पिछले दिनों ग्रेटर नोएडा सोसायटी से कुछ अजीबो-गरीब किस्म की खबर आई। बिजनेस स्टैंडर्ड की खबर के अनुसार यह ग्रेटर नोएडा पश्चिम के ईकोविलेज-2 की कहानी है। यहां कुत्तों को गेटेड सोसायटी में रहने देने और उन्हें खाना खिलाने को लेकर उठा विवाद कुछ अजीब से मोड़ पर पहुंच गया।
यहां के निवासियों के एक हिस्से का कहना है कि आवारा कुत्तों को यदि कुत्ता-प्रेमी लोग भोजन करा सकते हैं और कुत्ते खुलेआम कालोनी में घूमने के लिए आजाद हैं, तब दूसरे जानवर भी यहां क्यों नहीं रह सकते। दूसरा हिस्सा अब यहां गाय, भैंस, बंदर आदि जानवर इस आवास परिसर में लाना चाहता है और उसे भी वही आजादी देना चाहता है जो कुत्तों को मिली हुई है।
यह बहस जानवरों के साथ बराबरी का व्यवहार करने की समानता के वैधप्रावधान वाले तर्क तक चला गया। जब इसे लेकर साफ-सफाई की बात आई, और जानवरों से बिमारी फैलने का हवाला दिया गया तब भी ठीक इसे भी इसी समानता के तर्क में रखा गया। जानवरों की उपयोगिता को लेकर भी बात हुई और इस बहस का एक और निष्कर्ष भेड़ और बकरियों को यहां रखने के निर्णय तक चला गया।
अवारा कुत्तों को लेकर नगर निगम, राज्य सरकारें, खासकर शहरी क्षेत्रों में समय-समय पर नीति बनाती, अपनाती रही हैं और उनकी धरपकड़ और उनकी संख्या न बढ़ने देने के लिए उनकी नसबंदी आदि का कार्यक्रम भी चलता रहता है। जानवरों के अधिकार और उनके प्रति क्रूरता को लेकर भी कई आंदोलन और मुकदमे दायर होते रहते हैं।
अभी पिछले महीने ही दिल्ली उच्च-न्यायालय ने राज्य सरकार को आदेश दिया है कि वे अवारा कुत्तों के लिए संस्थागत तरीके अपनाएं और उनके रख-रखाव की व्यवस्था करें, उन्हें नियंत्रित करें। अकेले दिल्ली में 2024 के वर्ष में इंसान को कुत्तों द्वारा काटने की लगभग 25000 हजार मामले दर्ज किए गये। 2023 के मुकाबले यह लगभग 9000 हजार की वृद्धि थी। मई, 2025 में पूर्व केंद्रीय मंत्री विजय गोयल ने बकायदा इस मुद्दे को लेकर प्रदर्शन किया जिसमें 100 रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन और एनजीओ ने हिस्सेदारी किया। उन्होंने भाषण में बताया कि अकेले दिल्ली में 11 लाख कुत्ते हैं और दिल्ली में प्रतिदिन 2000 लोगों को ये अवारा कुत्ते काटते हैं।
वैसे, पूरे भारत में कुत्तों के काटने की कुल घटनाएं 2024 में 22 लाख थी। दूसरे नम्बर पर बंदर काटने की घटना थी जो 5 लाख से अधिक थी। जानवरों के काटने के शिकार में 20 प्रतिशत बच्चे हैं और इनमें भी जो 15 वर्ष से कम हैं उनकी संख्या अधिक थी। यदि शहर और गांव में कुत्तों के काटने का प्रतिशत देखा जाए तो शहरों में कुत्तों के काटने की घटना गांव के मुकाबले अधिक है।
अब हम ग्रेटर नोएडा की गेटेड सोसायटी में चल रही बहस की और लौटते हैं। जानवरों के बराबर के अधिकार का दावा मूलतः हर इंसान बराबर है, के तर्क का ही अनुवाद है। यह बहुत कुछ संवैधानिक दावे जैसी बात है जिसमें नागरिकों को अधिकार दिये गये हैं। लेकिन, दावे या तर्क तभी काम करते हैं जब उसके पीछे ताकत हो।
