नाम बदलकर इतिहास मिटाने का टैलेंट : कहां ग़ायब हो गया ‘बड़ शाह बुला चौक’ ? 

दिल्ली। ”इतिहास की किताब में ग़लती से अगर एक वरक़ ( पन्ना ) पलट जाए तो सदियां बदल जाती हैं” इतिहास की जानकारी रखने वाले लोगों को अक्सर ये लाइन कहते सुना होगा। कुछ लोग इसे गंभीरता से कहते हैं तो कोई कह कर ठहाका लगा जाता है।लेकिन मौजूदा दौर में इतिहास को लेकर जो राजनीति चल रही है उसे देखकर ठहाका लगाया जाए या चिंता की गहरी खाई में डूब जाएं?

स्कूल की किताबों से लेकर राजनेताओं के बयानों तक में इतिहास का अपनी-अपनी सुविधानुसार जिस तरह से इस्तेमाल किया गया  उसे देखकर लग रहा है कि इतिहास की आत्मा आज बिलख रही होगी।

एक छोटा सा सवाल है कि क्या किसी शिलापट्ट को बदल देने से इतिहास बदल जाता है ? और इतिहास क्या था ये कौन बताने की क़ाबलियत रखता है? इतिहासकार या राजनीति ?  ताज़ा मामला राजस्थान से आया है जहां राजस्थान की डिप्टी सीएम ने कहा है कि- ”हल्दीघाटी के शिलालेख में लिखा था कि महाराणा प्रताप यह युद्ध हार गए थे। मैं उस समय वहां से सांसद थी, मैंने उस शिलालेख को बदलवाया और आज वहां लिखा है कि महाराणा प्रताप युद्ध जीते थे। अपने कार्यकाल में यह मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि थी” 

जिस राजस्थान में NCRB(National Crime Records Bureau) की 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक देश में सबसे ज़्यादा रेप के मामले सामने आए, वहां की डिप्टी सीएम के लिए शिलापट्ट पर इतिहास बदलवाना या ”सही” करवाना उनके कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि है। 

महिला सुरक्षा पर इतिहास भारी?

महिला सुरक्षा, महंगाई और रोज़गार तो ऐसे मुद्दे हैं जिन पर बात करना मौजूदा दौर में अपराध बन गया है, तो ऐसे में ‘बाज़ार’ में सबसे ज़्यादा क्या चल रहा है? नफ़रत ? इतिहास में राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाइयों को क्यों मज़हबी मान, मर्यादा के साथ जोड़ा जाता रहा है? क्यों मुग़ल इतिहास को हर जगह से साफ किया जा रहा है या मिटा दिया जा रहा है? 

हाल ही में ख़बर आई थी कि NCERT ( National Council of Educational Research and Training)  की सातवीं क्लास की सोशल साइंस की नई किताबों में मुग़लों और दिल्ली सल्तनत का ज़िक्र नहीं होगा। आगे की क्लास में फिर बच्चे कैसे ‘कुदा दिए गए’  इतिहास को समझ पाएंगे ये समझ से परे की बात है।

कुछ समय पहले हमने एक रिपोर्ट की थी कि दिल्ली से सूफियों की दरगाहों को रातों-रात ग़ायब कर दिया गया ना को कोई रोकने वाला, ना कोई टोकने वाला सदियों पुरानी कई सूफियों की मज़ार ग़ायब हो चुकी हैं।

‘न्यू इंडिया’ की ब्रांड न्यू हिस्ट्री !

तो क्या ऐसे ‘न्यू इंडिया’ अपनी ‘ब्रांड न्यू हिस्ट्री’ ( Brand New History ) रच रहा है? ये सब होता देख हमें कुछ समय पहले की गई दिल्ली- 6 ( पुरानी दिल्ली ) की एक हेरिटेज वॉक याद आ गई। जिसमें एक चौक का नाम इतनी सफाई से ग़ायब किया गया कि हैरत होती है। लेकिन आज भी उस चौक का नाम वहां की पुरानी दुकानों के एड्रेस के तौर पर दुकान पर चस्पा बोर्ड पर नज़र आता है। वहीं जब हमने कुछ किताबों को खंगाला तो उनमें भी उस चौक के बारे में ऐतिहासिक जानकारी मिल गई।  
ये चौक है ‘बड़ शाह बुला चौक’, जो जामा मस्जिद के पीछे नई सड़क पर है इसी चौक के एक हाथ पर है मशहूर नागौरी हवले वालों  की क़रीब एक सदी पुरानी दुकान तो वहीं दूसरे हाथ से निकल कर जाती एक गली में मिल जाते हैं लोटन के छोले गुलचे जिसकी लज़्ज़त के शौकीन आम लोगों के साथ ही ख़ास सेलिब्रिटी तक हैं। इस चौक से एक रास्ता चावड़ी बाज़ार की तरफ जाता। 

