सौ साल से ज़्यादा हो गए, जब मज़दूरों ने बेशुमार कुर्बानियाँ देकर काम के आठ घंटे का अधिकार हासिल किया था। आज दुनिया भर में नव उदारवादी आर्थिक नीतियाँ लागू होने के बाद जिस प्रकार आर्थिक संकट तेज़ी से बढ़ रहा है, उसके फलस्वरूप समूचे विश्व में श्रम कानूनों को धता बता दिया गया है तथा मज़दूरों से 10- 12 घंटे काम लेने का चलन अब आम हो गया है।
निजीकरण की नीतियों के कारण स्थिति अब और ख़राब हो गई है। भारत में तो अनेक कॉर्पोरेट क्षमिकों के साप्ताहिक अवकाश को भी समाप्त करने की बात करने लगे हैं। हमारे देश के अनेक कॉर्पोरेट यह भी कह रहे हैं,कि चीन के आर्थिक विकास के पीछे वहाँ के क्षमिकों का अधिक घंटे काम करना है, परन्तु सच्चाई यह है कि कम वेतन पर भारतीय श्रमिक विश्व में सर्वाधिक घंटे काम करते हैं।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने हाल ही में विश्व स्तर पर मज़दूरों के औसत काम के घंटों से संबंधित रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में 108 देशों में मज़दूरों के साप्ताहिक औसत काम के घंटों के आँकड़े दिए गए हैं। इन 108 देशों में से जिस देश में मज़दूरों के काम के घंटे सबसे ज़्यादा हैं, वह है “विश्वगुरु” भारत। यानी मोदी सरकार भारत को आर्थिक रूप से विश्वगुरु बनाने से कोसों दूर है, लेकिन उसने अपने आकाओं का एक लक्ष्य पूरा करते हुए भारत को मज़दूरों के शोषण में “विश्वगुरु” बनाने के लिए काफ़ी मेहनत की है और सफलता भी हासिल की है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, भारत के मज़दूर हर हफ़्ते औसतन 56 घंटे काम करते हैं, यदि इसमें से हर हफ़्ते की एक छुट्टी निकाल दी जाए तो मज़दूरों की दिहाड़ी 9 घंटों से भी ज़्यादा हो जाती है। अन्य रिपोर्टों के साथ मिलाकर देखा जाए, तो असल में मज़दूरों के काम के घंटे भारत में इससे भी ज़्यादा हैं, क्योंकि यहाँ अनौपचारिक क्षेत्र का एक काफ़ी बड़ा दायरा है, जिसके आँकड़ों की सही तरीक़े से रिपोर्टिंग नहीं होती।
ऐसे क्षेत्रों में 11-12 या इससे ज़्यादा घंटे काम करना बिल्कुल आम बात है। ना सिर्फ़ यहाँ काम के घंटे काफ़ी लंबे हैं, बल्कि वेतन भी बेहद कम है और साथ ही सामाजिक सुरक्षा का भी कोई प्रबंध नहीं है। भाजपा सरकार अपने नए श्रम क़ानूनों के ज़रिए पुराने श्रम क़ानूनों में मज़दूर विरोधी संशोधन करके मज़दूरों की स्थिति को और बदतर करने की कोशिश कर रही है,ताकि इन मज़दूरों के शोषण को बढ़ाकर अपने आकाओं के मुनाफ़े को और ज़्यादा बढ़ाया जा सके।
भारत में 1991 की आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद तेज़ गति से पूँजीवादी विकास हुआ है। भारत में उत्पादन शक्तियों का अपेक्षाकृत काफ़ी विकास हुआ है। उन्नत तकनीक के लिए अन्य देशों (ख़ासकर साम्राज्यवादी देशों) पर निर्भर रहने के बावजूद भारत के उद्योगों, सेवा क्षेत्र और कृषि क्षेत्र की मशीनरी ने पिछले 30 वर्षों में काफ़ी उन्नति की है, लेकिन तकनीक में यह प्रगति पूँजीपतियों की लागत घटाने यानी उनके मुनाफ़े की दर और कुल मुनाफ़ा बढ़ाने के ही उद्देश्य से की गई है।
इस उन्नत तकनीक से हुए विकास के तुलनात्मक बहुत कम लाभ ही जनता तक पहुँचा है। उन्नत तकनीक और बढ़े हुए उत्पादन ने ना तो लोगों को बेरोज़गारी, ग़रीबी और भुखमरी से निजात दिलाने का काम किया,बल्कि इसके विपरीत, मज़दूरों के काम के घंटों को वैश्विक स्तर पर चरम सीमा तक ले जाने के लिए इस तकनीक का उपयोग किया जा रहा है।
श्रम क़ानूनों में मज़दूर-विरोधी संशोधन, निजीकरण की नीतियों को बढ़ावा देना और जनता की सब्सिडियों में अधिक से अधिक कटौती करना, जो पहले कांग्रेस सरकार और अब भाजपा सरकार कर रही है, लोगों के जीवन स्तर को और नीचे धकेलने की कोशिश नहीं तो और क्या हैं? ये न्यूनतम अधिकार भी लोगों को अपने क़ुर्बानी भरे संघर्षों के कारण ही मिले हैं।
