अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ विद्रोह की जब बात होती है, तो वर्तमान झारखंड के क्षेत्र में विद्रोह की पहली लड़ाई 1769 में ‘चुहाड़ विद्रोह’ से शुरू हुई थी। इसके बाद 1771 में तिलका मांझी के नेतृत्व में ‘हूल’, 1820-21 में पोटो हो के नेतृत्व में ‘हो विद्रोह’, 1831-32 में बुधु भगत, जोआ भगत और मदारा महतो के नेतृत्व में ‘कोल विद्रोह’, 1855 में सिद्धू-कान्हू के नेतृत्व में ‘संताल विद्रोह’ और 1895 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए ‘उलगुलान’ ने अंग्रेजों की नींद उड़ा दी थी।
इन विद्रोहों में जून का महीना झारखंड के लिए विशेष महत्व रखता है, क्योंकि 30 जून को ‘संताल विद्रोह’ और ‘हूल दिवस’ के रूप में याद किया जाता है। वहीं, बिरसा मुंडा को उनके शहादत दिवस के रूप में 9 जून को पूरा झारखंड उनकी शहादत को याद करता है। ‘उलगुलान’ के महानायक बिरसा मुंडा की स्मृति को शहादत दिवस इसलिए माना जाता है, क्योंकि अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर देकर जेल में ही मार डाला था। उनकी उम्र उस समय केवल 25 वर्ष थी। बता दें कि बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को मुंडा जनजाति के एक परिवार में हुआ था और उनकी मृत्यु 9 जून, 1900 को रांची जेल में हुई थी।

वहीं, 30 जून, 1855 को सिद्धू-कान्हू के नेतृत्व में अंग्रेजों और महाजनों के खिलाफ ‘हूल’ (विद्रोह) हुआ था, जिसमें करीब 20 हजार लोग मारे गए थे।
यह कहना गलत नहीं होगा कि अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ आदिवासियों और जनजातियों का संग्राम इतिहास की मुख्यधारा में हमेशा हाशिए पर रखा गया। अपने अधिकारों और संप्रभुता के लिए किया गया यह संघर्ष आज भी कई रूपों में जारी है। कोई दो राय नहीं कि बिरसा मुंडा के नेतृत्व में चला ‘उलगुलान’, जिसने अनेक लोकगाथाओं और किंवदंतियों को जन्म दिया, एक ऐसा आंदोलन था, जिसमें राजनीति, समाज और संस्कृति के सभी सूत्र आपस में गूंथे हुए थे।
ऐसे में बिरसा केवल आदिवासियों के महानायक नहीं हैं, बल्कि जुल्म के खिलाफ होने वाले उन तमाम उलगुलानों के प्रेरक हैं, जिनकी प्रासंगिकता निरंतर बनी रहेगी।

कुमार सुरेश सिंह (1935-2006), जिन्हें आमतौर पर के.एस. सिंह के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी थे। उन्होंने अपनी किताब ‘बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन’ में लिखा है कि “भूमि व्यवस्था के बिखराव और सांस्कृतिक जीवन की दोहरी चुनौतियों के प्रतिक्रिया स्वरूप 1789 से 1831-32 के बीच मुंडाओं के अनेक आंदोलन हुए और भूमि समस्या व पुराने मूल्यों की पुनर्स्थापना के फलस्वरूप सरदारों का आंदोलन भी छिड़ा।”
“मैं केवल देह नहीं
मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ
पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता
मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता
उलगुलान!
उलगुलान!!
उलगुलान!!!”
‘बिरसा मुंडा की याद में’ शीर्षक से यह कविता आदिवासी साहित्यकार हरीराम मीणा ने लिखी है। ‘उलगुलान’ यानी आदिवासियों का जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी का संघर्ष।
यह कहना गलत नहीं होगा कि 1895 में बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ जो लड़ाई छेड़ी, वह अंग्रेजी हुकूमत द्वारा लागू की गई जमींदारी प्रथा और राजस्व व्यवस्था के साथ-साथ जल-जंगल-जमीन की लड़ाई थी। यह केवल एक विद्रोह नहीं, बल्कि आदिवासी अस्मिता, स्वायत्तता और संस्कृति को बचाने का संग्राम था।
बिरसा ने सूदखोर महाजनों के खिलाफ भी जंग का ऐलान किया, जो कर्ज के बदले गांवों के दलितों, आदिवासियों और अन्य सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की जमीन हड़प लेते थे। यही वजह थी कि बिरसा के उलगुलान में समाज का हर वह तबका किसी न किसी रूप में शामिल था, जो अंग्रेजी हुकूमत की जमींदारी प्रथा और राजस्व व्यवस्था से प्रभावित था।

उल्लेखनीय है कि ‘उलगुलान’ के महानायक बिरसा मुंडा को हर साल 9 जून को न केवल झारखंड, बल्कि पूरे देश में याद किया जाता है। इस कड़ी में झारखंड के विभिन्न क्षेत्रों में बिरसा मुंडा को उनके 125वें स्मृति दिवस पर 9 जून को याद किया गया और उनके उलगुलान पर प्रकाश डाला गया। इस अवसर पर झारखंड उलगुलान संघ के तत्वावधान में बिरसा के उलगुलान की ऐतिहासिक बलिदानी भूमि डोम्बारी बुरु में स्थापित वीर बिरसा मुंडा की प्रतिमा के समक्ष एकदिवसीय उपवास कार्यक्रम संपन्न हुआ।
बता दें कि डोम्बारी बुरु, झारखंड के खूंटी जिले के मुरहू प्रखंड में स्थित एक पहाड़ी है। यह स्थान बिरसा मुंडा के नेतृत्व में आदिवासी आंदोलन के दौरान हुई एक हिंसक घटना का गवाह है। उपवास कार्यक्रम में सर्वप्रथम पाहनों की अगुवाई में पारंपरिक रीति-रिवाज के अनुसार पूजा-अर्चना के बाद पुष्पांजलि अर्पित की गई।
उसके बाद उपवास कार्यक्रम के उद्देश्य पर बोलते हुए झारखंड उलगुलान संघ के संयोजक अलेस्टेयर बोदरा ने कहा कि “जिस पेसा नियमावली संशोधन प्रारूप को जारी कर झारखंड सरकार पेसा कानून के ठोस क्रियान्वयन की बात कर रही है, वह आदिवासियों को बरगलाने का शिगूफा मात्र है।”
उन्होंने सरकार पर सवाल उठाते हुए कहा, “जब स्थानीय निकाय संवैधानिक रूप से राज्य सूची का विषय है, तब राज्य में पेसा कानून को बिना अधिनियमित किए ही नियमावली किस आधार पर बनाई जा रही है? इससे साफ जाहिर है कि राज्य सरकार सोची-समझी साजिश के तहत ऐसा कर रही है, ताकि न्यायिक विवाद का विषय बनाकर पेसा कानून को लागू न होने दिया जाए। इससे उद्योगपतियों को जमीन उपलब्ध कराने में आसानी होगी और बालू खनन का अवैध कारोबार निर्बाध रूप से चलता रहेगा। राज्य सरकार के इस षड्यंत्र से भविष्य में पांचवीं अनुसूची को भी खतरा है। जब हमारी संस्कृति, परंपरा और व्यवस्था तहस-नहस होगी, तो निश्चित रूप से बाहरी आबादी का प्रभाव बढ़ेगा। इसलिए झारखंड उलगुलान संघ दृढ़ संकल्पित है कि समावेशी या समग्र झारखंड पंचायत राज (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार सहित) अधिनियम का निर्माण राज्य सरकार करे, तब उसके अनुरूप नियमावली तैयार की जाए।”