पिछले दसियों साल से हम ऐसे रेजिडेंट सोसायटी या गेटेड सोसायटी में समानता का अधिकार उस समय खत्म होते देखते रहे हैं जब ‘समाज’ और कई बार तो ‘राष्ट्र’ के हवाले से ‘अवांछित लोगों’ को इससे बाहर कर दिया गया। यह ‘समाज’ धर्म की एकरसता से बना हुआ होता है और ‘अवांछित लोग’ का वर्गीकरण धर्म के अतिरिक्त वर्ग, जाति और अन्य तत्व भी हो सकते हैं। इस संदर्भ में हम आये दिन खबरें भी देखते रहे हैं। शहरी समाज में आवास के पैटर्न का अध्ययन इसे और भी स्पष्ट करता है।
मसलन, इसी समय दिल्ली में जिस तरह से झुग्गी बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है, वे निश्चित ही एक चुने हुए वे समुदाय हैं जो एक खास तरह के आवासीय संरचना में रहते हैं और उनकी आय न्यूनतम की श्रेणी में आती है। यहां रहने वाले सामान्यतः कामगार लोग हैं। इनके आवास को ‘अवैध’ बताया गया। लेकिन, यदि हम गेटेड सोसायटी की विशाल इमारतों को देखें, तब उसके ‘वैध’ होने में कई अड़चनें दिखाई देने लगेंगी, लेकिन उन्हें गिराने का निर्णय लेना वैसा ही नहीं हो सकता जैसा झुग्गी-बस्तियों के लिए किया गया। वहां बुलडोजर ऐसे नहीं पहुंच जाता जैसे गरीब बस्तियों में कहर बरपाते हुए पहुंचता है।
यह जो गेटेड सोसायटी पिछले 25 सालों में विकसित हुई है, उसकी समस्या कई स्तर की है। लेकिन एक बड़ी समस्या उसकी सांस्कृतिक समझ की है और उसे वह ठीक करने की बजाय उधार और सुनी-सुनाई बातों के आधार पर अपने जीवन का फलसफा गढ़ने तक ही सिमटता प्रतीत होता है। जब वह जानवरों की बराबरी का तर्क गढ़ रहा था, तब उसे शायद ही इस बात का ख्याल हो कि इंसान और जानवरों के बीच के रिश्ते उतने ही पुराने हैं जितना इंसान का इतिहास।
जानवर एक दूसरे के बराबर नहीं हैं और उनकी विशिष्ट स्थिति के कारण उनका विशिष्ट उपयोग और उसकी पहचान है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर बात किया जाए तो कुत्ता ही वह पहला जानवर है जो इंसानों के करीब आया और साथ रहने लगा। इसकी उपयोगिता वही नहीं थी जो बकरी, भेंड, गाय, भैंस, घोड़े, हाथी और ऊंट की थी। इस मामले में चिड़ियों की उपयोगिता भी अलग-अलग किस्म की रही है।
यहां कुत्तों की स्थिति विशिष्ट रही है। यह इंसान के साथ उसके आवास तक और शहरी जीवन में उसके अपने कमरे तक आया। वह बहुत मामलों में, खासकर ग्रामीण इलाकों में किचेन में इंसान के साथ बैठा हुआ दिखता रहा है।
इन जानवरों की विशिष्ट स्थितियां इनके पौराणिक आख्यानों से भी व्याख्यायित हुईं। हालांकि भारत में गाय को जितनी प्रतिष्ठा मिली उतनी घोड़ों और कुत्तों को नहीं मिल सकी। महाभारत की कथा में पांडवों के साथ कुत्ते के स्वर्गारोहण की कथा भी उसे धार्मिक प्रतिष्ठा नहीं दिला सकी।
इसी तरह राज्यों के गठन और विस्तार के पौराणिक आख्यानों में घोड़ा एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह युद्ध और राज्य विस्तार का आधार के रूप में वर्णित होता रहा है। घोड़ों ने मंगोलों को पूरी दुनिया नापने का जो आधार दिया, उससे पूरी दुनिया का नक्शा ही बदल गया। आज भी भारत में आर्यों का आगमन सिद्ध करने और हड़प्पा को आर्य-सभ्यता बताने के लिए घोड़ों की खोज में गधे की नस्ल तक उदाहरण बना देने का प्रयास हुआ और हो रहा है, घोड़ों से जुते रथ की खोज में सिनौली की व्याख्या पर जोर-जबरदस्ती चल रही है, लेकिन तब भी गाय के बराबर की प्रतिष्ठा उसे नहीं मिली।
