख्य मतदाता कौम मुसलमान को मुलायम सिंह ने लुभा लिया था। कमंडल की राजनीति के चलते उच्च जातियां और ओबीसी ने अपना वोट भाजपा के पाले में डाल दिया। कांग्रेस के इस राजनीतिक उतार के पीछे अन्य पार्टियों से ज्यादा कांग्रेस और कांग्रेसी नेताओं की राजनीतिक गलतियां और राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव ज्यादा जिम्मेदार है।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का चुनावी इतिहास खंगाला जाए तो पता चलता है कि यूनाइटेड प्रोविन्स के जमाने से 1975 के इमर्जेंसी काल तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का एकचक्री शासन हुआ करता था। अभी का उत्तराखंड राज्य उत्तरप्रदेश का हिस्सा हुआ करता था तब प्रदेश विधानसभा की 425 सीट हुआ करती थी और कांग्रेस की सरकार बनती रहती थी। इमरजेंसी के बाद 1977 में चुनाव हुए तब कांग्रेस सिर्फ 47 सीट में सिमट गई और 352 सीट लेकर जनता पार्टी ने अपनी सरकार बनाई थी, लेकिन सिर्फ ढाई साल में केंद्र की मोरारजी देसाई सरकार गिर गई फिर 1980 में इंदिरा गांधी ने वापसी की तब उत्तरप्रदेश विधानसभा के मध्यावधि चुनाव में भी कांग्रेस ने वापसी करते हुए 309 सीटें ली थी। 1985 में कांग्रेस की सीटें कम हुईं फिर भी 269 सीट के साथ स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर लिया था। आज से 36 साल पहले उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी, उस के बाद कभी भी उत्तरप्रदेश में कांग्रेस 50 का अंक भी पार न कर सकी।

ऐसा क्यों हुआ?

उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के इस पतन के पीछे कई कारण हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण हासिमपुरा कांड और उस कांड के चलते प्रदेश के 22% मुस्लिमों का कांग्रेस से मोहभंग है।

क्या हुआ था मेरठ के हासिमपुरा मोहल्ले में?

हुआ था यूं कि अप्रैल 1987 में सांप्रदायिक दंगों के बाद, मेरठ में सांप्रदायिक रूप से आक्रोशित माहौल था; पीएसी को बुलाया गया था, लेकिन दंगों के थमने के बाद इसे वापस ले लिया गया। हालांकि, 19 मई के आसपास फिर से हिंसा भड़क उठी, जब आगजनी के कारण 10 लोग मारे गए, इस प्रकार सेना को फ्लैग मार्च करने के लिए बुलाया गया। सीआरपीएफ की सात कंपनियां दिन के दौरान शहर में पहुंचीं, जबकि पीएसी की 30 कंपनियां भेजी गयी थीं और अनिश्चितकालीन कर्फ्यू घोषित किया गया था। अगले दिन, मॉबर्स ने गुलमर्ग सिनेमा हॉल को जला दिया, और मरने वालों की संख्या 22 हो गई, साथ ही 75 घायल हो गए। शूट-एट-साईट के आदेश 20 मई 1987 को जारी किए गए।

22 मई 1987 की रात, प्लाटून कमांडर सुरिंदर पाल सिंह के नेतृत्व में 19 पीएसी के जवानों ने मेरठ के हाशिमपुर मुहल्ले में मुस्लिमों को जमा कर लिया। बूढ़े और बच्चों को बाद में अलग कर दिया गया और जाने दिया गया। वे कथित तौर पर उनमें से लगभग 40-45 लोगों को ले गए, जिनमें ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर और बुनकर थे, बजाय उन्हें पुलिस स्टेशन में ले जाने के, उन्हें एक ट्रक में मुराद नगर, गाजियाबाद जिले के ऊपरी गंगा नहर में ले गए। यहां कुछ को एक-एक करके गोली मारी गई और नहर में फेंक दिया गया। एक गोली पीएसी के एक सिपाही को भी घायल कर गई। कुछ के मारे जाने के बाद, रोड पर जा रहे वाहनों की हेडलाइट्स में देखे जाने के डर से पीएसी के जवान ज़िंदा लोगों को साथ लेकर उक्त स्थान से दूसरी जगह की तरफ चल दिए। उनमें से चार लोग, गोली से मृत होने का नाटक करके भाग गए और फिर तैरकर दूर पहुंचे। उनमें से एक ने मुराद नगर पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज की।