समाजसेवी टॉम कावला ने कहा, “वीर बिरसा मुंडा का सपना पूरा करना है, तो ग्राम सभा को अधिकार संपन्न करने की लड़ाई लड़नी होगी। वीर बिरसा के उलगुलान का परिणाम सी.एन.टी. एक्ट है, तो हमारा उलगुलान संवैधानिक अधिकारों को बचाने का होगा।”
इस अवसर पर झारखंड जनाधिकार महासभा की एलिना होरो ने आह्वान करते हुए कहा, “लड़ाकू आदिवासी समुदाय जिस दिन लड़ाई छोड़ देगा, आदिवासी स्वतः समाप्त हो जाएगा। आज वीर बिरसा मुंडा के उलगुलान को याद करना चाहिए। बहुत कम उम्र में उन्होंने जो उलगुलान किया था, आज उसी तरह के उलगुलान की जरूरत है, तभी हमारा अस्तित्व और अस्मिता बचेगी।”
झारखंड आंदोलनकारी सुबोध पुर्ती ने कहा, “वर्तमान प्रदेश सरकार नाम की आबुआ सरकार है, काम ठगुवा का है। वोट मांगने के समय तरह-तरह के वादे किए गए, लेकिन सरकार बनने के बाद सारे वादे रद्दी की टोकरी में चले गए। अगर आदिवासियों के प्रति इस सरकार का यही रवैया रहा, तो अगली बार इसे भी रद्दी की टोकरी में डाल देना होगा।”
वहीं, बोकारो स्थित बिरसा चौक पर बिरसा मुंडा समिति द्वारा धरती आबा बिरसा मुंडा की स्मृति में उनकी पुण्यतिथि मनाई गई। इस दौरान आदिवासी रीति-रिवाज से पूजा-अर्चना के बाद पुष्पांजलि अर्पित की गई। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे योगो पूर्ती ने कहा, “धरती आबा बिरसा मुंडा ने स्वतंत्रता आंदोलन को तेज धार देने के साथ-साथ आदिवासी समाज के हितों की रक्षा के लिए सदैव संघर्ष किया। देश के लिए उनका योगदान हमेशा स्मरणीय रहेगा। यह दिन झारखंड के इतिहास में जल, जंगल और जमीन पर अपने परंपरागत अधिकारों को कायम रखने के लिए शहादती संघर्ष की याद दिलाता है।
‘अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज’ (अर्थात हमारे देश में हमारा शासन) का नारा देकर भारत के छोटानागपुर क्षेत्र के आदिवासी नेता भगवान बिरसा मुंडा ने अंग्रेजी हुकूमत के सामने कभी घुटने नहीं टेके, बल्कि जल, जंगल और जमीन के हक के लिए ‘उलगुलान’ अर्थात क्रांति का आह्वान किया।
झारखंड के शहीदों के हूल और उलगुलान से छोटानागपुर में सी.एन.टी. एक्ट 1908, संताल परगना में एस.पी.टी. एक्ट 1949 और कोल्हान में विल्किंसन रूल 1837 प्राप्त हुए। हूल और उलगुलान की परिभाषा अब बदल दी जा रही है। बिरसा के सपनों को साकार करने के लिए हमें एकजुट होकर फिर से हूलगुलान करने की जरूरत है।”
डोम्बारी बुरु में उपवास कार्यक्रम को पड़हा राजा फूलचंद टूटी, बरधा मुंडा, मंगा मुंडा, जुनास मुंडा, एतवा मुंडा, सुखरा बाखला, जोसेफ हस्सा, दासय मानकी और बिरसा तोपनो आदि ने संबोधित किया। वहीं, बोकारो के बिरसा चौक पर हो रहे कार्यक्रम को संजू समानता, अधिवक्ता रंजित गिरी, मनोज हेंब्रम, रूपलाल मांझी, हालदर महतो, देवला टुडू, चंद्रकांत पुर्ती, भोला मुंडा, आकाश समद, संजय कुमार, झरीलाल पात्रा, संतोष कुमार आदि ने संबोधित किया।
(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट)