न माया मिली न राम : ये कैसा विश्वगुरु भारत बना दिया हुजूरेआला?

देश के भीतर आजकल सत्तापक्ष और बीजेपी के जिम्मे ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की महिमा के बखान की महती जिम्मेदारी मिली हुई है। किसी भी देशवासी के मन में कोई शंका न रह जाए, साहब बहादुर के फैसले और चार दिन बाद युद्धविराम की घोषणा पर, इसलिए प्रत्येक राज्य में बीजेपी जमकर पसीना बहा रही है। भले ही हाथ कुछ न आये, लेकिन हवा ऐसी बना दो कि खाली पेट से बिलबिलाते आदमी का भी सीना गर्व से फूल जाए।

आज भी राजस्थान की धरती से पीएम मोदी ने जो दहाड़ लगाई है, उसे अगले कई सप्ताह तक देश सोशल मीडिया में देखकर चहकता रह सकता है। पीएम मोदी ने ऑपरेशन सिंदूर में सेना के पराक्रम को अपने नाम से भुनाना भी शुरू कर दिया है। सिंदूर की महिमा बताते हुए मोदी जी ने यहां तक कह दिया कि मोदी की नसों में लहू नहीं गर्म सिंदूर बह रहा है। सोशल मीडिया में चर्चा चल निकली है कि पीएम मोदी की स्क्रिप्ट सलीम-जावेद और कादर खान वाली कौन लिखता है, या ये सब उनके खुद का क्रिएटिव आईडिया है। 

पीएम मोदी यहीं तक नहीं रुके। उन्होंने यहां तक दावा किया, “पहले घर में घुसकर किया था वार, अब सीधा सीने पर किया प्रहार है। नया भारत यही है।” गेरुए टोपी में भाषण सुनने आये श्रोताओं के मुख से एक बार फिर मोदी-मोदी की गूंज काफी अर्से बाद सुनने को मिली है देश को। 

तो दूसरी तरफ, दुनिया को पाकिस्तान के आतंकवाद को पनाह देने और एक आतंकी राज्य के प्रति सहमत कराने के लिए माननीय सांसदों की 7 टीम बनाकर विश्व भ्रमण अभियान शुरू हो चुका है। यह अलग बात है कि पहलगाम आतंकी घटना के बाद और ऑपरेशन सिंदूर को शुरू करने और सीजफायर के बाद भी संसद के विशेष सत्र बुलाये जाने की विपक्ष की मांग को अभी भी अनसुना किया जा रहा। 

अब चूँकि इस अभियान में अधिकांश विपक्षी सांसदों को भी जोड़ लिया गया है, इसलिए सरकार ने स्वतः मान लिया है कि जैसा मोदी सरकार ने फैसला लिया, और आगे भी ले रही है, पर पूरा देश एकमत है। जो सवाल कर रहे हैं, उन्हें पाक की जुबान बोलने का आरोप लगवाकर हुक्का-पानी बंद किया जा सकता है। शायद यही कारण है कि अधिकांश वाम दलों तक ने इस पूरे घटनाचक्र में अपनी जुबान को बंद रखना ही उचित समझा है।

लेकिन ऐसा लगता है कि जो सवाल देश में विपक्ष, प्रेस और आम नागरिकों के लिए आज भी अनुत्तरित बना हुआ है, विदेशों में गये प्रतिनिधिमंडल के सामने बड़ी चुनौती होने जा रही है। इसकी एक मिसाल तो खुद विदेश मंत्री, एस. जयशंकर हैं, जो आजकल हॉलैंड की यात्रा पर हैं। 

पहलगाम आतंकी हमले और उसके बाद भारत की जवाबी कार्रवाई का औचित्य बताने के बाद जब हॉलैंड के न्यूज़ चैनल के एंकर ने शिवशंकर से प्रश्न किया कि क्या आपने उन आतंकियों को पकड़ने में सफलता हासिल कर ली, जिन्होंने उस बर्बर घटना को अंजाम दिया था? इसके जवाब में विदेश मंत्री का कहना था कि हमने उनकी पहचान कर ली है। 

किसी भी जिम्मेदार देश से यह अपेक्षित होता है कि वह सबसे पहले घटना को अंजाम देने वालों पर कार्यवाही करे, और वो पुख्ता सुबूत जुटाए और अपने देश ही नहीं पूरी दुनिया के सामने उजागर करे कि कैसे इस घटना के साथ दुश्मन देश का संबंध है। लेकिन आज पहलगाम की उस बर्बर घटना को पूरा एक महीना बीत चुका है, लेकिन उन चारों आतंकियों का कोई अता-पता तक नहीं, जबकि पाकिस्तानी आतंकी ठिकानों की सटीक पहचान कर हमने उन्हें ध्वस्त भी कर दिया, और अब देश में तिरंगा यात्रा और विदेशों में प्रतिनिधिमंडल भेजकर पाकिस्तान को आतंक की जननी बता रहे हैं।

बहुत संभव है कि हमारे प्रतिनिधिमंडल को इससे भी कठिन सवालों से जूझना पड़े, क्योंकि हमने अपना होमवर्क अब करना शुरू किया है, जिसे पहले करना था। एक तरफ हम अब यह कहने से नहीं चूक रहे कि अब भारत में किसी भी आतंकी घटना पर ऐसे ही पाकिस्तान में कार्रवाई होगी। अब यही न्यू नार्मल है। तो ऐसे में सवाल उठता है कि जब भारत स्वंय में इतना सक्षम है तो उसे दुनिया में घूम-घूमकर प्रचार की क्या जरूरत है? अच्छा होगा कि भारतीय प्रतिनिधिमंडल को ऐसे सवालों से दो-चार न होना पड़े। 

सवाल तो कांग्रेस की ओर से भी बेहद गंभीर पूछे जा रहे हैं, लेकिन मीडिया पर विपक्ष की कोई पकड़ न होने और गलती से कहीं देश विरोधी का ठप्पा न लगे, अधिकांश मीडियाकर्मी उन सवालों को पूछने से बच रहे हैं, जो देश के भविष्य के लिए बेहद अहम हैं। 

यह कोई असामान्य बात नहीं है कि इस 4 दिन तक दोनों देशों के द्वारा अपनी-अपनी सीमा के भीतर रहते हुए किये गये मिसाइल और ड्रोन हमलों और बाद में सीजफायर को लेकर अपनी-अपनी जीत के दावे किये जा रहे हैं। पाकिस्तान में तो सेना प्रमुख आसिम मुनीर को सर्वोच्च पद, फील्ड मार्शल से नवाजा जा चुका है। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि निकट भविष्य में पाकिस्तान एक बार फिर से सैन्य तानाशाही के रास्ते पर जा सकता है। एक पड़ोसी देश होने के नाते क्या हमने पाकिस्तान को अधिक लोकतांत्रिक बनाने में मदद की या सैन्य तानाशाही की ओर धकेलने में मदद की?

लेकिन इससे भी अहम और बेहद गंभीर प्रश्न आज शायद आजाद भारत में पहली बार देश के सामने है। आज भारत के साथ कितने देश खड़े हैं? क्या ऑपरेशन सिंदूर पर हमें इजराइल के अलावा किसी संप्रभु देश ने खुलकर समर्थन किया? क्या पाकिस्तान को आइएमएफ से मिलने वाली कर्ज की किश्त पर किसी एक भी देश ने हमारा साथ दिया?

क्या राष्ट्रपति ट्रंप जिन्होंने कल सातवीं बार फिर दोहराया है कि भारत-पाक संघर्ष में सीजफायर उन्होंने करवाया है, और वे दोनों देशों के बीच सुलह के लिए तैयार हैं, का भारतीय प्रधानमंत्री ने एक बार भी खंडन किया?

इन सबसे भी महत्वपूर्ण, भारत का कई दशकों से मजबूत चट्टान की तरह हर मौके-बेमौके पर खड़ा रहने वाला मित्र देश, रूस आज कहाँ खड़ा है? रुसी विदेश मंत्री लावरोव को क्यों लगता है कि भारत तेजी से अमेरिका की ओर खिसक रहा है, और भारत ने हथियारों के सौदे सहित अमेरिकी निर्देशों के तहत रुसी तेल के आयात में कमी करनी शुरू कर दी है। 

दूसरी ओर, रक्षा मामलों के विशेषज्ञ प्रवीण साहनी की मानें तो 2012 से पाकिस्तान को सामरिक तौर पर मदद करने वाले चीन ने 2019 के बाद से पाकिस्तान और उसकी सेना के साथ अपने रिश्तों को बड़े पैमाने पर प्रगाढ़ कर लिया है। 2019 के बालाकोट एयर स्ट्राइक और अगस्त 2020 में कश्मीर में धारा 370 के निरसन एवं लद्दाख को केंद्र शासित राज्य बना देने के भारत के फैसले के बाद से पाक-चीन रिश्ते एक नई ऊंचाई पर पहुंच चुके हैं। 

प्रवीण साहनी 2020 से ही देश को इस बारे में आगाह कर रहे थे, लेकिन आजकल इन बातों का कोई महत्व ही नहीं रहा। चीन लद्दाख में बड़े भूभाग पर कब्जा करके बैठा है या नहीं, इस बात की परवाह क्यों की जाये जब गोदी मीडिया सिर्फ वही दिखायेगा, जो पीएमओ से स्वीकृत होगा। 

आज पश्चिमी मीडिया कैसे ऑपरेशन सिंदूर का आकलन कर रही है, की किसे परवाह, यदि भाजपा-आरएसएस की संयुक्त ताकत मिलकर पूरे देश में यह बताये कि वायुसेना के हमले से दुश्मन देश के नेता और सैन्य अधिकारी घरों और तहखानों में दुबक गये थे। जबकि भूराजनैतिक मामलों के जानकार बता रहे हैं कि पूरा विश्व भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्ष को नहीं बल्कि पश्चिमी देशों और चीन के हथियारों की मारक क्षमता के आकलन में जुटा हुआ था। 7 मई को जो हुआ, उसके बाद राफेल बनाने वाली कंपनी डासौल्ट एविएशन और एविक चेंगडु एयरक्राफ्ट के शेयर के भावों में तेज गिरावट और उछाल का पूरा विश्व गवाह है।

भारतीय विदेश मंत्री, एस जयशंकर विदेश नीति के मामले में कितने माहिर हैं, इसकी मिसाल तो कुछ दिन पहले ही उन्होंने एक मीडिया इंटरव्यू में तब उजागर कर दी थी, जब उन्होंने बताया कि हमने ऑपरेशन सिंदूर से पहले ही पाक को बाखबर कर दिया था कि हमारी सेना सिर्फ लक्षित आतंकी ठिकानों पर हमला करेगी। कांग्रेस नेता राहुल गांधी अगर इसे मुद्दा बना रहे हैं, तो क्या गलत कर रहे हैं? यह प्रश्न तो वास्तव में बेहद गंभीर है कि मोदी सरकार की असल मंशा क्या थी? 

क्या ऑपरेशन सिंदूर के नाम पर हम सिर्फ यह संदेश देना चाहते थे कि हमने इस बार बालकोट की तुलना में पाकिस्तान में 9 आतंकी ठिकानों पर हमला किया, जबकि पाक प्रशासन आतंकियों को पहले ही इस बारे में चेता सकता था, क्योंकि उन्हें हमने खुद बताया था? क्या सरकार आश्वस्त थी कि बदले में पाकिस्तान कोई हरकत नहीं करेगा, लेकिन उसने की, जिसके जवाब में हमें ब्रह्मोस मिसाइल दागकर पाकिस्तान के कई हवाई अड्डों को नॉन-ऑपरेशनल बनाना पड़ा?

इस करारे हमले में पाकिस्तान के परमाणु हथियारों का बेस भी शामिल था, जिसे कोई क्षति तो नहीं पहुंची, लेकिन इस हमले ने पाकिस्तान को इतना अधिक हतप्रभ कर दिया कि वह परमाणु युद्ध की स्थिति में जाने वाला था, जिसे ऐन मौके पर अमेरिकी इंटेलिजेंस इनपुट ने भांपकर अमेरिकी विदेश मंत्री, मार्को रुबियो को खबर कर दी?

क्या इसीलिए डोनाल्ड ट्रंप बार-बार इस मामले को दोहराने से नहीं चूक रहे हैं? क्या इस बहाने अमेरिका पूरी दुनिया को यह बताने का प्रयास नहीं कर रहा कि भारत और पाकिस्तान जैसे मुल्क कभी भी छोटे-मोटे विवाद पर पूरी दुनिया को खतरे में डाल सकते हैं? 

क्या यह सही नहीं है कि इन्हीं पश्चिमी मुल्कों की बदौलत पाकिस्तान को आइएमएफ से कर्ज की किश्त भी हासिल हुई, और अब हर मौके-बेमौके पर ट्रंप उस पाकिस्तान को भारत के समकक्ष खड़ा करते जा रहे हैं, जिसे कल तक एक खत्म हो चुके देश की श्रेणी में रखा जाता था? 

मकसद यह नहीं होना चाहिए कि किसी घटना पर देश के क्षोभ और गुस्से का इस्तेमाल कर कुछ ऐसा कर दिया जाए जिससे देश को लगे कि अगले को अच्छा मजा चखा दिया है, और जनता झोली भर-भरकर चुनाव में वोट दे दे। किसी भी सशक्त देश की पहली प्राथमिकता यह होती है कि वह खुद को इतना सशक्त बना सके कि अगली बार इस तरह की कोई हरकत हो ही न पाए, और साथ ही मामले की गहराई से पड़ताल कर आतंकी घटना को अंजाम देने वाले अपराधियों को उनके अंजाम तक ही न पहुंचाया जाए, बल्कि उस देश को वैश्विक मंच पर पूरी तरह से अलग-थलग खड़ा किया जा सके। 

मुंबई हमले के बाद पूर्व प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया था कि उनके ऊपर जवाबी हमले के लिए भारी दबाव था, लेकिन उन्होंने चुनावी सफलता के बजाय पाकिस्तान को वैश्विक मंच पर बेनकाब करने को प्राथमिकता दी, और काफी हद तक भारत इसमें सफल भी रहा। आज स्थिति उलट चुकी है, क्योंकि भारत सरकार अब ऐसी जवाबी कार्यवाई को न्यू नार्मल बता रही है। 

अब जब पीएम मोदी खुलेआम इस दावे को दोहराते हैं तो पाकिस्तान के शासकों के लिए भी अपने अवाम और देश की हिफाजत के नाम पर हथियारों की नई खेप और सेना की भूमिका बढ़ जाती है। पिछले तीन दिनों से पाकिस्तानी उप-प्रधानमंत्री की चीन में मौजूदगी, और कल अफगानिस्तान के विदेश मंत्री के साथ तीनों देशों के विदेश मंत्रियों की तस्वीर सारी दुनिया ने देख ली है। एस जयशंकर जी तीन दिन पहले तक जिस तालिबान से भारत के पक्ष में समर्थन जुटा चुके थे, आज वह चीन की बेल्ट एंड रोड का अहम हिस्सा बनने जा रहा है। 

यह कैसा विश्वगुरु बना दिया है पीएम मोदी जी आपने, जिसमें एक भी पड़ोसी देश, ब्रिक्स, जी-7 या जी-20 देश हमारे साथ खड़े नजर नहीं आ रहे? एक घोषित आतंक के पर्याय देश को आज मित्र ट्रंप वही भाव दे रहे, जो भारत को दे रहे हैं? 

इस पूरी कवायद में पहलगाम आतंकी हमले में इंटेलिजेंस इनपुट में चूक, सुरक्षा व्यवस्था में भारी चूक का मामला तो न जाने कहाँ गुम हो गया। भले ही हमारी सेना के शौर्य और पराक्रम का बखान कर कोई पार्टी अपने लिए चुनावी फसल काटने का इंतजाम कर ले, लेकिन रणनीतिक दृष्टि से भारत को वैश्विक पटल पर अलग-थलग कर देने वाली यह कूटनीतिक-सामरिक रणनीति बेहद घातक साबित हो सकती है।    

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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