इन सबसे बदतर स्थिति भैंस की रही। बकरी और भेंडे़ रेवड़ ही बनी रहीं जब कि भारत की अर्थव्यवस्था में उनकी हिस्सेदारी काफी रही है। महात्मा गांधी ने बकरी को जरूर प्रतिष्ठा दिलाने की कोशिशें की। लेकिन, हाल के दिनों में बकरीद की भेंट से बचाने के नाम पर इसे भी एक विवादास्पद जानवर में बदल दिया गया। हद तो तब हो गई जब अंबानी-पुत्र ने ‘घायल मुर्गों’ को बचाने का दावा किया। लेकिन, इन सबमें सबसे विवादास्पद जानवर गाय ही रही, जिसके नाम पर पीट-पीटकर लोगों को मार डालने की घटना, गाय के नाम पर पैसा उगाही अब एक धंधे में बदलता जा रहा है।
इस संदर्भ प्रधानमंत्री मोदी का बयान जिसमें वह दबे स्वर में इस तरह की धंधेबाजी का विरोध किया है, काफी चर्चित रहा है। लेकिन, पिछले 20 सालों में ऐसे हिंसक प्रयासों से गायों की स्थिति में कितना सुधार हुआ, यह अलग मसला है, लेकिन गाय बराबर जानवर क्या इंसान भी नहीं है, यह बार-बार सिद्ध हुआ है। हालांकि यह सब संविधान की वैधानिक प्रावधानों में नहीं है। यह वह राजनीतिक प्रयास का नतीजा है जिसे अभी भी ‘इतर ताकत’ की तरह लिखा जाता है। हालांकि वे भारत की राजनीति में एक मुख्य ताकत की तरह काम करते हुए दिखते हैं।
इन पालतू जानवरों में कुत्ता एक विशिष्ट जानवर है। यह इंसान के साथ विशिष्ट संबंधों में रहता है। यह आवारा हो या पालतू, दोनों ही स्थितियों में जो उसे खाना दे रहा है, उससे जुड़ाव प्रकट कर रहा है, उससे वह तेजी से अपनाता है। लेकिन, अपरिचित के साथ उसका व्यवहार बदल जाता है। इसी तरह जिस समाज में वह रह रहा होता है, उसके गुणों को पहचानता और उसी आधार पर व्यवहार को वह विकसित करता है। वह लगातार एक विशिष्ट संबंधों को विकसित करता रहता है जो उसके सीखने की क्षमता के कारण है। यह उसने अपनी विशिष्ट शारीरिक अवस्थिति और इंसान के साथ विशिष्ट संबंधों को विकसित करते हुए किया है। निश्चित ही इसमें उसकी अपनी गंध और स्पर्श की क्षमता एक मुख्य भाग है। मनुष्य शहर में जितना अकेला हुआ है उसके साथ संबंधों में यह विशिष्टता और भी विकसित हुई है।
भारत में शहरों के विकास के प्रबंधन में जानवरों की उपस्थिति नदारद होती है। आमतौर पर वह उनका हिस्सा ही नहीं होते। मसलन, हरित क्षेत्र का मूल अर्थ भी इंसानों के संदर्भ में ही है। पार्काें की व्यवस्था तो इंसान को केंद्र में रखकर ही बनाया जाता है। गुड़गांव में विकास का प्रबंधन बहुत बाद में होना शुरू हुआ। पूरी अरावली पहाड़ियां तेजी से बर्बाद हुईं है और अभी भी हो रही हैं।
इसी तरह से नोएडा से ग्रेटर नोएडा का निर्माण पूरे जंगली क्षेत्र की बर्बादी के साथ आया। यही कारण है कि आज भी तेंदुओं के आ जाने, इंसान पर हमला करने की खबरें आ जाती हैं। यहां अन्य जानवरों, पक्षियों के बारे में बात ही नहीं होती। इसी तरह इन चारागाहों में रहने वाले इंसानों की विलुप्तीकरण जरूरी नहीं कि उनके शहरीकरण में तब्दील हो गयी हो।
