कार्ल मार्क्स ने एक बार कहा था कि सारी आलोचना धर्म की आलोचना से शुरू होनी चाहिए। इसी तरह मौजूदा आर्थिक संदर्भ में कहना चाहिए कि सारी आलोचना जीडीपी से शुरू होनी चाहिए। अवधारणा और आंकड़ों के स्तर पर यह संदिग्ध मापक शोषण की परिघटना को व्यक्त नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, यह मुगल सम्राट और उनके कुलीनतंत्र की आय को उनकी सेवाओं के लिए भुगतान मानता है और इसे देश के कुल उत्पादन में जोड़ देता है, इस तरह खुले आम डबल काउंटिंग करता है। नवउदारवाद इसे सही मानता है ताकि इस दौर की खुशनुमा तस्वीर पेश की जा सके।
उनका दावा है कि नव उदारवाद के तहत जीडीपी विकास दर उसके पहले के सरकार नियंत्रित अर्थव्यवस्था की तुलना में बहुत अधिक रही है, कि चार दशक पहले नव उदारवाद के पहले भारत की आर्थिक सफलता रंगहीन थी, इसने नवउदारवाद के तहत उड़ान भरी।
मैं एक सम्मेलन में था जहां IMF के तत्कालीन मुख्य प्रबंध निदेशक ने मेरे और एक सहयोगी द्वारा प्रस्तुत पेपर की आलोचना की और ठीक यही दावा किया बिना जीडीपी के आंकड़े रखे। उनका तर्क था कि 60s और 70s में भारत में केवल एम्बेसडर और फिएट कारों का एकरस दृश्य दिखता था। जबकि अब नवउदारवाद के बाद सड़कें एक से एक आकर्षक कारों से पट गई हैं।
सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री होने के बावजूद साफ है कि उन्हें यह स्पष्ट नहीं था कि लोककल्याण क्या चीज होती है।
लेकिन जीडीपी की वकालत करने वालों को गंभीरतापूर्वक लेना चाहिए। मामला यहां मात्र यह नहीं है कि जीडीपी से आय की असमानता और समाज कल्याण का पता नहीं लगता बल्कि यह भी है कि हम यह जानते हैं कि नवउदारवाद के तहत वितरण की स्थिति कितनी बदतर हुई है।
मामला यह है कि बड़ी आबादी क्या पहले से बदतर हालत में पहुंच गई है। मेरा तर्क है कि ऐसा ही है। नवउदारवादी दौर में विकास दर बहुत तेज होने का तर्क भी अतिश्योक्तिपूर्ण है। बहुत से शोध कर्ताओं ने तर्क दिया है कि इसमें overestimation है।
अरविंद सुब्रमण्यम जो पहले भारत सरकार के मुख्य सलाहकार थे ने कहा है कि 2011-12से 2016-17 तक कम से कम 2.5% वार्षिक का ओवरेस्टिमेशन है। यह गलत विधि पर आधारित था जो आज तक जारी है। वास्तविक अंतर केवल एक से डेढ़ प्रतिशत का है। आय की निर्विवाद असमानता के साथ जोड़कर देखा जाय तो बड़ी आबादी की आय में मामूली वृद्धि हुई होगी। इस तरह जीडीपी के पैमाने से भी जहां तक आम लोगों की बात है कोई बहुत बड़ी सफलता का यह नवउदारवादी दौर नहीं है।
आय की असमानता ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया है, और समतामूलक सोच को चोट पहुंचाई है। इसके अलावा लोगों की हालत बदतर होने का हमारे पास सीधा प्रमाण है। 20वीं सदी के शुरू में उपभोग जो प्रति व्यक्ति 200 किलो थी जो घटकर 1947 में 137, किलो हो गई औपनिवेशिक शासन के आखिरी 50 साल में 31%की गिरावट हुई। आजादी के बाद सरकार के दृढ़ प्रयास से 1991 में यह 186.2 किलोग्राम पहुंच गई, लेकिन अभी भी 20वीं शताब्दी के शुरूआत से यह कम थी।
2008 तक तो इसमें भारी गिरावट हुई लेकिन 2019,20 में यह 183.14 किलो पहुंच गया 2021 तक यह 186.7 किलो तक पहुंचा। नवउदारवादी दौर कहा जा सकता है कि लोक कल्याण के एक महत्वपूर्ण सूचकांक में गतिरोध का शिकार बन गया।
पांच किलो अनाज बंटने के कारण इसमें बढ़ोत्तरी हुई है लेकिन यह कोई आर्थिक सफलता नहीं मानी जा सकती।
