पहलगाम आतंकी हमले पर मोदी सरकार की पाकिस्तान के खिलाफ जवाबी कार्रवाई सवालों के घेरे में आ चुकी है। भारत के हालिया इतिहास में शायद यह पहला मौका है, जब वैश्विक मंचों पर भारत शायद ही कभी कुछ को इतना अकेला और असहाय महसूस किया हो। 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय जरूर ऐसा क्षण आया था, जिसकी टीस तबके प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरु झेल नहीं पाए थे, और आज भी हर भारतीय के दिलों में उस दौर की आधी-अधूरी ही सही एक कचोट दिल में धंसी हुई है।
लेकिन उसके बाद कभी भी भारत के सामने ऐसी चुनौती नहीं आई थी, बल्कि भारत ने एक लोकतांत्रिक देश होने के न सिर्फ सारे सुबूत पेश किए बल्कि अमेरिकी धमकी और जहाजी बेड़े की तैनाती के बावजूद पाकिस्तान को दो हिस्सों में बांट बांग्लादेश नाम से अलग देश बनाकर दम लिया था। यह सिलसिला कांग्रेस की सरकारों से लेकर भाजपा की अटल बिहारी सरकार तक कायम रहा, और मनमोहन सिंह सरकार के दौरान भी भारत एक तरफ तेजी से आर्थिक प्रगति तो साथ ही वैश्विक कूटनीतिक क्षेत्र में सम्मान का पात्र रहा।
भारत की प्रतिष्ठा इस बात में थी कि एक विकासशील और विभिन्न भाषा, संस्कृति और धर्मों वाला देश होते हुए भी भारतीय लोकतंत्र कई मायनों में दुनिया के सामने एक उदाहरण पेश करने में सफल था। लेकिन 2014 के बाद से ऐसा कुछ घटा, जिसने धीरे-धीरे भारत की छवि को विश्व पटल पर न सिर्फ बदलकर रख दिया, बल्कि आज स्थिति यह है कि तेज जीडीपी ग्रोथ का दावा करने के बावजूद लगभग सभी देश हमसे किनारा कर रहे हैं।
जिस ‘ऑपरेशन सिंदूर’ अभियान को मोदी सरकार अपने लिए एक ‘अहा मोमेंट’ बनाने के मंसूबे बांधे हुए थी, उसने उल्टा हमारे पुर्जे-पुर्जे बिखेर दिए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से 11वीं बार सीजफायर की पहल के दावे को पीएम मोदी एक बार भी भूल से ख़ारिज करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे। हद तो तब हो गई, जब क्रेमलिन ने भी इस बात की पुष्टि कर दी है कि ट्रंप-पुतिन फोन कॉल में यह जानकारी साझा की गई है।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद से पाकिस्तान को दुनियाभर से लानतें मिलने की जगह पैसों की बारिश होनी शुरू हो गई है। 9 मई को आइएमएफ की ओर से पाकिस्तान को 1 बिलियन डॉलर की सहायता राशि दी जा चुकी है। 3 जून को एशियन डेवलपमेंट बैंक 40 करोड़ डॉलर की राशि को अपनी मंजूरी दे चुका है और विश्व बैंक लगभग 40 अरब डॉलर की सहायता राशि को अंतिम रूप देने की तैयारी कर रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि अमीर मुल्क भी दक्षिण एशिया में पाकिस्तान की आर्थिक स्थिरता को जरुरी मान रहे हैं।
इसका तो मतबल यह है कि पाकिस्तान के दोनों हाथों में लड्डू हैं। चीन के बीआरआई प्रोजेक्ट के तहत पहले ही पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में अरबों डॉलर की परियोजनाओं पर काम जारी है। पाकिस्तान के पक्ष में चीन के हर तरीके से खड़े रहने के पीछे इस रणनीतिक करार की सबसे अहम भूमिका रही है। लेकिन रूस भी जब पाकिस्तान में बंद पड़े स्टील कारखाने के पुनर्निर्माण के लिए अपनी वचनबद्धता दुहरा चुका है, तो कहना पड़ेगा कि पाकिस्तान ने लेफ्ट-राईट-सेंटर हर तरफ से अपनी साख बढ़ाई है।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान पाकिस्तान में पश्चिमी मीडिया को जिस प्रकार से एक्सेस मिली, उसने भी इसमें बड़ी भूमिका अदा की है। इसके उलट, भारत में विदेशी मीडिया की तो बात ही छोड़िये, स्वतंत्र मीडिया की भूमिका किस कदर घट चुकी है, ने भी बदली ओपिनियन में अपनी भूमिका निभाई है।