बचे हुए लोगों को ट्रक में गाजियाबाद के मकनपुर गाँव के पास हिंडन नदी नहर में ले जाया गया, गोली मारी गई और उनके शव नहर में फेंक दिए गए। इधर, फिर से गोली चलने में दो लोग बच गए और लिंक रोड पुलिस स्टेशन में दूसरी प्राथमिकी दर्ज की गई। जैसे ही घटना की खबर पूरे मीडिया में फैली, अल्पसंख्यक अधिकार संगठनों और मानवाधिकार संगठनों ने अपनी नाराजगी जताई। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 30 मई 1987 को तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के साथ मेरठ शहर और दंगा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया। इस घटना के बाद उत्तरप्रदेश के राजनीतिक इतिहास में ये बात दर्ज हो गई कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के आखिरी चुने हुए मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह होंगे।

इतना कुछ होने के बाद भी राजीव गांधी ने एक बड़ी गलती कर दी। उन्होंने वीर बहादुर सिंह को अगले एक साल तक नहीं हटाया, आखिर 24 जून, 1988 को वीर बहादुर सिंह की जगह नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बनाया गया। लेकिन तब तक प्रदेश में मुलायम सिंह यादव का उदय हो चुका था। प्रदेश का मुसलमान कांग्रेस से खिसककर मुलायम के पाले में चला गया था। मुलायम तब चार टर्म के विधायक थे। दूसरी तरफ कांशीराम ने 1984 में ही बहुजन समाज पार्टी बना ली थी। कांग्रेस से नाराज मुसलमानों ने अपना विकल्प मुलायम में ढूंढ लिया था तो दलित तबका भी कांशीराम की ओर चला गया। उधर केंद्र में मंडल की राजनीति शुरू हुई जिस से राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को भारी नुकसान हुआ। मंडल के प्रतिरोध में भाजपा ने कमंडल की राजनीति शुरू की तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का बचा खुचा सवर्ण जनाधार भी खत्म हो गया।

हाशिमपुरा हत्याकांड के बाद उत्तर प्रदेश में जितने भी विधायकी चुनाव हुए, कांग्रेस हर चुनाव के साथ सिकुड़ती गई। 1989 में कांग्रेस को पहली बार सौ से भी कम 94 सीट मिली। फिर तो पचास से भी कम सीटें कांग्रेस जीत पाई। 1991 में 46, 1993 में 28, 1996 में 33, 2002 में 25, 2007 में 28, 2012 में सिर्फ 22 सीट मिली। 2017 में तो 402 में से सिर्फ 7 सीटें जीत पाई और 2019 के लोकसभा चुनाव में लोकसभा की 80 में से सिर्फ 1 रायबरेली की सीट पर कांग्रेस विजयी हुई। अमेठी में खुद राहुल गांधी पराजित हुए।

और अब 2022 में कांग्रेस ऐसे चौराहे पर खड़ी थी जहां से या तो पार्टी उभरना चाहे या फिर उत्तरप्रदेश में एक लम्बे समय के लिए कांग्रेस की राजनीति खत्म होती देखती रहे। खासकर अमेठी लोकसभा में राहुल गांधी के पराजय को कम से कम गांधी परिवार ने गंभीरता से लिया। मई 2019 से लेकर दिसंबर 2021 तक प्रियंका गांधी ने उत्तरप्रदेश को प्राथमिकता दी। कार्यकर्ताओं को लगातार सुना, सामान्य जन से वार्तालाप किया, और महिलाओं पर ध्यान केंद्रित किया। ये भारतीय राजनीति का नया और अब तक का अछूता अध्याय है जिस में धर्म और जाति से परे मतदाताओं के 48% हिस्से को अपील करता है। प्रियंका गांधी का नारा “लड़की हूं, लड़ सकती हूं!” लोकप्रिय हुआ है। अगर ये रणनीति कारगर साबित हुई तो फिर आने वाले हरेक चुनाव में सभी पार्टियों को महिलागत राजनीति का अनुसरण करना पड़ेगा।