बड़ शाह बुला चौक से नज़र आती जामा मस्जिद

इस चौक का ज़िक्र मिर्ज़ा ग़ालिब अपने ख़तों में करते हैं जिसके बारे में आगे बात होगी।  ग़ालिब के ख़त 1857 के विद्रोह और उसके बाद के दौर को समझने के लिए अहम दस्तावेज़ माने जा सकते हैं। जिनका इस्तेमाल कर कई राइटर आज बेस्ट सेलर किताबें छाप रहे हैं।

ग़ालिब के ख़तों में 1857 के विद्रोह– बात जब 1857 के विद्रोह की हो रही है तो ग़ालिब की किताब ‘दस्तंबू, 1857 की डायरी’  पर भी एक नज़र दौड़ाई जा सकती है, फारसी लफ़्ज़ ‘दस्तंबू’ का मतलब होता है फूलों को गुच्छा मतलब बुके ( Bouquet ) इस किताब में ग़ालिब उस मौसम का ज़िक्र कर रहे हैं जब 1857 का विद्रोह छिड़ा था ” यह मई-जून का महीना है। गर्मी इतनी है कि सहन नहीं होती। सूर्य ‘मिथुन’ के गृह में प्रवेश कर गया है और गर्मी तेज़ी से बढ़ रही है। ऐसा लगता है कि सूर्य की गर्मी स्वयं उसे निगल लेगी। ठंडे तथा सायेदार स्थान पर रहने वाले व्यक्ति धूप में भस्म हो रहे हैं और अपनी रातें दिन भर के तपे हुए पत्थरों पर बिता रहे हैं। अगर अस्पन्दयर (सिकंदर) भी इस लड़ाई में होता तो अपनी बहादुरी के बावजूद साहस खो बैठता। रुस्तम ने अगर इस दास्तान को सुना होता तो उसका कलेजा फट जाता”।

वो इसी किताब में आगे लिखते हैं कि ”11 मई से 14 सितबंर तक चार महीने और चार दिन होते हैं। सोमवार को दिल्ली पर बाग़ियों का क़ब्ज़ा हुआ था और सोमवार को ही उनसे दिल्ली खाली करा ली गई। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि शहर का छीना जाना और उस पर दोबारा अधिकार पाना एक ही दिन की बात है। संक्षेप में यह कि विजयी अंग्रेज़ों ने दुश्मन बाग़ियों को, जहां कहीं रास्ते में पाया, जान से मार डाला”

”दो-तीन दिन तक कश्मीरी गेट से लेकर लाल क़िले के चौहारे तक घमासान युद्ध चलता रहा। दिल्ली गेट, तुर्कमान गेट और कश्मीरी गेट भारतीय सेना के अधीन था। मुझ जैसे हृदयहीन व्यक्ति का शोकाकुल घर कश्मीरी गेट तथा दिल्ली गेट के बीच स्थित है। यद्यपि इन दोनों दरवाज़ों की दूरी मेरे मकान से बराबर के फ़ासले पर है, परन्तु मेरी गली के दरवाज़ों को बंद कर दिया गया। फिर भी समय-समय पर हम हिम्मत के साथ दरवाज़ों को खोलते और खाने-पीने का सामान ले आते”

सोचिए ज़रा जिस कश्मीरी गेट से लाल क़िला महज़ 15 से 20 मिनट की दूरी पर स्थित है वहां तक पहुंचने के लिए अंग्रेज़ों को दो से तीन दिन लग गए। स्वतंत्रता की उस पहली लड़ाई में जिन्हें बाग़ी कहा जा रहा था उन्होंने अपनी जान लगा दी थी, इस विद्रोह की ख़ासियत थी कि हिन्दू-मुसलमान दोनों ही मिलकर लड़े थे, और ये जज़्बा अंग्रेज़ों के लिए सबसे बड़ा ‘सबक’ साबित हुआ। अंग्रेज़ों ने बहुत ही चालाकी से इस विद्रोह के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराया और लाल क़िले से जुड़े हर शख़्स को मौत के घाट उतार दिया। विलियम डैलरिंपल की किताब ‘आख़िरी मुग़ल, एक साम्राज्य का पतन, दिल्ली 1857’ में एक ज़िक्र है कि-
मेजर आयरलैंड ने लिखा ” आख़िरकार नवंबर के अंत में सिर्फ़ हिंदुओं को वापस आने की इजाज़त दी गई। अभी कोई मुसलमान दरवाज़ों के अंदर बग़ैर इजाज़तनामे के दाख़िल नहीं हो सकता था। उनके घरों पर निशान लगा दिए गए थे और उन्हें वापस आने से पहले अपनी वफादारी के सबूत देने होते थे”

मुसलमानों से उनकी वफादारी के सबूत मांगे जा रहे थे, 1857 के विद्रोह से जुड़ी ये तारीख़ किसी किस्से-कहानी का हिस्सा नहीं बल्कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ पहली बग़ावत के अंजाम थे जिसे शाहजहानाबाद के मुसलमान और उनके हमदर्दों को झेलने पड़े। 
”शाही ख़ानदान के 29 बेटों को मार डाला गया” सबसे तकलीफदेह था बहादुरशाह जफ़र के लिए अपने अज़ीज़ बेटों, पोतों और नवासों को मौत के घाट उतरते देखा विलियम डैलरिंपल की किताब में कई ख़ौफनाक मंज़र बयां किए गए हैं, उन्हीं में से एक है ” मेजर विलियम आयरलैंड का कहना था कि शहजादों के पास भागने के काफी मौके थे। लेकिन हैरत है कि उनमें से बहुत से आस-पास के इलाकों में घूमते हुए पकड़े गए। (कुल मिलाकर) शाही ख़ानदान के 29 बेटे पकड़े और मार डाले गए। शाही ख़ानदान के इतने लोगों का ख़ात्मा हो गया कि ग़ालिब ने महल का रिवायती नाम ‘क़िला-ए-मुबारक’ से बदलकर ‘क़िला-ए-नामुबारक’ रख दिया।

विलियम डैलरिंपल अपनी किताब ( आख़िरी मुग़ल) में एक ओर जगह ग़ालिब के कोट करते हैं जिसमें मायूस ग़ालिब 1861 में अपने मित्र को लिखते हैं ”अल्लाह-अल्लाह दिल्ली न रही एक सहरा बन गई है। और दिल्ली वाले अब तक यहां कि ज़बान को अच्छा कहे जा रहे हैं। वाह रे हुस्ने-एतकाद, अरे बंदा-ए-ख़ुदा, उर्दू बाज़ार न रहा, उर्दू कहां, दिल्ली वल्लाह अब शहर नहीं है कैंप है, छावनी है। न क़िला न बाज़ार, न नहर…”

बड़ शाह बुला चौक का इतिहास 

बड़ शाह बुला चौक

तो चलिए अब लौटते हैं दिल्ली-6 के ‘बड़ शाह बुला चौक पर। फरवरी के महीने में हमने इतिहासकार और दशकों से हेरिटेज के लिए काम कर रहे सुहैल हाशमी साहब के साथ एक हेरिटेज वॉक की, जिसमें उन्होंने हमें एक शटर और उसके बगल में सूख चुके पेड़ के तने को दिखाया, सूख चुका पेड़ कभी बरगद का पेड़ था जिसे बड़ भी कहा जाता है, इसी बरगद के पेड़ पर पीपल का पेड़ उग आया जिसने बरगद के पेड़ को ख़त्म कर दिया इसी पेड़ की नींव में एक सूफी की दरगाह थी जिनका नाम मोहम्मद अब्दुल्ला था, पर उन्हें बुल्ला (या बुला) के नाम से जाना जाता था।

एक शख़्स उनकी दरगाह की देखरेख करता था लेकिन 1947 के विभाजन के वक़्त वो मार दिया गया या फिर कहीं भाग गया (ये साफ़-साफ़ नहीं कहा जा सकता ) तो क़ब्र की देखरेख करने वाला कोई नहीं बचा, उसी विभाजन में एक नौजवान को अपना काम-धंधा शुरू करने के लिए जगह चाहिए थी, उसे ये छोड़ी हुए क़ब्र ( दरगाह ) दिखी उसने क़ब्र को एक चबूतरे में तब्दील कर दिया और वहां एक दुकान शुरू कर दी, आज उसी चबूतरे के आस-पास क़रीब पांच दुकानें हैं जिनमें छोले-भटूरों से लेकर तमाम दूसरी दुकानें हैं, पर आज पीपल का पेड़ भी मर चुका है। 

बड़ शाह चौक पर दुकान के पीछे पुराना पीपल का पेड़ जो अब मर चुका है

”नया इतिहास बना दिया गया बस नाम बदल कर” तभी सुहैल हाशमी हमें वहां की दुकानों पर लगे साइन बोर्ड को देखने के लिए कहते हैं वो कहते हैं ” पीपल ट्री भी मर चुका है और जो कुछ बचा है वो है नाम- “बड़ शाह बुला चौक” वे आगे बताते हैं कि ”कुछ सालों पहले MCD जब बीजेपी के अंडर थी तो यहां एक पीला बॉक्स बना दिया गया और वहां लिखा है शुभ मां मूर्ति चौक। दो पीढ़ियों में ही लोग भूल गए बड़ शाह बुला/बुल्ला और ये शुभ मां मूर्ति चौक बन गया, तो नया इतिहास बना दिया गया बस नाम बदल कर” 

यहीं हमने एक लड़के से बात की ये लड़का ठीक बड़ शाह बुला चौक पर स्थित दुकान पर बैठता है,19 साल के इस लड़के से हमने पूछा कि क्या वो बड़ शाह बुला चौक के बारे में कोई जानकारी दे सकता है? तो उसका ये हैरान करने वाला जवाब मिला ”यहां पर पहले कोट हुआ करता था, यहां फैसले हुआ करते थे इसलिए इसका नाम बड़ शाह बुला चौक है” और तो और इस लड़के ने हमें ये भी बताया कि बड़ शाह बुला किस भाषा से निकला है ”ये मद्रासी भाषा का शब्द है बड़ शाह बुला चौक, लेकिन अब जैसे की सरकार चेंज होती जा रही है तो नाम चेंज होते जा रहे हैं, कई लोगों ने इसका नाम मां मूर्ति चौक भी रखा है, लेकिन लोग इतना नहीं जानते, लोगों के दिमाग़ में यही है कि बड़ शाह बुला चौक पर जाना है”

तो ना किसी सूफ़ी का वजूद बचा, ना दरगाह बची, ना कोई बड़ का पेड़ बचा, बस नाम है बड़ शाह बुला/बुल्ला, वो भी किसका था, किस भाषा का था ये आने वाले लोग भूलते जा रहे हैं।

ग़ालिब के ख़त में बड़ शाह बुला चौक का ज़िक्र

अब हमने इस ‘बड़ शाह बुला( बुल्ला) चौक’ की ऐतिहासिक मौजूदगी के ‘सबूत’ तलाशने की कोशिश की जो हमें ग़ालिब के ख़तों की एक किताब तक ले गए जिसमें लिखा था- ”जामा मस्जिद के गिर्द 25-25 फुट गोल मैदान निकलेगा, दुकानें, हवेलियां, ढाई जाएंगी, दा-रुल-बक़ा फ़ना हो जाएगी रहे नाम अल्लाह का, खानचंद का कूचा, शाह बुला के बड़  तक ढहेगा, दोनों तरफ से फावड़ा चल रहा है, ख़ैर-ओ-आफ़ियत”

‘ग़ालिब के ख़ुतूत’ का वॉल्यूम-वन – पांच किताबों का एक कलेक्शन है जिसका नाम है ‘ग़ालिब के ख़ुतूत’ जिसे कंपाइल किया है प्रोफेसर ख़लीक़ अंजुम ने। उसी की जिल्द-अव्वल (वॉल्यूम-वन) के पेज नंबर 218 पर ग़ालिब का एक ख़त है जिसे उन्होंने मीर मेदी मजरूह को लिखा था जिसमें वे 1857 के विद्रोह के बाद शाहजहानाबाद (आज की दिल्ली-6) के हालात के बारे में उन्हें बता रहे थे और उसी ख़त की चंद लाइनों का ऊपर ज़िक्र है। ( ये जानकारी भी हमें इतिहासकार सुहैल हाशमी के पास मौजूद किताब से मुहैया करवाई गई)

बड़ शाह बुला चौक, अब भी दुकानों के पते बता रहा है

बड़ शाह बुल्ला की दरगाह ग़ायब हो चुकी है लेकिन नई सड़क की दुकानों पर आज भी उनका नाम है। पर ये भी कब तक रहेगा क्या पता? और रहे भी या नहीं उससे एक सूफ़ी को क्या ही फर्क  पड़ने वाला है, वो अपना काम कर दुनिया से फानी हो चुके हैं, पर उर्दू नामों, पहचान और इतिहास के मारे लोग आज भी उसी माज़ी में मगजमारी कर रहे हैं और अपनी राजनीति के लिए इतिहास के भूतों को खोद रहे हैं। 

(नजमा खान स्वतंत्र पत्रकार हैं।) 

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