जब सरकार को लगा कि भारत का नैरेटिव दुनिया तक नहीं पहुंच रहा है, तो तत्काल भारतीय सांसदों की 7 टीम बनाकर उन्हें विश्व भ्रमण के लिए रवाना कर दिया गया। लेकिन जिस प्रकार से दुनिया के देशों ने उनके लिए अपनी बात कहने के मौके प्रदान किये, उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि भारत की माचो छवि ने दुनिया पर निश्चित रूप से कुप्रभाव डाला है।
भारतीय प्रतिनिधिमंडल से जब भी यह सवाल किया गया कि पहलगाम आतंकी हमले के मुख्य आरोपी पकड़े गए या उसके पास पाकिस्तान की संलिप्तता के क्या पुख्ता सुबूत हैं, तो हर बार उसके जवाब में यही कहा गया कि हमारे पास पाकिस्तान के 35 वर्षों का इतिहास है। यह सवाल विदेश मंत्री, एस शिवशंकर से लेकर अमेरिका में शशि थरूर को अपने जर्नलिस्ट बेटे तक से सुनने को मिला है।
पाकिस्तान के खिलाफ जिस आरोप को लगाकर मोदी सरकार ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को अंजाम दिया, वैसे आरोप पाकिस्तान भी अपने देश में पेशावर ट्रेन अपहरण और बलोचिस्तान हमले में लगा रहा है। बड़ा सवाल है कि क्या दुनिया अब भारत को पाकिस्तान के समकक्ष देखने लगी है? उल्टा, क्या कनाडा सहित यूरोपीय देश यह मानने लगे हैं कि भारत की बढ़ती जीडीपी ग्रोथ ने हमें समय से पहले ही स्वेच्छाचारी आचरण की ओर धकेल दिया है?
कनाडा में खालिस्तानी चरमपंथी निज्झर की हत्या हो या अमेरिका में गुर पतवंत सिंह ‘पन्नू’ की हत्या के लिए किलर कांट्रेक्ट मामले में अदालती कार्यवाही हो, हाल के वर्षों में भारत के घर के भीतर घुस के मारने वाली इमेज ने भले ही देश में मोदी समर्थकों को आर्थिक बदहाली के बावजूद समर्थक के रूप में बांधे रखा हो, लेकिन पश्चिमी देश लगता है इसे पूरी तरह से नापसंद कर रहे हैं।
इसके अलावा, भारत में बढ़ते धार्मिक उन्माद और मुस्लिम आबादी के खिलाफ नित नए हमलों ने भी भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद को भारी क्षति पहुंचाई है। विश्व जनमत से यह बात छिपी नहीं है। उल्टा, वहां के जर्नल, रिसर्च समूह ही भारतीय लोकतंत्र, प्रेस फ्रीडम, आर्थिक असमानता सहित कुपोषण को लेकर रिपोर्ट प्रकाशित करते रहते हैं।
देश और संसद के सामने पूरी सच्चाई को बताये बिना मोदी सरकार यदि विदेशों में प्रतिनिधिमंडल भेजकर अपना पक्ष समझाने का प्रयास करेगी, तो उसका हश्र तो यही होना था। ऑपरेशन सिंदूर में भारत के कुल कितने विमान दुश्मन ने मार गिराए, के बारे में भारत में पूछने पर देशद्रोही की संज्ञा लेकिन वैश्विक मंचों पर तीनों सेना के प्रमुख की स्वीकारोक्ति न तो देश को एकजुट रखने की नीयत को बताती है, और न ही इससे हमारी विदेश और आंतरिक नीति में एकरूपता ही संभव हो सकती है।
यही कारण है कि कुवैत में जब हमारे प्रतिनिधिमंडल ने हमारा पक्ष रखा, तो उसके एक दिन बाद ही कुवैत सरकार ने पाकिस्तान के लिए 19 वर्षों से लागू वीजा प्रतिबंध को हटा दिया। क्या हमारे प्रतिनिधिमंडल के द्वारा पेश किये साक्ष्यों में कुवैत को कोई असंगतता नजर आई या बड़बोलापन जो उसने उसके जाते ही इतना बड़ा कदम उठा लिया? इन बातों पर देश को बेहद गंभीरता से विचार करना चाहिए, लेकिन क्या देश इसकी उम्मीद कर सकता है?