वैसे पूरे देश की तरह उत्तरप्रदेश में भी महिलाओं का चुनाव जीतने का दर काफी कम ही हैं। उत्तरप्रदेश के पिछले चार विधायकी चुनाव यानि 2002 से लेकर 2017 तक कुल मिलाकर 713 महिला चुनावी मैदान में उतरी थीं, उन में से सिर्फ 137 महिलाएं चुनावी जंग जीत पाई हैं। इस का मतलब है कि उत्तरप्रदेश में दो दशक से सिर्फ 19% महिला उम्मीदवार विधायकी चुनाव जीत पाती हैं। 2002 में कांग्रेस ने सब से ज्यादा 34 महिलाओं को टिकट दिया था जिस में से सिर्फ 2 जीत दर्ज कराने में कामयाब रही थीं।

उस चुनाव में कुल मिलाकर 184 महिलाएं चुनाव मैदान में थीं, जिन में से 31 विधायिका बनने में सफल रही थीं। ओवरऑल सफलता का दर 16.84% था लेकिन कांग्रेस का स्ट्राइक रेट सिर्फ 5.90% रहा था। समाजवादी पार्टी ने 29 महिलाओं को टिकट दिया था जिन में से 14 महिलाएं चुनाव जीत पाई थीं। 2007 में फिर से कांग्रेस ने सब से ज्यादा 37 महिलाओं को चुनावी मैदान में उतारा, मगर इस बार सिर्फ 1 महिला चुनावी जंग जीत पाई! सफलता का दर घटकर अब 2.80% हो गया था। 2007 में कुल 154 महिलाएं मैदान में थीं, जिनमें से 25 महिलाएं विधानसभा में प्रवेश कर गई थीं। ओवर ऑल महिलाओं की सफलता का दर 16.23% रहा था। बहुजन समाज पार्टी की 16 में से 12 महिलाएं विजयी हुई थीं। 2012 में सब से ज्यादा भाजपा ने 46 महिलाओं को टिकट दिया था जिन में से सिर्फ 8 महिलाएं चुनावी सागर पार कर पाई थीं। सब से ज्यादा, 21 महिला समाजवादी पार्टी से जीती थीं। सपा ने कुल 41 महिलाओं को टिकट दिया था। कुल मिलाकर 224 में से 39 महिला विधानसभा में जा पाई थीं। ओवर ऑल सफलता का दर पिछले चुनाव से 1 प्रतिशत बढ़कर 17.41% रहा था।

इसी प्रकार लोकसभा चुनाव पर नजर डालें तो 2004, 2009, 2014, और 2019 के लोकसभा चुनावों में कुल 153 महिलाएं चुनावी मैदान में थीं, उन में से 45 महिला सांसद बनने में सफल हुईं। इतना जरूर है कि जब विधायकी चुनाव होते हैं तो 19% महिला सफलता प्राप्त करती हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में महिलाओं की सफलता की दर करीब 10% बढ़कर 29.41% हो जाता है।

10 मार्च के नतीजे में अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की महिला राजनीति का परिणामलक्षी निचोड़ सकारात्मक रूप से बाहर आता है तो उस का असर ये होगा कि 2024 के बाद आने वाली नई लोकसभा में महिला आरक्षण बिल को पारित करने में सभी राजनीतिक दल एकजुट होंगे। देश के सर्वसमावेशी और समन्वययुक्त विकास के लिए महिला राजनीति का सफल होना अत्यंत आवश्यक है।

(वरिष्ठ पत्रकार सलीम हाफेजी का लेख।)

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