Wednesday, April 24, 2024

नोएडा स्थित बाल गृह साईं कृपा में छापे के दौरान अधिकारियों पर बच्चे-बच्चियों के साथ बदसलूकी का आरोप

जनचौक ब्यूरो

नोएडा। जिस तरह से शेल्टर होम का काला सच दुनिया के सामने आया है, उसके बाद देश के सारे शेल्टर होम्स में चल रहे सोशल ऑडिट इस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत जैसे बन गए हैं। लेकिन ये ऑडिट क्या सही तरीके से किए जा रहे हैं क्या सही और प्रशिक्षित लोग कर रहे हैं। क्या ऐसे ऑडिट के वक्त बच्चों के साथ संवेदनशीलता और नरमी से पेश नहीं आया जा सकता । ये सवाल इस लिए उठ रहे हैं क्योंकि हाल ही में नोएडा में राज्य की बाल महिला आयोग की टीम ने जो छापे मारे हैं। उसमें एक बालगृह साईंकृपा ने इस छापे के दौरान टीम के व्यवहार पर संगीन इल्जाम लगा दिए हैं।

ऐसे में ऑडिट की पूरी प्रक्रिया ही सवाल के घेरे में है। ये छापेमारी यूपी की बाल महिला आयोग की टीम ने की। जिसमें उत्तर प्रदेश की महिला आयोग की अध्यक्ष सिटी मजिस्ट्रेट,एसएसपी, डीपीओ भी मौजूद थे। आरोप है कि इस टीम ने बच्चों के सामने गंदी गालियों और अपशब्दों का इस्तेमाल किया। बच्चों को धमकाया गया और तेज़ आवाज़ में बात की गई -चार सितंबर को बच्चियों के कमरों में छापा करने वाली टीम में एक भी महिला पुलिस अधिकारी नहीं थी -बच्चियों के सामने ‘धंधा’ शब्द का बार-बार इस्तेमाल किया गया। और उनसे कहा गया कि वो ‘धंधा’ करती हैं। 

साईं कृपा पर ये छापा 4 और 5 सितंबर को डाला गया। इस छापे के दौरान पुलिस के व्यवहार को लेकर कई तरह की शिकायतें सामने आ रही हैं। और इसको लेकर एनजीओ ने कड़ा एतराज जाहिर किया है। उसके पदाधिकारियों ने बृहस्पतिवार को इस मसले पर एक प्रेस कांफ्रेस की।

उन्होंने बताया कि छापा दल चीजों को देखने और समझने की जगह शायद पहले ही किसी नतीजे पर पहुंच चुका था और उसी के मुताबिक पूरा व्यवहार कर रहा था। यहां तक कि दल में शामिल पुलिसकर्मी गाली-गलौच की भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे। पदाधिकारियों ने बताया कि वो इस बात को मान कर चल रहे थे कि बच्चियां वैश्यागिरी में शामिल हैं। जबकि सच्चाई ये है कि एनजीओ की सभी बच्चियां स्कूल और कालेज जाती हैं। सभी लड़के-लड़कियों के लिए अच्छा भोजन, कपड़ा और रहन-सहन की दूसरी सुविधाएं उपलब्ध हैं।

और सब देखने में भी स्वस्थ और भले-चंगे हैं। पदाधिकारियों का कहना है कि इसको किसी सकारात्मक नजरिये से देखने के बजाय वो इस पर भी अंगुली उठा रहे थे। और इस तरह से बात कर रहे थे जैसे उनका स्वस्थ होना और अच्छी पढ़ाई करना ही गुनाह हो। आमतौर पर ऐसा होता है कि अधिकारी एनजीओ में बच्चों की बेहतर देखभाल न होने पर नाराज होते हैं लेकिन यहां अच्छी देखभाल ही उनकी नाराजगी का कारण था। इस कड़ी में वो अपमानजनक और व्यंग्यात्मक टिप्पणियां भी करते देखे गए। 

इस पूरे मामले में मीडिया का रवैया भी एनजीओ की नाराजगी का एक कारण है। जो बगैर मामले की जांच किए और दूसरे पक्ष से उसकी प्रतिक्रिया लिए खबरें चलाने लगा। गौरतलब है कि इस रेड के दौरान शराब की एक खाली बोतल मिल गयी थी और फिर उसी को लेकर इस तरह से पेश किया जाने लगा जैसे पूरे एनजीओ में नशे का बड़े स्तर पर इस्तेमाल हो रहा हो। जबकि एनजीओ का कहना है कि बच्चों के किसी प्रोजेक्ट में एक बोतल की जरूरत थी। जिस मकसद से उसे लाया गया था और फिर अच्छी दिखने पर किसी बच्चे ने उसको रख ली थी। लेकिन अब उसी को इस रूप में पेश किया जा रहा है जैसे बड़े स्तर पर बच्चे शराबखोरी कर रहे हों।

एनजीओ ने कहा कि पुलिस दल ने जिस तरह से जांच के दौरान बच्चों और एनजीओ के पदाधिकारियों के साथ व्यवहार किया वो स्तब्ध करने वाला था। उसका कहना था कि वो इस तरह की किसी भी जांच के लिए हमेशा तैयार है और सरकार द्वारा इस तरह की समीक्षा का भी स्वागत करता है। लेकिन उसके नाम पर किए जा रहे गलत व्यवहार को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता है।

एनजीओ का कहना है कि 4 सितंबर को अधिकारी पुरुष पुलिसवर्दीधारियों के साथ आए और पुलिसकर्मी सीधे बच्चियों के बेडरूम में घुस गए। और उन्होंने उनकी आल्मीरा से लेकर दूसरे निजी उपयोग के सामानों की जांच शुरू कर दी। उनके साथ उस दिन एक भी महिला पुलिसकर्मी मौजूद नहीं थी। उसके अगले दिन 5 सितंबर 2018 को वो कुछ महिला पुलिसकर्मियों के साथ आए लेकिन उनको बाहर ही खड़ा कर दिया गया और सारी जांचों को पुरुष कर्मियों ने ही अंजाम दिया।

इस दौरान एक बच्चे के पास से एक लैपटाप और मोबाइल बरामद हुआ जिसको लेकर अधिकारियों ने सवाल खड़ा कर दिया। एनजीओ का कहना है कि पढ़ने वाले कुछ बच्चों को उनकी जरूरत के मुताबिक लैपटाप और मोबाइल दिए गए हैं। मोबाइल को उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए मुहैया कराया गया है।

तलाशी में परफ्यूम और महंगी घड़ियां मिलने को भी उन्होंने दूसरे नजरिये से पेश किया। जबकि उसके बारे में एनजीओ का कहना है कि एनजीओ के डोनर कई बार अपने सगे संबंधियों के किसी जन्मदिन, शादी की सालगिरह या फिर इसी तरह के किसी मौके पर दूसरी सामग्रियों के साथ इस तरह के सामान दे जाते हैं। लिहाजा उन्हें किसी गलत रूप में चिन्हित करना किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता है। और कई बार बच्चों की इच्छा के चलते बड़े ब्रांडों की स्थानीय नकली घड़ियों को उन्हें खरीद कर दे दिया जाता है। जिससे वो संतुष्ट हो जाएं। और उनकी इच्छा भी पूरी हो जाए।

इस मामले में सबसे बेतुका और गैरजरूरी पक्ष पुलिसकर्मियों का लड़कियों के साथ व्यवहार रहा। और वैश्यागिरी को लेकर जिस तरह से उनसे सवाल पूछे गए उसे किसी भी रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता है। तथ्यों की जांच करना एक बात है लेकिन उसके लिए जरूरी तरीके और प्रोटोकाल आवश्यक शर्त बन जाते हैं। सरकार को भी चाहिए कि इस तरह के काम में लगाए जाने वालों को प्रशिक्षण देकर उन्हें उसके लायक बनाया जाए। और पूछताछ के तमाम अच्छे और बुरे तरीकों के नतीजों के बारे में बताया जाए। उनका कहना है कि अधिकारी बेहद गाली-गलौच की भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे जिससे बच्चे काफी डर गए थे।

आरोप ये भी है कि इस सरकारी टीम के साथ बीजेपी की महिला ईकाई के कार्यकर्ता भी थीं,जो नारेबाजी कर रही थीं। सवाल सिर्फ इतना सा है कि क्या समाज,क्या सरकार बच्चों से कैसा सलूक करना चाहिए, ये हम भूल चूके हैं। जिन बच्चों के नाम पर ये सोशल ऑडिट हो रहे हैं, क्या वाकई उनकी फिक्र इस सब के केंद्र में है। बच्चों के साथ बदतमीजीती का लाईसेंस हमें किसने दे दिया है।

हालांकि राज्य महिला आयोग की उपाध्यक्ष सुषमा सिंह का कहना है कि छापे में कोई ऐसी संदिग्ध चीज नहीं मिली है जिससे कोई बड़े शक की गुंजाइश हो। लेकिन लक्जरी और महंगे सामानों का पाया जाना जरूर कई सवाल खड़े करता है। उनके डोनरों से मिलकर इसकी भी सच्चाई का पता लगाना होगा।

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