लेकिन, एक बार फिर कुत्तों के जीवन पर आते हैं। ये अन्य जानवरों से इस मामले में अलग हैं कि इसकी उपयोगिता अन्य जानवरों की तरह नहीं है। ये इंसानों पर ही निर्भर हैं। कह सकते हैं कि इतिहास के कारण ये इंसानी आवासों के आसपास रहने के लिए अभिशप्त हैं। और, ये कितने भी पालतू हों, ये जानवर ही हैं। ये इंसान के साथ द्वैध संबंधों में हैं। पहला, वे जानवर हैं, दूसरा, वे इंसान पर निर्भर हैं। इसमें दूसरा संबंध इसकी उपयोगिता के कारण नहीं, संबंधों की विशिष्टता के कारण है। इसलिए इनके प्रति इंसान का व्यवहार वही नहीं हो सकता जो अन्य जानवरों को लेकर है। इनके प्रति प्रबंधन से लेकर इन्हें पालने तक के नियम और उससे होने वाले नुकसान के प्रति जिम्मेवारी निभाने वाली व्यवस्था करनी होगी।
एक पर्यावरणविद् ने लद्दाख में कुत्तों के आवास बदलने और भोजन के पैटर्न में बदलाव की वजह से जब वे इंसान से दूर होते गये तब वे एक नई नस्ल में ही बदलने लगे। इसी तरह की एक रिपोर्ट मुंबई के बाहरी हिस्सों से है जहां कुत्ते एक नयी नस्ल में बदलते हुए दिखे हैं। इस पर बीबीसी की रिपोर्ट, यूट्यूब पर देखा जा सकता है। कुत्तों के व्यवहार में होने वाले बदलाव को लेकर जितना अध्ययन होना चाहिए, अब भी कम है। लेकिन, इतना जरूर जानना चाहिए कि ये भेड़िये की नस्ल के प्राणी हैं।
भारत में कुत्तों को पालने और उन्हें पालतू बनाने में एक सांस्कृतिक परिवर्तन तब दिखाई दिया जब ‘विदेशी कुत्तों’ का प्रचलन बढ़ा। ये कुत्ते अपने नये परिवेश में काफी आक्रामक और जानलेवा साबित हुए।
हम पिछले कई दशकों से पर्यावरण के प्रति अपनाया हुआ व्यवहार नतीजों को सामने ला रहा है। जंगलों से निकलकर जानवरों का सड़क पर आना, रिहाईशी इलाकों में आना, बहुत से पक्षी और जानवरों का गुम होते जाना उसके परिणाम हैं। अभी हाल ही में एक खबर काफी लोकप्रिय हुई जब जंगल का एक भूखा हाथी एक ग्रोसरी की दुकान में घुस गया। वह उस दुकान में जाकर अपनी ऊंचाई के कारण फंस गया। लेकिन मूल बात तो उसकी भूख थी। यह घटना किसी और देश की है। लेकिन, हमारे यहां तो ऐसी घटनाएं रोजमर्रा की बात की तरह है, लेकिन चर्चा से परे हैं। कारण, वे ग्रोसरी की दुकान में नहीं किसानों की खेत, उनके घरों में आते हैं।
ग्रेटर नोएडा में गेटेड सोसायटी इस परिप्रेक्ष्य में न तो जानवरों को देखने के लिए उत्सुक है और न ही उसके इतिहास में झांकने की जहमत उठाना चाहता है। वह जहां रह रहा है, वहां के निवासियों, वहां के पर्यावरण और लुप्त हो गये जानवरों को लेकर उसे चिंता नहीं है।
उसे, जो पानी पी रहा है, वह किसके हिस्से का पानी है और इस पानी के कारण इसके मूल स्रोत पर रहने वाले लोग किस कदर बदतर जीवन जी रहे हैं, इसकी चिंता नहीं होती। उसके घरों में काम करने आने वाले लोग, उन्हें उनके घर तक सामान पहुंचाने वाले लोग कहां से आते हैं, कितना कमाते हैं और इंसान का हक रखते हैं या नहीं, जैसे प्रश्न उसके जेहन में टिकते नहीं हैं।
यह सोसायटी वह बराबरी खोज रहा है जिसमें वह रहना चाहता है और इस बराबरी के दावे के लिए जानवरों को सामने कर रहा है। इसमें कितनी उसकी बराबरी की चेतना है और कितना दबदबा बनाकर रहने की इच्छा है, इसे तय करना मुश्किल है।
लेकिन, इतना तो साफ दिखता है कि गेटेड सोसायटी में संस्कृति और मूल्य को लेकर बेचैनी है और इस संदर्भ में अपनी विडम्बना के साथ पीड़ा में भी है। भारत में एक शहरी समाज बनने के लिए जिस तरह की पहलकदमी की दरकार है, उससे यह मध्यवर्ग बहुत-बहुत दूर है।
(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं)