भारत जैसे देशों के लिए एक समतामूलक, जनोन्मुखी, घरेलू बाजार आधारित, और राज्य द्वारा समर्थित विकास रणनीति के अलावा कोई विकल्प नहीं है। किसी बौद्धिक स्थिति को न केवल सही होना चाहिए, बल्कि सही कारणों से सही होना चाहिए। ट्रंप के आक्रामक टैरिफ थोपने का चौतरफा विरोध तो होना ही चाहिए, लेकिन यह विरोध गलत कारणों पर आधारित है। यह विरोध व्यापक धारणा पर टिका है कि मुक्त व्यापार सभी के लिए लाभकारी है और ट्रंप इससे विचलित होकर मूर्खता कर रहे हैं।
इस आलोचना का बड़ा हिस्सा रिकार्डो के समय से चले आ रहे मुक्त व्यापार के तर्क पर आधारित है, जो पूरी तरह गलत है। यह तर्क से के नियम पर टिका है, जो मानता है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में मांग की कमी कभी नहीं होती-यह पूरी तरह बेतुकी बात है। जैसे ही हम से के नियम से आगे बढ़ते हैं, पाते हैं कि व्यापार नीति, चाहे मुक्त व्यापार हो या टैरिफ आधारित, एक देश के उत्पादकों को दूसरों की कीमत पर बाजार हासिल करने के लिए बनाई जाती है। मुक्त व्यापार सभी को लाभ नहीं पहुँचाता, और ट्रंप को इसके लिए गलत ठहराना सही नहीं है।
प्रगतिशील खेमे में भी ट्रंप की नीति के खिलाफ अलग तर्क दिया जा रहा है। कहा जाता है कि अमेरिका में टैरिफ लगाना, जबकि वैश्विक दक्षिण में मुक्त व्यापार को बढ़ावा दिया जा रहा है, एक साम्राज्यवादी कार्रवाई है। यह दक्षिण से सामान के आयात को रोकता है और उत्तर की बेरोजगारी को दक्षिण में निर्यात करता है। यह तर्क इस परिस्थिति में सही हो सकता है, लेकिन यह साम्राज्यवाद को परिभाषित करने वाला मूल तत्व नहीं है।
औपनिवेशिक काल के अंत में, उदाहरण के लिए, वैश्विक दक्षिण में मुक्त व्यापार और ब्रिटेन में संरक्षणवाद साथ-साथ चल रहे थे। औपनिवेशिक काल में मुक्त व्यापार थोपकर भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाओं को औद्योगिक क्रांति के बाद ब्रिटेन के सस्ते तैयार माल के लिए खोला गया, जिससे इन देशों का विऔद्योगीकरण हुआ और पूंजीवाद से पहले के उनके उद्योग नष्ट हो गए।
यह स्थिति दोनों विश्वयुद्धों के बीच तक चली, जब लैटिन अमेरिका में महामंदी के संदर्भ में कई देशों ने टैरिफ लगाकर संरक्षणवादी नीतियों के साथ औद्योगीकरण शुरू किया। भारत में भी औपनिवेशिक प्रशासन को अनिच्छा से कुछ सामानों के लिए ऐसा करना पड़ा, जिससे स्थानीय बुर्जुआ को कुछ क्षेत्रों में विकास का अवसर मिला। संक्षेप में, साम्राज्यवाद हमेशा अपने केंद्र में संरक्षणवादी और उपनिवेशों में गैर-संरक्षणवादी नहीं होता। साम्राज्यवादी व्यापार नीति ठोस परिस्थितियों पर निर्भर करती है।
हाल के दशकों में, बड़ी पूंजी ने वैश्विक दक्षिण में सस्ते श्रम का लाभ उठाने के लिए वहाँ कारखाने स्थापित किए। इससे दक्षिण में रोजगार बढ़ा, खासकर अमेरिका से। वास्तव में, नवउदारवादी नीतियाँ भारत जैसे देशों को इस वादे पर बेची गईं कि पूंजी प्रवाह पर प्रतिबंध हटाने से रोजगार बढ़ेगा। अब ट्रंप इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं। उनका संरक्षणवाद न केवल रोजगार, विशेषकर चीन से, वापस लाने के लिए है, बल्कि व्यापार संतुलन को ठीक करने का भी प्रयास है। वर्तमान में अमेरिका विश्व का सबसे बड़ा कर्जदार देश बन चुका है। ट्रंप को उम्मीद है कि टैरिफ से यह स्थिति सुधरेगी।
लेकिन यहाँ एक अंतर्विरोध है, जिसे अक्सर नजरअंदाज किया जाता है। पूंजीवादी विश्व के नेता की विशेषता थी कि वह अपने प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में अधिक व्यापार घाटा बरकरार रखे, ताकि उनकी आकांक्षाओं को समायोजित कर सके और नेतृत्व बनाए रखे, जैसा कि प्रथम विश्वयुद्ध तक ब्रिटेन करता था। लेकिन ब्रिटेन कर्जदार नहीं, बल्कि देनदार देश था, खासकर उन देशों के लिए जिनसे उसका सबसे अधिक व्यापार घाटा था। यह इसलिए संभव था क्योंकि वह अपने उपनिवेशों का सारा निर्यात हड़प लेता था और उनका विऔद्योगीकरण करता था। अमेरिका और ब्रिटेन की स्थिति में यही बुनियादी अंतर है।
आज अमेरिका के लिए उपनिवेशों से ड्रेन और विऔद्योगीकरण के विकल्प उपलब्ध नहीं हैं, क्योंकि आधुनिक साम्राज्यवाद उपनिवेशों के बिना है। साथ ही, यदि उपनिवेश होते भी, तो विऔद्योगीकरण और ड्रेन अब पहले की तरह संभव नहीं है। रोजा लक्जमबर्ग ने इस ओर ध्यान आकर्षित किया था कि पूंजीवादी केंद्र संकट में फंसते जाएँगे। हालाँकि उनकी साम्राज्यवाद की समझ सीमित थी, लेकिन यह बात सही साबित हुई।
ट्रंप के टैरिफ युद्ध को उनका “पागलपन” या विश्व को हेय दृष्टि से देखने का परिणाम माना जाता है, लेकिन इसके कारण गहरे हैं। ये कारण परिपक्व पूंजीवाद के विकास के अंतर्विरोधों में निहित हैं। ट्रंप का टैरिफ अमेरिका में रोजगार बढ़ा सकता है और व्यापार घाटा कम कर सकता है, बशर्ते अन्य देश अमेरिका के सापेक्ष अपने टैरिफ न बढ़ाएँ।
लेकिन यदि अन्य देश भी टैरिफ बढ़ाते हैं, तो न केवल अमेरिका को कोई लाभ नहीं होगा, बल्कि पूरी पूंजीवादी दुनिया की स्थिति बदतर हो जाएगी। मजदूरों की स्थिति भी खराब होगी, क्योंकि कीमतें मजदूरी की तुलना में अधिक बढ़ेंगी, और आय का लाभ की ओर स्थानांतरण होगा। चूँकि मजदूरी लाभ से अधिक होती है, इससे उपभोग और मांग घटेगी, जिसके परिणामस्वरूप विश्व स्तर पर रोजगार और उत्पादन में कमी आएगी।
इसे राज्य द्वारा खर्च बढ़ाकर रोका जा सकता है, चाहे वह अमीरों पर कर बढ़ाकर हो या बजट घाटा बढ़ाकर। लेकिन ये दोनों उपाय वैश्विक वित्तीय पूंजी के लिए अभिशाप हैं। इसलिए, विश्व स्तर पर टैरिफ बढ़ने की लहर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को और बदतर बनाएगी। फिर भी, यह विश्व पूंजीवाद के अंतर्विरोधों की अभिव्यक्ति होगी, न कि ट्रंप के पागलपन की।
प्रश्न यह है कि ट्रंप की टैरिफ नीति का जवाब कैसे दिया जाए। यह नीति उस युग का अंत करती है, जब अमेरिकी गतिविधियाँ वैश्विक दक्षिण में स्थानांतरित की गई थीं। यह नवउदारवादी नीतियों के औपचारिक अंत की घोषणा है। भारत जैसे देशों के लिए अब रास्ता बदलने का समय है। यह रास्ता अर्थव्यवस्था की रक्षा और घरेलू बाजार को बढ़ाने से शुरू होना चाहिए।
केवल संरक्षणवाद पर्याप्त नहीं है; इसके साथ संपत्ति कर लगाकर राज्य का खर्च बढ़ाना चाहिए, ताकि जन कल्याण, कृषि और लघु उद्यमों का विकास हो और घरेलू बाजार विस्तारित हो। पूंजी पलायन को रोकने के लिए पूंजी नियंत्रण लागू करना होगा। संक्षेप में, ट्रंप के टैरिफ से भारत जैसे देशों को यह समझना चाहिए कि एक समतामूलक, जन कल्याण आधारित, घरेलू बाजार केंद्रित, और राज्य द्वारा समर्थित विकास रणनीति के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
(People’s Democracy से साभार, अनुवाद: लाल बहादुर सिंह)