अभी तक हमने औसत चित्र देखा है पूरी आबादी के लिए, इसके वितरण के बारे में अभी नहीं सोचा है। आय के वितरण की असमानता बढ़ने के कारण क्या प्रभाव पड़ा है उसका आकलन नहीं किया है। प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता के गतिरोध का मतलब है ऊपरी आय समूह का प्रत्यक्ष और परोक्ष औसत तो बढ़ रहा होगा लेकिन गरीब हिस्से की कीमत पर।
इसका अर्थ गरीब तबके को पोषण तत्वों की कमी हो रही होगी। इसके पक्ष में प्रमाण हैं।
70s में तत्कालीन योजना आयोग ने ग्रामीण क्षेत्र के लिए 2200 कैलोरी और शहरी क्षेत्र के लिए 2100 कैलोरी गरीबी रेखा की सीमा तय किया था ।
आइए ग्रामीण भारत पर विचार करें, गरीबी रेखा के नीचे 58% लोग थे 1994 में। 1973 में यह 56.4% थे अर्थात एक स्थिरता थी अनुपात में। अर्थात हालात बदतर नहीं हो रहे थे। इसके विपरीत 1991 से 2017 के बीच यह 58 से बढ़कर 80 हो गई।
2017के सर्वे के आंकड़े इतने निराशाजनक थे कि सरकार ने न सिर्फ आंकड़े वापस ले लिए बल्कि उसका गणना का तरीका भी बदल दिया। जिससे अब पहले के आंकड़ों से उसकी तुलना भी नहीं हो सकती।
इस तरह नवउदारवादी समर्थकों के दावे के विपरीत ग्रामीण गरीब आबादी बहुत बड़ी है। इस पर नवउदारवादी समर्थक कहते हैं कि अब लोग बच्चों को अच्छे स्कूल में भेज पा रहे हैं। अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठा पा रहे हैं, सेल फोन खरीद रहे हैं आदि। जो दिखाता है कि उनकी रुचियां बदल रही हैं। वे अब खाद्यान्न की परवाह नहीं करते बल्कि एक आधुनिक जीवन शैली चाहते हैं। इसलिए कम कैलोरी लेना उनकी अपनी स्वेच्छा है। जबकि उनका जीवन स्तर सुधरता जा रहा है। इस तर्क में यह झोल है, लोगों के उपभोग में कुछ चीजें ऐसी हैं जिन्हें वे घटा नहीं सकते जबकि कुछ चीजें बिना तात्कालिक दुष्प्रभाव के घटा सकते हैं।
भोजन दूसरी श्रेणी में है जबकि एक ऑपरेशन या कैंसर पहली में। जिन चीजों पर खर्च घट नहीं सकता न उसे टाला जा सकता उनमें भी निरंतर बदलाव हो रहा है विज्ञान के विकास के साथ नई चीजें आती जाती हैं। एक आदमी इसीलिए अब आधुनिक दवा और पुराने झाड़ फूंक के बीच चुनाव नहीं करता।
उसको आखिर यह समझ आ गई है कि उसे आधुनिक दवा के लिए जाना चाहिए। लेकिन इससे अगर उसके भोजन में कमी आती है तो उसकी स्थिति पहले से अच्छी नहीं मानी जा सकती। इसकी आशंका बढ़ती जाती है अगर उसके आधुनिक इलाज की कीमत बढ़ती जाती है। आधुनिक दवा तक उसकी पहुंच को उसके जीवन स्तर में सुधार माना जा सकता है। इस अर्थ में आज एक गरीब आदमी भी राजा हेनरी से आधुनिक जीवन की रहा है जो एंटी बायोटिक के अभाव में मर गए थे।
इस तरह एक आदमी की जीवन स्थिति में कुल सुधार हो रहा है कि नहीं यह इस पर निर्भर है कि ऐसी चीजों की व्यवस्था करते हुए जिन्हें कम नहीं किया जा सकता वह ऐसी चीजों को कम तो नहीं कर रहा है जिन्हें कम किया जा सकता है मसलन खाद्यान्न। खाद्यान्न एक मार्कर सामान है जिससे यह पता लगता है कि अगर उसमें कमी हो रही है तो उन्हें पूरा पोषण नहीं मिल रहा है और उनकी जीवन स्थिति में सुधार नहीं हो रहा है।
सरकारी नियंत्रण वाले दौर में आम लोगों की जीवन स्थिति में कुछ सुधार हुआ था जब वे अधिक भोजन भी पा रहे थे और आधुनिक जीवन की ओर भी बढ़ रहे थे। यह सुधार और अधिक हो सकता था और होना चाहिए लेकिन नवउदारवाद के दौर में पोषण घटा है इसलिए इसे बेहतर जीवन स्तर नहीं माना जा सकता। जीडीपी का आंकड़ा दोहराना इस बुनियादी सच्चाई को नहीं बदल सकता।
( पीपल्स डेमोक्रेसी से साभार, अनुवाद लाल बहादुर सिंह)