टूट गया इजराइल का गुरूर

इजराइल का गुरूर ईरान ने तोड़ दिया। वर्षों से इजराइल को इस बात का घमंड था कि उसके मुल्क के आयरन डोम यानि लौह दीवार की कवच को कोई वेध नहीं सकता है। लेकिन ईरान के एक हमले ने इस कथित किंवदंती को तार-तार कर दिया। डेढ़ सौ से ज्यादा मिसाइल के रूप में आग के गोलों की एक साथ तेल अवीव समेत उसके दूसरे शहरों पर जब बरसात हुई तो पूरा इजराइल एकबारगी कांप उठा। अभी तक इजराइल का पाला गाजा के फिलिस्तीनियों समेत हिज्बुल्लाह के लड़ाकों और यमन के हूतियों से पड़ा था जो पूरी तरह से एक मुल्क भी नहीं हैं। 

अरबों के साथ अब तक हुए तीन युद्धों को जीत चुके इजराइल के नागरिक अपने राष्ट्र को किसी सुपरमैन से कम नहीं समझते थे। उनको लगता था कि उनके देश को हराने या फिर नीचा दिखाने वाली कोई ताकत अभी इस धरती पर पैदा ही नहीं हुई है। और ऊपर से जब अमेरिका समेत पश्चिम के सबसे ताकतवर मुल्कों का साथ मिल जाए तो फिर यह घमंड आसमान चढ़ कर बोलने लगता है। लेकिन शुक्रवार की रात को ईरानी हमलों ने इस घमंड को चकनाचूर कर दिया। 

हमले के तुरंत बाद तेल अवीव प्रशासन ने सायरन बजाकर लोगों को बंकरों और शेल्टर हाउसों में जाकर छुप जाने का निर्देश दिया। इस तरह से शुक्रवार की पूरी रात इजराइल के बाशिंदों को अपने शेल्टरों में काटनी पड़ी। इस बीच रात भर ईरानी मिसाइलें इजराइल के रक्षा प्रतिष्ठानों से लेकर मोसाद के हेडक्वार्टर को निशाना बनाकर उन पर हमले करती रहीं।

चूंकि इजराइल के ज्यादातर सैनिक ठिकाने रिहाइशी इलाकों में ही बने हैं इसलिए आस-पास के रिहाइशी मकानों को भी इससे काफी क्षति पहुंची है। घर के घर मलबे में तब्दील हो गए। जो तस्वीरें कुछ दिनों पहले गाजा क्षेत्र से आती थीं कमोबेश वही नजारा इन हमलों के बाद इजराइल का था। इस हमले में बताया जा रहा है कि तकरीबन 80 लोग घायल हुए हैं और तीन लोगों की मौत हो गयी है। जबकि इसके उलट ईरान में 78 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है जिसमें आर्मी चीफ समेत सेना के कई कमांडर शामिल थे।

किन्हीं भी दो देशों के बीच लड़ाई में आजकल यह घोषित नियम है कि कोई भी देश एक दूसरे के न्यूक्लियर ठिकानों पर हमला नहीं करेगा। लेकिन इजराइल न तो कोई अंतरराष्ट्रीय कानून मानता है और न नियम। उसको लगता है कि ये सारे नियम-कानून उसके लिए नहीं हैं। लिहाजा उसने आईएईए समेत तमाम अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों और संगठनों के दिशा निर्देशों की धज्जियां उड़ाते हुए ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमला किया। वो तो कहिए न्यूक्लियर ठिकानों का ढांचा इतना मजबूत था कि इजराइली मिसाइलें उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकीं। 

लेकिन एकबारगी सोचिए अगर ऐसा नहीं होता और इजराइली उनको ध्वस्त करने के अपने मंसूबों में कामयाब हो जाते तो फिर रेडियोएक्टिव और न्यूक्लियर किरणों से जो तबाही मचती क्या उसका अंदाजा लगाना किसी के लिए आसान है? दुनिया अभी हिरोशिमा और नागासाकी की एक विभीषिका से उबर नहीं पायी है और आइंदा कोई ऐसी घटना न हो उसके लिए प्रार्थनाएं करती है। लेकिन यहां इजराइल है कि इन सब बातों का उसके ऊपर कोई फर्क ही नहीं पड़ता है।

दिलचस्प बात यह है कि जो ट्रम्प भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध रुकवाने का श्रेय लेने से अघा नहीं रहे हैं। यहां यह साफ करना जरूरी है कि युद्ध रुकवाने के पीछे सबसे बड़ा जो कारण रहा है वह पाकिस्तान के एक न्यूक्लियर ठिकाने को निशाना बनाकर भारत की ओर से किया गया एक हमला था। 

जिसकी खबर आते ही अमेरिका सक्रिय हो गया और एक रात के भीतर ही दोनों पक्षों से बात करके संघर्ष को रोकने के लिए उन्हें मजबूर कर दिया। लेकिन इसी अमेरिका और इसी ट्रम्प को इजराइल द्वारा ईरानी न्यूक्लियर ठिकानों पर किए गए हमलों से कोई फर्क नहीं पड़ता है। बल्कि एक तरह से उन्होंने इजराइल को उकसाने का ही काम किया है। शुरू में तो ट्रम्प ज़रूर बच-बच कर बयान दे रहे थे। और खुद को इस रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे थे जैसे यह शुद्ध रूप से इजराइल और ईरान के बीच का मसला है। अमेरिका इसमें कहीं नहीं आता है। लेकिन अब उन्होंने खुल कर स्वीकार कर लिया है कि ईरान पर इजराइली हमले की उन्हें पूरी जानकारी थी। और पल-पल का उन्हें अपडेट मिल रहा था। इतना ही नहीं हमले से ठीक पहले अमेरिका ने इजराइल को 300 से ज्यादा अत्याधुनिक मिसाइलें सप्लाई कीं। 

इससे भी आगे बढ़कर जब ईरान ने हमला किया तो उसकी मिसाइलों को इंटरसेप्ट करने में केवल इजराइली सैन्य शक्ति ही नहीं मध्य पूर्व के ठिकानों पर तैनात अमेरिकी सेना भी सक्रिय थी। और उससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि 67 की लड़ाई में इजराइल के खिलाफ फिलीस्तीन के साथ रहने वाले जॉर्डन और मिस्र तक ने ईरानी मिसाइलों को इंटरसेप्ट किया। सऊदी अरब से लेकर कतर समेत तमाम अमेरिकी पिट्ठू देश अंदर ही अंदर इजराइल को समर्थन दे रहे हैं। यह अपने किस्म का पहला युद्ध होगा जिसमें अरब दुनिया का एक हिस्सा फिलीस्तीन और ईरान के खिलाफ खड़ा है।

लेकिन ऐसा नहीं है कि ईरान अकेला है। रूस ने खुले तौर पर ईरान के पक्ष में बयान जारी किया है। रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने खुमैनी को फोन कर उनके प्रति सहानुभूति जतायी है और इसी के साथ उन्होंने तेल अवीव स्थित इजराइली राष्ट्रपति नेतन्याहू से बात कर उनसे सीधे इस हमले की मजम्मत की। पुतिन ने बगैर किसी लाग-लपेट के जो कहा और किया ऐसा अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक जगत में बहुत कम देखने को मिलता है। इसके साथ ही दुनिया की दूसरी महाशक्ति चीन ने भी ईरान पर इजराइली हमले की निंदा कर अपनी मंशा जाहिर कर दी है। इस लिहाज से कहा जाए तो दुनिया के दो सबसे बड़े और ताकतवर मुल्कों का ईरान को साथ मिल गया है। अब ये किस रूप में ईरान का सहयोग और समर्थन करते हैं यह भविष्य में देखने को मिलेगा। 

इसके साथ ही पश्चिमी देशों में भी इस मुद्दे को लेकर अंतरविरोध पैदा हो गया है। इंग्लैंड ने तो खुलकर कह दिया है कि वह ईरान पर होने वाले हमले में इजराइल का साथ नहीं देगा। फ्रांस तो पहले से ही इसके खिलाफ है। ऐसे में देखना होगा कि अमेरिका कितने समय और कहां तक इजराइल के साथ खड़ा रहता है? इस बीच ईरान ने भी यह कहकर कि जो भी इजराइल का साथ देगा खाड़ी में स्थित उसके ठिकानों को बख्शा नहीं जाएगा, पश्चिमी देशों को अपना संदेश दे दिया है। ऐसे में समझा जा सकता है कि ईरान कितनी-तैयारी के साथ इस युद्ध के मैदान में है।

इस बात में कोई शक नहीं कि इजराइल के पहले दिन के हमले में ईरान का काफी नुकसान हुआ है। वह आर्मी चीफ समेत दूसरे मिलिट्री कमांडरों की मौत हो या फिर आम जनता के स्तर पर नुकसान। अगर वह पहले से सतर्क रहा होता तो शायद ऐसा नहीं हो पाता। लेकिन किसी न किसी स्तर पर लापरवाही ज़रूर बरती गयी है। और समय रहते ईरान को इसको हल कर लेना चाहिए। 

इस पूरे प्रकरण में भारत के ऊपर एक दाग ज़रूर लग गया है। वह भारत जो अभी तक ईरान का सबसे बड़ा दोस्त हुआ करता था। और इजराइल-अरब मसले में खुलकर अरब के साथ हुआ करता था। उसके प्रधानमंत्री मोदी ने इजराइल के राष्ट्रपति नेतन्याहू से बात जरूर की लेकिन उन्होंने ईरान के हेड ऑफ स्टेट से बात करनी जरूरी नहीं समझी। कहा जा रहा है कि विदेश मंत्री एस जयशंकर ने ईरान के प्रधानमंत्री से बात ज़रूर की है।

लेकिन इससे भी ज्यादा गलत भारत ने जो किया है वह सुरक्षा परिषद में फिलीस्तीन मसले को लेकर उसका रुख है। फिलीस्तीन के सवाल पर होने वाले मतदान में अब तक खुलकर फिलीस्तीनियों के पक्ष में बोलने वाला भारत इस बार गैरहाजिर रहा। जो एक तरह से इजराइल के पक्ष में होने का एक खुला संकेत है।

यह सरकार की पिछले 70 सालों से चली आ रही विदेश नीति में एक यू टर्न है। इससे न केवल पूरे देश की नियति बल्कि उसका भविष्य भी प्रभावित होने जा रहा है। भारत सरकार खुलकर एक ऐसे देश के समर्थन में खड़ी हो रही है जो न केवल अवैध है बल्कि 70 हजार से ज्यादा लोगों के नरसंहार का दोषी है। नेतन्याहू से बात करने की जगह देश के प्रधानमंत्री को उन्हें गिरफ्तार कर उनके खिलाफ मुकदमा चलाए जाने की मांग करनी चाहिए। यह न केवल भारत की आत्मा के खिलाफ है बल्कि अभी तक चले आ रहे भारत के अंतरराष्ट्रीय गौरव और गरिमा पर भी कड़ी चोट है।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

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