पूँजीवादी व्यवस्था के तहत पूँजीपति और उनके प्रतिनिधि हरसंभव कोशिश करते हैं,कि मज़दूरों का अधिक से अधिक शोषण किया जाए और कुल उत्पादन में मेहनतकश लोगों का हिस्सा कम से कम रखकर मुनाफ़ा बढ़ाया जाए। जनता के वर्ग और तबक़ा आधारित संगठन शासकों की इस साज़िश में बाधा बनते हैं और अपने एकजुट संघर्ष के बल पर इस व्यवस्था के भीतर कुछ सुधारों के ज़रिए जनता का जीवन स्तर थोड़ा ऊपर उठाने में सफल भी हो सकते हैं, लेकिन इसका सीधा मतलब होता है पूँजीपतियों के मुनाफ़े में कटौती। इसी कारण जनता की संगठित एकता शासकों की आँखों में खटकती रहती है।
भाजपा सरकार अपने पहले कार्यकाल से ही विभिन्न काले क़ानूनों के ज़रिए और मौजूदा क़ानूनों में जन-विरोधी संशोधन करके जनता के इन अधिकारों को ख़त्म करने की कोशिश कर रही है। कितने ही सामाजिक कार्यकर्ताओं और जनपक्षधर बुद्धिजीवियों को जनता की जायज़ माँगों और मुद्दों का समर्थन करने के कारण बिना उचित सुनवाई के जेल में कै़द किया गया है। इसके साथ ही भाजपा का मुख्य संगठन-आर.एस.एस. अपने काडरों और बड़े फंड के सहारे विभिन्न प्लेटफ़ार्मों पर जनपक्षधर जनवादी आंदोलन के ख़िलाफ़ झूठा प्रचार करने में लगा हुआ है, ताकि जनता में जनवादी संगठनों को बदनाम किया जा सके।
इस पूरी प्रक्रिया का लाभ पूँजीपतियों को ही होगा। जबकि जनता की संगठित एकता टूटने का सीधा मतलब होगा उनका पूँजीवादी शासकों के सामने निहत्थे होना और साथ ही उनके शोषण में इज़ाफा, लेकिन शासकों की इन कोशिशों के बावजूद जनवादी आंदोलन को ख़त्म करना संभव नहीं हो पाया है, बल्कि शोषण और दमन के बढ़ने के साथ यह आंदोलन और मज़बूत हुआ है, जिसका प्रमाण नागरिकता संशोधन क़ानून जैसे क़ानूनों का जनता द्वारा किया गया विरोध और पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से उठे कृषि क़ानून विरोधी आंदोलन में देखा गया।
इन सभी जनविरोधी और पूँजीपरस्त नीतियों की शुरुआत भाजपा ने नहीं की है, जैसा कि कुछ ‘चिंतक’ और शोषक वर्ग की अन्य पार्टियाँ साबित करने में जुटी रहती हैं। 1947 में भारत की सत्ता बड़े पूँजीपति वर्ग के हाथों में आई। इसका नेतृत्व सबसे पहले और सबसे लंबे समय तक कांग्रेस पार्टी ने सँभाला, जो लंबे समय तक भारत के बड़े (बाद में एकाधिकारी) पूँजीपति वर्ग के लिए पसंदीदा पार्टी बनी रही।
सत्ता में रहते हुए कांग्रेस ने भारत की मेहनतकश आबादी के शोषण, भारत की विभिन्न राष्ट्रीयताओं को ज़बरदस्ती साथ में बाँधे रखने, आदिवासियों पर अत्याचार,जाति व्यवस्था और महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति बनाए रखने के लिए हरसंभव कोशिश की,हालाँकि आज सत्ता हासिल करने के लिए ये जनता की आँखों में धूल झोंककर ख़ुद को जनपक्षधर साबित करने की कोशिश करते हुए इन सब बातों से इंकार कर रहे हैं।
भाजपा ने, जब वह भारत के एकाधिकारी पूँजीपति वर्ग के बड़े हिस्से की पसंदीदा पार्टी बनी, उसने कांग्रेस द्वारा किए गए कामों को और तेज़ी से आगे बढ़ाने का काम किया। स्पष्ट है कि 1947 से भारत के शासक वर्ग की नीतियाँ ये या वो पार्टी लागू कर रही है, लेकिन इन पार्टियों में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। साथ ही, जनता की हालत के लिए केवल ये पार्टियाँ ही नहीं, बल्कि वे उत्पादन संबंध जि़म्मेदार हैं, यानी पूँजीवादी उत्पादन संबंध, जिनकी रक्षा और सेवा के लिए ये पार्टियाँ सक्रिय रहती हैं।
वास्तव में इसका कारण यह है,कि आज ज़्यादातर ट्रेड यूनियनों भूमिका समाप्त हो गई है,ज़्यादातर ट्रेड यूनियनें संगठित क्षेत्र के मज़दूरों के बीच काम करती थीं। आज क़रीब 90-95 % मज़दूर असंगठित क्षेत्र में हैं, जिन्हें ठेके पर नियुक्त किया जाता है, जिनके ऊपर कोई श्रम कानून लागू नहीं होता तथा उनसे 10-12 घंटे आमतौर से काम लिया जाता है। इन असंगठित मजदूरों को संगठित करना आज मज़दूर संगठनों के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है। इनको संगठित करके नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ़ संघर्ष चलाने के अलावा अब कोई विकल्प शेष नहीं है।
(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक और टिप्पणीकार हैं)