इतना ही नहीं, पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सहायक संस्थाओं में महत्वपूर्ण भूमिकाएं सौंपी गई हैं, जिसमें तालिबान प्रतिबंध समिति के अध्यक्ष (संकल्प 1988), आतंकवाद-रोधी समिति के उपाध्यक्ष (संकल्प 1373) सहित दो अनौपचारिक कार्य समूहों (प्रतिबंध और दस्तावेज़ीकरण) के सह-अध्यक्ष का पद सौंपा गया है।
अमेरिका गये प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कांग्रेस सांसद शशि थरूर कर रहे थे। लेकिन वहां भी अधिकांश समय भारतीय डायसपोरा के साथ गुफ्तगू और ANI को बाईट देने में गंवा दिया गया। भारत की नकल कर पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल रूस के विदेश मंत्री लावरोव से मुलाक़ात करने में सफल रहा, जबकि अमेरिका में बिलावल भुट्टो न सिर्फ संयुक्तराष्ट्र महासचिव, अंटोनियो गुटरेस से मुलाक़ात करने में सफल रहे, बल्कि अमेरिका की वैश्विक मीडिया के साथ भुट्टो जिस प्रकार से सवालों का जवाब दे रहे हैं, वह भारत के लिए बेहद शोचनीय है।
लेकिन अपने देश में शायद यह मान लिया गया है कि यदि देश के सामने दुनिया में क्या चल रहा है, को छुपा दिया जाये तो भारतीय मतदाताओं को अपनी धुन पर नचाते रहा जा सकता है। यह बिल्कुल शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर डालने जैसा क्षण है।
आज पीएम मोदी, कश्मीर में भारत के पहले केबल-स्टेड रेल ब्रिज अंजी पुल और दुनिया के सबसे ऊंचे रेलवे आर्च ब्रिज चेनाब पुल का उद्घाटन कर रहे थे। पहलगाम आतंकी हमले के बाद पीएम मोदी का यह पहला कश्मीर दौरा था, जबकि पहलगाम और ऑपरेशन सिंदूर को लेकर वे बिहार, गुजरात, राजस्थान, पंजाब, बंगाल तथा मध्य प्रदेश का दौरा कर चुके थे। इस उद्घाटन के मौके पर कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने बताया है कि, “यह प्रोजेक्ट भारत सरकार की निरंतरता का परिणाम है, जिसकी आधारशिला मार्च 1995 में नरसिम्हा राव सरकार ने रखी थी और मार्च 2002 में पीएम अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में इस परियोजना को राष्ट्रीय परियोजना का दर्जा दिया गया था।
2014 से पहले ही बारामूला से लेकर श्रीनगर, श्रीनगर से लेकर अनंतनाग, अनंतनाग से काजीगुंड और काजीगुंड से लेकर बनिहाल तक इस योजना का उद्घाटन किया जा चुका था। कुल 272 किलोमीटर में से 160 किलोमीटर ट्रैक का उद्घाटन 2014 से पहले हो गया था… चिनाब पुल एक प्रतिष्ठित पुल है। हम भारतीय रेल को बधाई देना चाहते हैं… हम बधाई देते हैं, जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए यह बहुत महत्व रखता है और भारतीय रेल के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि है… लेकिन कांग्रेस पार्टी प्रधानमंत्री को याद दिलाना चाहती है कि उन्हें शासन में निरंतरता को स्वीकारना चाहिए… पहले की सरकार द्वारा जो काम किए गए हैं, प्रधानमंत्री उनका श्रेय लेने में बहुत आगे हैं। इसमें उनका कोई मुकाबला नहीं है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)